प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों पर बहस | 02 Jul 2025
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय संविधान की प्रस्तावना, 42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976, आपातकाल, राष्ट्रीय आपातकाल, (1975-77), 44वाँ संशोधन अधिनियम, 1978, अनुच्छेद 44 (समान नागरिक संहिता), केशवानंद भारती केस (1973), एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994), मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) मेन्स के लिये :संविधान में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों पर बहस। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में" समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों को शामिल किये जाने पर एक नई बहस शुरू हो गई है। आलोचकों का तर्क है कि इन शब्दों को व्यापक परामर्श के बिना शामिल किया गया था और ये भारत के अंतर्निहित धर्मनिरपेक्ष सभ्यतागत लोकाचार के साथ सुमेलित नहीं हैं।
- इस चर्चा से उनकी संवैधानिक वैधता और समकालीन प्रासंगिकता पर प्रश्न पुनः उठ खड़े हुए हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना क्या है?
- परिचय: प्रस्तावना भारत के संविधान का परिचयात्मक वक्तव्य है, जो उन मूल मूल्यों, मार्गदर्शक सिद्धांतों और उद्देश्यों को रेखांकित करता है, जिन पर संविधान आधारित है।
- यह लोगों की आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है और संविधान की भावना को समझने की कुंजी के रूप में कार्य करता है।
- भारतीय संविधान में अंतर्निहित दर्शन को उद्देश्य प्रस्ताव में संक्षेपित किया गया था, जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
- 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों का समावेश: मूलतः जब 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू हुआ तो प्रस्तावना में भारत को एक प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया, जो निम्नलिखित को सुनिश्चित करने के लिये प्रतिबद्ध था:
- न्याय (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक),
- स्वतंत्रता (विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की),
- समानता (स्थिति और अवसर की), और
- बंधुत्व (व्यक्तिगत गरिमा और राष्ट्रीय एकता का आश्वासन)।
- राष्ट्रीय आपातकाल, (1975-77) के दौरान अधिनियमित 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 ने प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़े।
- समाजवादी शब्द मिश्रित अर्थव्यवस्था मॉडल के माध्यम से असमानता को कम करने और वितरणात्मक न्याय सुनिश्चित करने के लिये राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
- धर्मनिरपेक्षता ने सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान के सिद्धांत की पुष्टि की तथा यह सुनिश्चित किया कि राज्य किसी भी धर्म का समर्थन किये बिना धार्मिक मामलों में तटस्थता बनाए रखे।
- “राष्ट्र की एकता और अखंडता” अभिव्यक्ति में “एकता” के साथ “अखंडता” शब्द भी जोड़ा गया।
- यद्यपि आपातकाल के दौरान किये गए अनेक परिवर्तनों को बाद में 44 वें संशोधन (1978) के माध्यम से उलट दिया गया, तथापि प्रस्तावना में किये गए संशोधन यथावत बने रहे।
भारतीय संदर्भ में 'धर्मनिरपेक्षता' का क्या अर्थ है?
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता एक अनूठा और समावेशी मॉडल है, जो सभी धर्मों के लिये समान सम्मान और व्यवहार सुनिश्चित करता है। यह अंतर-धार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व को रोकने का प्रयास करता है, जबकि यह सुनिश्चित करता है कि राज्य सभी धर्मों से सैद्धांतिक दूरी बनाए रखे। धर्म-विरोधी होने के बजाय यह बहुलवाद, सहिष्णुता और संवैधानिक नैतिकता को कायम रखता है।
- भारतीय धर्मनिरपेक्षता की त्रिस्तरीय रणनीति (3-Fold Strategy):
- सिद्धांत आधारित दूरी (Principled Distance): भारतीय राज्य धार्मिक निरपेक्षता बनाए रखता है और किसी भी धर्म का पक्ष या प्रचार नहीं करता।
- सरकारी विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा या उत्सव की अनुमति नहीं।
- न्यायालयों या सार्वजनिक कार्यालयों में धार्मिक प्रतीकों का उपयोग निषिद्ध।
- सार्वजनिक जीवन में सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार सुनिश्चित किया जाता है।
- राज्य सभी धार्मिक विश्वासों से समान दूरी बनाए रखता है।
- अहस्तक्षेप (Non-Interference): राज्य धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है और जब तक कोई धार्मिक प्रथा मौलिक अधिकारों या संविधान का उल्लंघन नहीं करता तब तक उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करता।
- उदाहरण: धार्मिक समुदायों को अपने पूजा स्थलों और त्योहारों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता।
