गेहूँ और चावल में पोषक तत्त्वों की कमी | 22 Jun 2021

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, मध्याह्न भोजन, आँगनवाड़ी

मेन्स के लिये:

गेहूँ और चावल में पोषक तत्त्वों की कमी का कारण तथा इसका प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के तहत विभिन्न संस्थानों के शोधकर्त्ताओं ने पाया कि भारत में चावल और गेहूँ की खेती में जस्ता और लोहे के अनाज घनत्व में कमी आई है।

  • शोधकर्त्ताओं ने चावल के बीज (16 किस्में) और गेहूँ (18 किस्में) को ICAR के कल्टीवर रिपॉज़िटरी में बनाए गए जीन बैंक से एकत्र किया।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद

  • यह कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग (DARE), कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संगठन है।
  • यह पूरे देश में बागवानी, मत्स्य पालन और पशु विज्ञान सहित कृषि में अनुसंधान तथा शिक्षा के समन्वय, मार्गदर्शन एवं प्रबंधन के लिये शीर्ष निकाय है।
  • इसकी स्थापना 16 जुलाई, 1929 को सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत एक पंजीकृत सोसायटी के रूप में की गई थी।
  • इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है। देश भर में फैले 102 ICAR से संबंधित संस्थानों और 71 कृषि विश्वविद्यालयों के साथ यह दुनिया की सबसे बड़ी राष्ट्रीय कृषि प्रणालियों में से एक है।
  • ‘कल्टीवर रिपॉज़िटरी’ नोडल संस्थान हैं जो हमारे देश की पुरानी किस्मों को संरक्षित और संग्रहीत करते हैं।

प्रमुख बिंदु:

अवलोकन:

  • चावल में सांद्रता:
    • 1960 के दशक में जारी चावल की किस्मों के अनाज में जिंक और आयरन की सांद्रता 27.1 मिलीग्राम/किलोग्राम और 59.8 मिलीग्राम/किलोग्राम थी। यह 2000 के दशक के भीतर क्रमशः 20.6 मिलीग्राम/किलोग्राम और 43.1 मिलीग्राम/किलोग्राम तक कम हो गई।
  • गेहूँ में सांद्रता:
    • वर्ष 1960 के दशक की गेहूँ की किस्मों में जस्ता और लोहे की सांद्रता 33.3 मिलीग्राम/ किग्रा और 57.6 मिलीग्राम/किग्रा. थी, जो 2010 के दौरान जारी की गई किस्मों में क्रमशः 23.5 मिलीग्राम/किग्रा. और 46.4 मिलीग्राम/किग्रा. तक गिर गई।

कमी का कारण:

  • मंदन प्रभाव’ के कारण अनाज की उच्च उपज के साथ पोषक तत्त्वों की सांद्रता में कमी आती है।
  • इसका मतलब यह है कि उपज में वृद्धि की दर पौधों द्वारा पोषक तत्त्व ग्रहण करने की दर के अनुकूल नहीं होती है। इसके अलावा पौधों को उपलब्ध पोषक तत्त्वों में मृदा अनुकूलित पौधों में कमी हो सकती है।

सुझाव:

  • भारतीय आबादी में जस्ता और लौह कुपोषण को कम करने के लिये चावल और गेहूँ की नई (1990 और बाद में) किस्में उगाना एक स्थायी विकल्प नहीं हो सकता है।
    • जिंक और आयरन की कमी वैश्विक स्तर पर अरबों लोगों को प्रभावित करती है तथा इसकी कमी वाले देशों में मुख्य रूप से चावल, गेहूँ, मक्का और जौ से बने आहारों का प्रयोग किया जाता है।
  • भविष्य के प्रजनन कार्यक्रमों में किस्मों को जारी करने में अनाज में पोषण संबंधी कमी में सुधार करके नकारात्मक प्रभावों को दूर करने की आवश्यकता है।
  • बायोफोर्टिफिकेशन जैसे अन्य विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है, जहाँ हम सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से भरपूर खाद्य फसलों का उत्पादन कर सकते हैं।

बायोफोर्टिफिकेशन:

  • बायोफोर्टिफिकेशन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कृषि संबंधी प्रथाओं, पारंपरिक पौधों के प्रजनन, या आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के माध्यम से खाद्य फसलों की पोषण गुणवत्ता में सुधार किया जाता है।

भारत द्वारा की गई पहल:

