भारत में राष्ट्रपति शासन | 23 Sep 2025

प्रिलिम्स के लिये:  मणिपुर में राष्ट्रपति शासन, राष्ट्रपति शासन संसद, उच्च न्यायालय, अध्यादेश, राज्य की समेकित निधि, 44वाँ संशोधन (1978), न्यायिक समीक्षा, सर्वोच्च न्यायालय, एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), केंद्र-राज्य संबंध 

मेन्स के लिये: भारतीय संघीय ढाँचे में राष्ट्रपति शासन की भूमिका, राज्य स्वायत्तता और संघवाद पर राष्ट्रपति शासन का प्रभाव।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

मणिपुर में राष्ट्रपति शासन के विस्तार ने पूरे भारत में अनुच्छेद 356 के ऐतिहासिक उपयोग की ओर ध्यान आकर्षित किया है, जिससे पता चलता है कि इसके लागू होने से न केवल राज्य का लोकतंत्र निलंबित होता है, बल्कि राजनीतिक शक्ति की गतिशीलता भी बदल जाती है। 

राष्ट्रपति शासन क्या है? 

  • परिचय: राष्ट्रपति शासन से तात्पर्य राज्य सरकार और उसकी विधानसभा को भंग करने से है, जिससे राज्य केंद्र सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में आ जाता है। 
    • राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है। राष्ट्रपति शासन को राज्य आपातकाल या संवैधानिक आपातकाल के नाम से भी जाना जाता है। 
    • संविधान में ‘संवैधानिक तंत्र की विफलता’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, जिसके कारण केंद्र द्वारा व्यक्तिपरक व्याख्या की जाती है, जिसके परिणामस्वरूप दुरुपयोग हो सकता है। 
  • संवैधानिक आधार: 
    • अनुच्छेद 355: केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करने का अधिकार देता है कि राज्य संविधान के अनुसार कार्य करें।
    • अनुच्छेद 356: यदि राज्य सरकार संवैधानिक रूप से कार्य करने में विफल रहती है तो राष्ट्रपति राज्यपाल की सिफारिश पर या राष्ट्रपति के विवेक पर राष्ट्रपति शासन लागू कर सकते हैं।   
    • अनुच्छेद 365: यदि कोई राज्य केंद्र के निर्देशों का पालन नहीं करता है तो राष्ट्रपति यह घोषणा कर सकते हैं कि उसकी सरकार संवैधानिक रूप से कार्य नहीं कर सकती। 
  • उद्घोषणा के आधार: राष्ट्रपति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं, यदि वे संतुष्ट हों कि राज्य का शासन राज्यपाल की रिपोर्ट या अन्य जानकारी या अपने विवेक के आधार पर संवैधानिक रूप से कार्य करना जारी नहीं रख सकता है। 
    • इसके अतिरिक्त, यदि कोई राज्य केंद्र के निर्देशों का पालन करने में विफल रहता है तो राष्ट्रपति शासन घोषित किया जा सकता है। 
  • संसदीय अनुमोदन: राष्ट्रपति शासन की घोषणा को दो माह के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिये। 
    • यदि राष्ट्रपति शासन की घोषणा लोकसभा के भंग होने पर की जाती है या यदि लोकसभा बिना किसी अनुमोदन के दो महीने के भीतर भंग हो जाती है तो यह लोकसभा के पुनः आहूत होने के 30 दिन बाद तक वैध रहती है, बशर्ते कि इस अवधि के दौरान राज्य सभा इसे अनुमोदित कर दे। 
    • राष्ट्रपति शासन को मंज़ूरी देने या बढ़ाने के लिये संसद में साधारण बहुमत (उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का बहुमत) की आवश्यकता होती है। 
  • अवधि: राष्ट्रपति शासन प्रारंभ में छह महीने तक रहता है, जिसे हर छह महीने में संसद की मंजूरी से 3 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। 
    • 44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978 एक वर्ष से अधिक विस्तार की अनुमति देता है, यदि राष्ट्रीय आपातकाल लागू हो या भारत निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित करे कि चुनाव कराना संभव नहीं है। 
    • तीन वर्ष से अधिक विस्तार के लिये संविधान संशोधन की आवश्यकता होती है (उदाहरण के लिये, उग्रवाद के दौरान पंजाब के लिये 67वाँ और 68वाँ संशोधन)। 
  • निरसन: राष्ट्रपति, संसदीय अनुमोदन के बिना भी किसी भी समय राष्ट्रपति शासन को निरस्त कर सकते हैं। 
  • राष्ट्रपति शासन के प्रभाव: 
    • कार्यकारी शक्तियाँ: राज्य के कार्यों का कार्यान्वयन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता हैं। राज्यपाल उनकी ओर से प्रशासन का कार्य करते हैं तथा मुख्य सचिव और नियुक्त सलाहकार उनकी सहायता करते हैं। 
    • विधायी शक्तियाँ: राज्य विधानमंडल को निलंबित या भंग कर दिया जाता है तथा संसद कानून बनाने का अधिकार (जैसा कि अनुच्छेद 357 में उल्लिखित है) का प्रयोग करती है या इसे राष्ट्रपति या किसी निर्दिष्ट निकाय को सौंप देती है। 
      • राष्ट्रपति शासन के दौरान बनाए गए कानून तब तक लागू रहते हैं, जब तक कि राज्य विधानमंडल द्वारा उन्हें निरस्त नहीं कर दिया जाता। 
    • वित्तीय नियंत्रण: राष्ट्रपति राज्य समेकित निधि से व्यय को अधिकृत कर सकता है, जब तक कि उसे संसद द्वारा अनुमोदित न कर दिया जाए। 
    • मूल अधिकार: राष्ट्रपति शासन नागरिकों के मूल अधिकारों पर अंकुश नहीं लगाता है। राष्ट्रीय आपातकाल के विपरीत जहाँ अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रताएँ निलंबित कर दी जाती हैं और अन्य अधिकार (20 और 21 को छोड़कर) सीमित किये जा सकते हैं। 

