बैक्टीरिया की पहचान हेतु पोर्टेबल सेंसर का विकास | 21 Apr 2020

प्रीलिम्स के लिये:

बग स्निफर, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद

मेन्स के लिये:

नैनो प्रौद्योगिकी, स्वास्थ्य क्षेत्र में तकनीकी का प्रयोग 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पुणे स्थित ‘अगरकर अनुसंधान संस्थान’ (Agharkar Research Institute- ARI) के शोधकर्त्ताओं ने बैक्टीरिया की पहचान करने हेतु एक संवेदनशील और किफायती सेंसर का विकास करने में सफलता प्राप्त की है।

मुख्य बिंदु

  • ARI के शोधकर्त्ताओं द्वारा विकसित इस पोर्टेबल उपकरण के माध्यम से 1 मिमी. के नमूने में मात्र 10 बैक्टीरिया कोशिकाओं के होने पर भी केवल 30 मिनट में इसकी पहचान की जा सकती है।
  • शोधकर्त्ताओं ने इस उपकरण को ‘बग स्निफर’ (Bug Sniffer) नाम दिया है। 
  • वर्तमान में शोधकर्त्ता ‘एस्चेरिचिया कोलाई’ (Escherichia Coli) और ‘सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम’ (Salmonella Typhimurium) बैक्टीरिया को अलग कर उनकी पहचान करने की विधि पर कार्य कर रहें हैं। इसके लिये शोधकर्त्ताओं द्वारा ‘लूप-मीडिएटेड आइसोथर्मल एम्प्लिफिकेशन’  (Loop-mediated isothermal amplification- LAMP) तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है। 
  • इस शोध के लिये ‘भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद’ (Indian Council of Medical Research- ICMR) द्वारा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है।  

‘एस्चेरिचिया कोलाई’

(Escherichia Coli or E. Coli): 

  • एस्चेरिचिया कोलाई खाद्य पदार्थों, मनुष्यों तथा जानवरों की आँत में पाया जाने वाला एक जीवाणु है।
  • यद्यपि ये जीवाणु अधिकांशतः हानिकारक नहीं होते हैं, परंतु इनमें से कुछ ‘डायरिया’ जैसे रोग का कारण बन सकते हैं जबकि कुछ अन्य के संक्रमण से श्वसन संबंधी बीमारी और निमोनिया जैसी बीमारियाँ हो सकती हैं।

‘सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम’

(Salmonella Typhimurium):

  • सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम, सैल्मोनेला समूह का एक रोगजनक जीवाणु है।
  • यह मनुष्य और जानवर दोनों को प्रभावित कर सकता है।
  • पक्षियों के मल से यह एक पक्षी से दूसरे पक्षी तक पहुँच जाता है।
  • इसके संक्रमण से व्यक्ति की आँत में सूजन हो जाती है, जो दस्त, उल्टी, बुखार और पेट में ऐंठन आदि का कारण बनती है।  

कार्य प्रणाली: 

  • इस बायोसेंसर में बैक्टीरिया की पहचान करने के लिये सिंथेटिक पेप्टाइड्स (Synthetic Peptides), चुंबकीय नैनोकणों (Magnetic Nanoparticles) और क्वांटम डॉट्स (Quantum Dots) का प्रयोग किया गया है।
  • शोधकर्त्ताओं ने इस उपकरण के लिये तांबे के तार और पॉली (डाइमेथिलसिलॉक्सेन) से बने माइक्रो चैनल्स (Microchannels) युक्त एक चिप का विकास किया है।
  • परीक्षण के दौरान पहले इस उपकरण के माध्यम से बैक्टीरिया की पहचान करने के लिये पेप्टाइड्स से जुड़े चुंबकीय नैनो कणों को बैक्टीरिया के साथ मैक्रोचैनल्स से होते हुए प्रवाहित होने दिया गया। 
  • इसके पश्चात् इस पर बाहरी मैग्नेटिक फील्ड सक्रिय कर पेप्टाइड्स से जुड़े बैक्टीरिया को अलग और स्थिर कर लिया गया।
  • इसके अंतिम चरण में क्वांटम डॉट्स से जुड़े पेप्टाइड्स को पुनः मैक्रोचैनल्स से गुजारा गया।
  • जीवाणुओं को पकड़ने के बाद ‘क्वांटम डॉट्स से जुड़े पेप्टाइड्स’ (Quantum-Dot-Tagged Peptides) के कारण मैक्रोचैनल्स से तीव्र और स्थिर (लगातार) प्रतिदीप्ति होती है।

लाभ:        

  • रोगजनक जीवाणुओं की पहचान के लिये वर्तमान में उपलब्ध पारंपरिक तकनीकें उतनी संवेदनशील नहीं हैं और वे कोशिकाओं की कम संख्या होने पर इनकी पहचान नहीं कर सकती।
  • इसके अतिरिक्त पारंपरिक तकनीक के प्रयोग में अधिक समय और श्रम लगता है, जबकि ARI शोधकर्त्ताओं द्वारा निर्मित उपकरण के माध्यम से 1 मिमी. के नमूने पर मात्र 10 कोशिकाओं के होने पर भी इनकी पहचान केवल 30 मिनट में की जा सकती है।   
  • शोधकर्त्ताओं के अनुसार, यह उपकरण काफी किफायती है और इसे बनाने के लिये आवश्यक सामग्री आसानी से प्राप्त है।
  • इस उपकरण के उपयोग से सबसे आम रोगजनक जीवाणु ‘एस्चेरिचिया कोलाई’ और ‘सैल्मोनेला टाइफिम्यूरियम’ की आसानी से पहचान की जा सकती है।
  • शोधकर्त्ताओं के अनुसार, नैनोसेंसर और इसे विकसित करने हेतु किये गए शोध से शीघ्र ‘लैब-ऑन-ए-चिप डायग्नोस्टिक्स’ (Lab-On-A-Chip Diagnostics) से जुड़ी नई संभावनाएँ खुलेगीं।  

अगरकर अनुसंधान संस्थान’

(Agharkar Research Institute- ARI)

  • ARI भारत सरकार के ‘विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग’ (Department of Science and Technology- DST) के तहत एक स्वायत्त संस्थान है। 
  • इसकी स्थापना वर्ष 1946 में ‘महाराष्ट्र एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस’ (Maharashtra Association for the Cultivation of Science) के रूप में की गई थी।
  • वर्ष 1992 में इस संस्थान के संस्थापक ‘प्रो. एस. पी. अगरकर’ के सम्मान में इसका नाम बदलकर ‘अगरकर अनुसंधान संस्थान’ कर दिया गया।
  • वर्तमान में इस संस्थान में ‘जैव-विविधता और जीवाश्म विज्ञान’, बायोएनेर्जी (Bioenergy), बायोप्रोस्पेक्टिंग (Bioprospecting), डेवलपमेंटल बायोलाॅजी (Developmental Biology), जेनेटिक्स और प्लांट ब्रीडिंग (Genetics & Plant Breeding) तथा नैनोबायोसिस  (Nanobiosis) जैसे क्षेत्रों में अनुसंधान और विकास का कार्य किया जाता है। 

स्रोत: पीआईबी