  • हाल ही में प्रधानमंत्री ने 8 फसलों की 17 बायोफोर्टिफाइड किस्मों को राष्ट्र को समर्पित किया। कुछ उदाहरण हैं:
    • चावल- CR धान 315 में जिंक की अधिकता होती है।
    • गेहूँ- HI 1633 प्रोटीन, आयरन और जिंक से भरपूर।
    • मक्का- हाइब्रिड किस्में 1, 2 और 3 लाइसिन और ट्रिप्टोफैन से समृद्ध होती हैं।
  • बायोफोर्टिफाइड गाजर की किस्म ‘मधुबन गाजर’ गुजरात के जूनागढ़ में 150 से अधिक स्थानीय किसानों को लाभान्वित कर रही है। इसमें β-कैरोटीन और आयरन की मात्रा अधिक होती है।
  • कृषि को पोषण से जोड़ने वाली खेती को बढ़ावा देने के लिये ICAR ने ‘न्यूट्री-सेंसिटिव एग्रीकल्चरल रिसोर्सेज़ एंड इनोवेशन’ (NARI) कार्यक्रम शुरू किया है, पोषाहार सुरक्षा बढ़ाने के लिये न्यूट्री-स्मार्ट गाँव और स्थानीय रूप से उपलब्ध स्वास्थ्य सेवाओं एवं विविध सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये स्थान विशिष्ट पोषण उद्यान मॉडल विकसित किये जा रहे हैं। 
  • बायो-फोर्टिफाइड फसल किस्मों के उत्पादन को बढ़ाया जाएगा और कुपोषण को कम करने के लिये उन्हें मध्याह्न भोजन, आँगनवाड़ी आदि सरकारी कार्यक्रमों से जोड़ा जाएगा।

बायोफोर्टिफिकेशन का महत्व:

  • बेहतर स्वास्थ्य:
    • बायोफोर्टिफाइड प्रधान फसलों का जब नियमित रूप से सेवन होता है तो मानव स्वास्थ्य और पोषण में औसत दर्जे का सुधार होता है।
  • उच्च लचीलापन:
    • बायोफोर्टिफाइड फसलें अक्सर कीटों, बीमारियों, उच्च तापमान, सूखे के प्रति अधिक प्रतिरोधी होती हैं और उच्च उपज प्रदान करती हैं।
  • पहुँच में वृद्धि:
    • बायोफोर्टिफिकेशन एक महत्त्वपूर्ण अंतर को भरता है क्योंकि यह आयरन सप्लीमेंट के लिये भोजन आधारित, टिकाऊ और कम खुराक वाला विकल्प प्रदान करता है। इसके लिये व्यवहार परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, यह समाज के सबसे गरीब वर्गों तक पहुँच सकता है और स्थानीय किसानों का समर्थन करता है।
  • प्रभावी लागत:
    • बायोफोर्टिफाइड बीज को विकसित करने के लिये प्रारंभिक निवेश के बाद इसे सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की सांद्रता में किसी भी कमी के बिना वितरित किया जा सकता है। जो इसे अत्यधिक लागत प्रभावी और टिकाऊ बनाता है।

भारत में बायोफोर्टिफिकेशन की चुनौतियाँ:

  • स्वीकृति की कमी:
    • रंग परिवर्तन (जैसे- गोल्डन राइस) के कारण उपभोक्ताओं की कमी और फोर्टिफाइड भोजन की अंतिम व्यक्ति तक पहुँच एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।
  • लागत:
    • किसानों द्वारा अनुकूलन और फोर्टिफिकेशन की प्रक्रिया में शामिल लागत।
  • धीमी प्रक्रिया:
    • हालाँकि बायोफोर्टिफिकेशन गैर-आनुवंशिक रूप से संशोधित विधियों का उपयोग करके किया जा सकता है, यह आनुवंशिक संशोधन की तुलना में धीमी प्रक्रिया है।

आगे की राह:

  • देश में विविध खाद्य प्रथाओं की व्यापकता के कारण भौगोलिक दृष्टि से अलग क्षेत्रों में बायोफोर्टिफिकेशन को अपनाने और खपत की उच्च दर हासिल करने की आवश्यकता होगी।
  • बायोफोर्टिफाइड फसलों की डिलीवरी के लिये रणनीतियाँ प्रत्येक फसल-पोषक जोड़े हेतु स्थानीय संदर्भ के अनुरूप होनी चाहिये।
  • सरकार को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देना चाहिये। निजी क्षेत्र की भागीदारी खाद्य सुदृढ़ीकरण पहलों को बढ़ाने हेतु तकनीकी समाधानों का लाभ उठा सकती है और समुदायों में जन जागरूकता तथा  शिक्षा अभियानों के माध्यम से सरकार के प्रयासों को पूरक बना सकती है।
  • पोषण की कमी न केवल एक मौलिक मानव अधिकार का हनन है, बल्कि यह एक खराब अर्थशास्त्र भी है। बायोफोर्टिफिकेशन एक आंशिक समाधान है, जिसे गरीबी, खाद्य असुरक्षा, बीमारी, खराब स्वच्छता स्थिति, सामाजिक और लैंगिक असमानता को कम करने के प्रयासों के साथ-साथ जारी रखा जाना चाहिये।

स्रोत- द हिंदू