President’s Rule in India

President’s Rule in India

भारत में राष्ट्रपति शासन के संबंध में न्यायिक घोषणाएँ 

  • S. R. बोम्मई मामला (1994): सर्वोच्च न्यायालय  ने फैसला किया कि अनुच्छेद 356 न्यायिक समीक्षा के अधीन है और किसी राज्य सरकार को पदच्युत करने का निर्णय केवल राज्यपाल की राय पर आधारित नहीं होना चाहिये, बल्कि इसके लिये फ्लोर टेस्ट किया जाना आवश्यक है। 
  • सरबनंदा सोनोवाल मामला (2005): सर्वोच्च न्यायालय ने यह पुष्टि की कि केंद्र की ज़िम्मेदारी (अनुच्छेद 355 के तहत) राज्यों को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाने की है। 
  • रमेश्वर प्रसाद मामला (2006): सर्वोच्च न्यायालय ने बिहार विधानसभा के बिना फ्लोर टेस्ट के विघटन की निंदा की तथा अनुच्छेद 356 के राजनीतिक दुरुपयोग की आलोचना की, यह कहते हुए कि इसे भ्रष्टाचार या अपवादों जैसे सामाजिक बुराइयों से निपटने के लिये उपयोग नहीं किया जा सकता। 

भारत के संघीय ढाँचे में राष्ट्रपति शासन के क्या सकारात्मक कार्य हैं? 

  • संवैधानिक तंत्र की बहाली: जब कोई राज्य सरकार कानून और व्यवस्था के पतन या शासन की विफलता के कारण संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कार्य करने में विफल हो जाती है तो राष्ट्रपति शासन प्रशासन की निरंतरता सुनिश्चित करता है। 
    • यह एक संवैधानिक सुरक्षा वाल्व के रूप में कार्य करता है, अराजकता को रोकता है और बड़े संघीय ढाँचे की सुरक्षा करता है। 
    • उदाहरण: सांप्रदायिक दंगों या गंभीर राजनीतिक संकट के दौरान राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने से शासन के पूर्ण पतन को रोकने में सहायता मिलती है। 
  • राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा की रक्षा: अलगाववादी आंदोलनों, उग्रवाद या बाह्य खतरों की स्थिति में, राष्ट्रपति शासन संघ को सीधे हस्तक्षेप करने और संप्रभुता बनाए रखने की अनुमति देता है। 
    • व्यापक संसाधनों (सेना, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल, खुफिया एजेंसियाँ) के साथ केंद्र सरकार निर्णायक रूप से कार्य कर सकती है, जिसे राज्य सरकारें प्रभावी ढंग से प्रबंधित नहीं कर सकती हैं। 
    • उदाहरण: 1980 के दशक के दौरान पंजाब में राष्ट्रपति शासन के प्रयोग से उग्रवाद से निपटने और स्थिरता बहाल करने में सहायता मिली। 
  • राजनीतिक गतिरोध के दौरान तटस्थ प्रशासन: त्रिशंकु विधानसभाओं या बड़े पैमाने पर दलबदल जैसी परिस्थितियों में, जहाँ कोई पार्टी बहुमत साबित नहीं कर सकती, राष्ट्रपति शासन अस्थिर गठबंधनों और राजनीतिक सौदेबाज़ी को रोकता है। 
    • यह नई चुनावी मंज़ूरी के लिये जगह बनाता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि शासन राजनीतिक अवसरवाद के शिकार न बनें। 
  • राष्ट्रीय नीतियों के समानांतर कार्यान्वयन को सुनिश्चित करना: प्राकृतिक आपदाओं, महामारियों या आर्थिक संकट जैसी आपात स्थितियों में राष्ट्रपति शासन केंद्र और राज्यों के बीच सहज समन्वय को सक्षम बनाता है। 
    • केंद्र द्वारा नियंत्रण संसाधनों के कुशल आवंटन और तेज़ी से निर्णय लेने को सुनिश्चित करता है, स्थानीय राजनीतिक विवादों को दरकिनार करते हुए। 
  • भ्रष्टाचार और कुप्रशासन के खिलाफ सुरक्षा: राष्ट्रपति शासन राज्यों में भ्रष्टाचार, शक्ति के दुरुपयोग और अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है। 
    • यह कानून के शासन को बनाए रखता है, जवाबदेही सुनिश्चित करता है तथा शक्ति के दुरुपयोग के खिलाफ जाँच और संतुलन दिखाकर संविधान में जनता के विश्वास को मज़बूत करता है। 

