दवाओं का नैतिक विपणन | 17 Sep 2022

मेन्स के लिये:

उत्पादों का नैतिक विपणन, मानव क्रियाओं में नैतिकता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (The Central Board for Direct Taxes-CBDT) ने डोलो-650 टैबलेट के निर्माताओं पर दवा लिखने हेतु डॉक्टरों को फ्रीबीज (मुफ्त उपहार) देने के लिये 1,000 करोड़ रुपए खर्च करने का आरोप लगाया है।

दवा विपणन में फ्रीबीज:

  • परिचय:
    • दवा निर्माण कंपनियों को 'उपहार देने' का प्रयास करते हुए देखा गया है: अपने उत्पाद विपणन के लिये डॉक्टरों को मुफ्त रात्रिभोज और दवा के नमूनों से लेकर प्रचारक माल तक मुफ्त उपहार प्रदान करना।
      • अपने उत्पादों को बढ़ावा देने के लिये फार्मा कंपनियाँ डॉक्टरों द्वारा आयोजित सम्मेलनों में कथित तौर पर उनके लिये पाँच सितारा होटलों, स्थानीय दर्शनीय स्थलों आदि में आवास की व्यवस्था करती हैं।
    • यह गंभीर रैकेट है जो दवा (फार्मा) कंपनियों को विपणन की आड़ में अपनी-अपनी दवाओं को आगे बढ़ाने के लिये डॉक्टरों को 'उपहार' प्रदान करतें है।
  • फार्मा कंपनी का पक्ष:
    • दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को ब्रांडेड स्मृति चिह्न जैसे- पेन स्टैंड, कैलेंडर, डायरी या सैनिटाइज़र प्रदान करेंगी।
      • इसके पीछे यह सुनिश्चित करने का विचार है कि उनके ब्रांड्स को सबसे पहले याद किया जाए।
      • भारतीय बाज़ार कीमत नियंत्रित है। इसलिये यहाँ ब्रांड महत्त्व कम है।
    • हालाँकि ये प्रथाएँ यह सुनिश्चित नहीं करती हैं कि डॉक्टर उनकी दवाएँ लिखेंगे। यह सिर्फ एक विपणन/मार्केटिंग रणनीति है।
    • उपहार में दी जा रही लगभग 95% वस्तुओं की कीमत 500 रुपए से कम है।
      • यह रिश्वत को बढ़ावा नहीं देता है बल्कि यह एक समान मूल्य के सैकड़ों अन्य ब्रांड के बीच डॉक्टर को याद दिलाने के लिये किया जाता है।
  • ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क का पक्ष:
    • नैतिक विपणन और प्रचार-प्रसार के लिये तैयार किये जा रहे नए औषधि, चिकित्सा उपकरण और सौंदर्य प्रसाधनों को अधिनियम के दायरे में लाया जाना चाहिये।
    • यह देखा गया है कि अक्सर डॉक्टरों को नैदानिक परीक्षणों में प्रमुख जाँचकर्त्ता बना दिया जाता है, या उन समितियों का हिस्सा बना दिया जाता है जिनके लिये वे मोटी फीस कमाते हैं।

यूनिफॉर्म कोड फॉर फार्मास्यूटिकल मार्केटिंग प्रैक्टिसेज़ (UCPMP)

  • परिचय:
    • यह दवाओं और चिकित्सा उपकरणों के संवर्द्धन तथा विपणन के लिये दवा उद्योग हेतु दिसंबर 2014 में केंद्र सरकार द्वारा प्रकाशित दिशा-निर्देशों का एक समूह है।
    • हालाँकि ये दिशा-निर्देश स्वैच्छिक सहिंता हैं और कंपनियों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं।
  • महत्त्व:
    • यह सहिंता फार्मास्यूटिकल कंपनियों को उनके विपणन व्यवहारों में आचरण को नियंत्रित करती है, जिसमें चिकित्सा प्रतिनिधि, पाठ्य और श्रव्य-दृश्य प्रचार सामग्री, नमूने, उपहार आदि जैसे विभिन्न पहलुओं को विधिवत शामिल किया गया है।
    • कोड स्वास्थ्य पेशेवरों के साथ संबंध स्थापित करता है, जिसमें चिकित्सकों या उनके परिवारों को यात्रा सुविधाओं, आतिथ्य और नकद या मौद्रिक अनुदान से संबंधित विस्तृत प्रावधान किये गए हैं।
  • मुख्य प्रावधान:
    • यूसीपीएमपी के क्लॉज 7.2 के अनुसार, "कंपनियां या उनके संघ/प्रतिनिधि किसी भी बहाने से स्वास्थ्य देखभाल चिकित्सकों और उनके परिवार के सदस्यों को होटल आवास जैसी कोई आतिथ्य प्रदान नहीं करेंगे"।
    • सक्षम प्राधिकारी द्वारा विपणन अनुमोदन प्राप्त करने से पहले किसी दवा को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिये।
      • दवा का प्रचार विपणन अनुमोदन की शर्तों के अनुरूप होना चाहिये।
    • किसी दवा कंपनी द्वारा दवाओं को निर्धारित करने या आपूर्ति करने के लिये योग्य व्यक्तियों को कोई उपहार, आर्थिक लाभ या अन्य लाभ प्रदान नहीं किया जा सकता है।
    • स्वास्थ्य पेशेवरों और परिवार के सदस्यों के व्यक्तिगत लाभ के लिये भी उपहार प्रदान नहीं किये जाने चाहिये।

आगे की राह

  • यदि डॉक्टरों को अनैतिक रूप से दवा ब्रांडों को बढ़ावा देने का दोषी पाया जाता है, तो कंपनियों को उसी प्रकार दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना होगा जैसा कि रिश्वत और इसी तरह की अन्य अनैतिक प्रथाओं के लिये भारतीय दंड संहिता में वर्णित है।
  • सरकार को यह अनिवार्य करना चाहिये कि कंपनियों द्वारा डॉक्टरों और पेशेवर निकायों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अन्य पार्टियों के माध्यम से किये गए भुगतानों का समय-समय पर खुलासा जनता के समक्ष सुलभ हो। प्रकटीकरण में राशि, व्यय का उद्देश्य और भुगतान पाने वाली पार्टी की जानकारी शामिल होनी चाहिये।
  • यूसीपीएमपी को कंपनियों के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी होना चाहिये। वर्तमान संहिताओं के पास कंपनियों को दंडित करने की न तो शक्ति है और न ही प्रोत्साहन।
    • स्वैच्छिक कोड को लागू करने की ज़िम्मेदारी फार्मा संघों की है।

स्रोत: बिज़नेस स्टैंडर्ड