भारत में राष्ट्रपति शासन लागू करने से संबंधित चिंताएँ क्या हैं? 

  • संघीयता और राज्य स्वतंत्रता पर जोखिम: राष्ट्रपति शासन अस्थायी रूप से किसी राज्य को केंद्रीय नियंत्रण के अधीन रखता है, जो केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता के संतुलन को प्रभावित कर सकता है। बार-बार इसका प्रयोग संविधान में निहित सहकारी संघवाद की भावना को कमज़ोर कर सकता है। 
    • यह निर्वाचित राज्य सरकारों को कमज़ोर करता है, जिससे केंद्र को कार्यपालिका और विधानपालिका दोनों पर नियंत्रण का अधिकार मिल जाता है तथा राज्य की शक्तियाँ घट जाती हैं। 
  • सत्ता के लिये राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना: राष्ट्रपति शासन को वास्तविक शासन की बजाय राजनीतिक लाभ के लिये लागू किये जाने का जोखिम रहता है, जैसा कि ऐतिहासिक उदाहरणों में देखा गया है। 
    • राज्य सरकारें आंतरिक अस्थिरता के समय मनमाने हस्तक्षेप के प्रति संवेदनशील होती हैं। यह राजनीतिक दुरुपयोग अक्सर क्षेत्रीय राजनीतिक संस्थाओं की कीमत पर केंद्र की शक्ति को मज़बूत करता है। 
  • शासन गतिरोध का जोखिम: राष्ट्रपति शासन नीति क्रियान्वयन में देरी करता है तथा प्रशासन को कमज़ोर करता है, क्योंकि अब राज्य अधिकारी सीधे केंद्र को रिपोर्ट करते हैं, जिससे शासन में ठहराव आता है। 
    • जब कोई राज्य राष्ट्रपति शासन के तहत केंद्रीय नियंत्रण में आता है तो केंद्र के अधिकारी उस राज्य के स्थानीय सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों को पूरी तरह नहीं समझ पाते। 
    • केंद्र द्वारा बनाई गई नीतियाँ और लागू किये गए कार्यक्रम राज्य की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होते, जिससे उनकी प्रभावशीलता और सफलता कम हो जाती है। 
  • राज्यपाल की भूमिका और पक्षपात का जोखिम: राष्ट्रपति शासन की सिफारिश में राज्यपाल की भूमिका विवादास्पद रही है, जैसा कि अरुणाचल प्रदेश मामले (2016) में देखा गया है। 
  • पुंछी आयोग ने सुझाव दिया कि राज्यपाल को स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिये और उन्हें "केंद्र के एजेंट" के रूप में नहीं देखना चाहिये।

भारत में राष्ट्रपति शासन के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने हेतु कौन-से सुधार आवश्यक हैं? 

  • अनुच्छेद 356 का सीमित प्रयोग: सरकारिया आयोग (1983) ने सिफारिश की थी, अनुच्छेद 356 का उपयोग राज्य के संवैधानिक विघटन को हल करने के लिये सभी विकल्पों को समाप्त करने के बाद केवल अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिये। 
    • दुरुपयोग को रोकने के लिये "संवैधानिक तंत्र की विफलता" की परिभाषा को सटीक रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये। 
  • स्थानीयकृत आपातकालीन प्रावधान: पुंछी आयोग (2010) ने अनुच्छेद 355 और 356 के तहत आपातकालीन प्रावधानों को स्थानीयकृत करने का सुझाव दिया है, जिससे राष्ट्रपति शासन की बजाय किसी विशेष क्षेत्र (जैसे ज़िले) में तीन माह तक राज्यपाल का शासन लागू किया जा सके। 
  • राज्यपाल की विस्तृत रिपोर्ट: अंतर-राज्यीय परिषद ने सुझाव दिया कि राज्यपाल की रिपोर्ट विस्तृत और स्पष्ट होनी चाहिये तथा राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले राज्य को चेतावनी दी जानी चाहिये। 
    • इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति शासन लागू करने से पहले अनिवार्य फ्लोर टेस्ट कराना चाहिये, ताकि बहुमत खोने की स्थिति साबित हो सके। इससे लोकतांत्रिक जवाबदेही बनी रहती है और राजनीतिक उद्देश्यों के लिये दुरुपयोग रोका जा सकता है। 
  • अनुसमर्थन के लिये विशेष बहुमत: राष्ट्रपति शासन लागू करने के प्रस्ताव को अनुसमर्थित करने के लिये संसद में विशेष बहुमत की आवश्यकता होनी चाहिये, जिससे व्यापक राजनीतिक सहमति सुनिश्चित हो सके। 
  • न्यायिक जाँच को मज़बूत करना: राष्ट्रपति शासन की समीक्षा में न्यायपालिका की भूमिका को मज़बूत किया जाना चाहिये। एक अनिवार्य न्यायिक समीक्षा तंत्र यह सुनिश्चित करे कि राष्ट्रपति शासन केवल तभी लागू किया जाए, जब आवश्यक हो और वास्तविक संवैधानिक विफलता पर आधारित हो। 
  • विकेंद्रीकृत प्रशासन को प्रोत्साहित करना: राष्ट्रपति शासन के दौरान केंद्रीय हस्तक्षेप और राज्य स्वायत्तता के बीच संतुलन सुनिश्चित करने के लिये स्थानीय शासन तंत्र को मज़बूत किया जाना चाहिये। 
  • समय पर चुनाव और जवाबदेही: लोकतांत्रिक शासन को बहाल करने और लोगों के जनादेश को पुनः स्थापित करने के लिये राष्ट्रपति शासन के तुरंत बाद चुनाव कराए जाने चाहिये। 
    • लंबे समय तक राष्ट्रपति शासन से बचना चाहिये, जब तक कि राष्ट्रीय सुरक्षा या आपदा जैसी वास्तविक परिस्थितियाँ समय पर चुनाव कराने में बाधा न डालें। 

निष्कर्ष:

राष्ट्रपति शासन एक आवश्यक संवैधानिक सुरक्षा प्रावधान है, लेकिन इसका इतिहास दर्शाता है कि यह राजनीतिक दुरुपयोग के लिये समान रूप से संवेदनशील है। असली चुनौती केंद्र के हस्तक्षेप और राज्य की स्वायत्तता के सम्मान के बीच संतुलन बनाने में निहित है। न्यायिक समीक्षा को मज़बूत करना, फ्लोर टेस्ट को अनिवार्य बनाना और समय पर चुनाव सुनिश्चित करना भारत की संघीय भावना की रक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में संघवाद पर राष्ट्रपति शासन के प्रभाव का आकलन कीजिये। राज्य की स्वायत्तता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिये इससे उत्पन्न चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।

 

यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)   

प्रिलिम्स

प्रश्न: यदि भारत का राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन यथा उपबंधित अपनी शक्तियों का किसी विशेष राज्य के संबंध में प्रयोग करता है, तो  (2018)

(a) उस राज्य की विधानसभा स्वत: भंग हो जाती है। 

(b) उस राज्य के विधानमंडल की शक्तियों संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोज्य होंगी। 

(c) उस राज्य में अनुच्छेद 19 निलंबित हो जाता है। 

(d) राष्ट्रपति उस राज्य से संबंधित विधियाँ बना सकता है।

उत्तर: (b)


मेन्स 

प्रश्न: भारत के राष्ट्रपति द्वारा किन परिस्थितियों में वित्तीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है? जब ऐसी घोषणा लागू रहती है तो इसके क्या परिणाम होते हैं? (2018)