- चयनात्मक हस्तक्षेप (Selective Intervention): राज्य उन धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करता है, जो संवैधानिक मूल्यों जैसे समानता, सम्मान और न्याय के विरुद्ध होती हैं।
- उदाहरण: अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17), व्यक्तिगत कानूनों में सुधार (जैसे: लैंगिक समानता सुनिश्चित करना), महिलाओं को समान उत्तराधिकार अधिकार देने वाले कानून आदि।
- सिद्धांत आधारित दूरी (Principled Distance): भारतीय राज्य धार्मिक निरपेक्षता बनाए रखता है और किसी भी धर्म का पक्ष या प्रचार नहीं करता।
- 42 वें संशोधन, 1976 से पहले धर्मनिरपेक्षता: वर्ष 1976 में हुए 42वें संशोधन से पहले संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द स्पष्ट रूप से नहीं था, लेकिन धर्मनिरपेक्षता की भावना संविधान में गहराई से निहित थी।
- प्रमुख प्रावधानों में अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 15 और 16 (धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध), अनुच्छेद 25-28 (धार्मिक स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 44 समान नागरिक संहिता (एक निर्देशात्मक सिद्धांत) शामिल थे, जो सामूहिक रूप से भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को सुदृढ़ करते हैं।
- भारतीय बनाम पश्चिमी (अमेरिकी) धर्मनिरपेक्षता (Indian vs. Western (US) Secularism):
भारतीय धर्मनिरपेक्षता और पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच मुख्य अंतर
पहलू (Aspect) |
पश्चिमी मॉडल |
भारतीय मॉडल |
राज्य और धर्म के बीच संबंध |
कड़ा पृथक्करण – धर्म और राज्य परस्पर अनन्य क्षेत्रों में कार्य करते हैं। |
सैद्धांतिक दूरी – राज्य और धर्म के बीच लचीला संबंध। |
धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप |
जब तक धर्म कानूनी सीमाओं में रहता है, राज्य हस्तक्षेप नहीं करता। |
राज्य पुनरुद्धार के लिये हस्तक्षेप कर सकता है। यदि धार्मिक प्रथाएँ प्रतिगामी या भेदभावपूर्ण हों (जैसे, अस्पृश्यता का उन्मूलन, सती प्रथा पर प्रतिबंध, बाल विवाह पर रोक)। |
धार्मिक संस्थाओं को वित्तीय सहायता / शिक्षा |
राज्य द्वारा धार्मिक संस्थाओं को कोई आर्थिक सहायता नहीं दी जाती। |
राज्य अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित संस्थानों को अनुच्छेद 29 और 30 के तहत सहायता प्रदान कर सकता है। |
धार्मिकता का सार्वजनिक प्रदर्शन |
धर्म पूरी तरह निजी है; सार्वजनिक नीति या संस्थानों में कोई स्थान नहीं। |
धर्म को सार्वजनिक जीवन में स्थान प्राप्त है, संवैधानिक निगरानी के साथ (जैसे, धार्मिक अवकाश, वक्फ/धरोहर बोर्ड)। |
धर्मनिरपेक्षता का उद्देश्य |
तटस्थता और हस्तक्षेप न करना सुनिश्चित करना। |
समान सम्मान और सुधार सुनिश्चित करना, एकरूपता थोपे बिना। |
संविधान में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को स्पष्ट रूप से शामिल करने में प्रमुख दुविधाएँ क्या थीं?
- संवैधानिक भूमिका बनाम वैचारिक उद्घोषणा: डॉ. भीमराव अंबेडकर का मानना था कि संविधान को शासन के ढाँचे के रूप में कार्य करना चाहिये, न कि स्थिर वैचारिक प्रतिबद्धताओं को थोपना चाहिये।
- उन्होंने तर्क दिया कि सामाजिक और राजनीतिक आदर्शों को समय के साथ जनता की इच्छाओं के माध्यम से विकसित होना चाहिये, न कि संविधान द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिये।
- प्रतीकात्मकता का खतरा: पंडित जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द जोड़ना एक प्रतीकात्मक संकेत होगा, जिसका वास्तविक प्रभाव नहीं होगा।
- उन्होंने कहा कि धर्मनिरपेक्षता को केवल शब्दों में घोषित नहीं किया जाना चाहिये, बल्कि इसका पालन किया जाना चाहिये और इसका संरक्षण किया जाना चाहिये।
- गलत व्याख्या का भय: कई सदस्य, जैसे लोकनाथ मिश्र और एच.वी. कामथ आशंकित थे कि यदि 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को स्पष्ट रूप से जोड़ा गया तो यह धर्म-विरोधी या नास्तिकता के रूप में गलत समझा जा सकता है, जिससे गहन आध्यात्मिक तथा विविध समाज में धार्मिक समुदायों की विच्छिन्नता हो सकती है।
- विधायी लचीलेपन की आवश्यकता: कुछ लोगों का मानना था कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को संविधान में शामिल करने से राज्य की भावी विधायी स्वतंत्रता सीमित हो सकती है, विशेष रूप से जब सामाजिक न्याय के लिये धार्मिक प्रथाओं में सुधार आवश्यक हो (जैसे – अस्पृश्यता का उन्मूलन या व्यक्तिगत कानूनों में सुधार)।
भारतीय संविधान में ‘समाजवादी’ या ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को शामिल करने के पक्ष और विपक्ष में तर्क क्या हैं?
समावेशन के समर्थन में तर्क
- संविधान मूल रूप से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी है: 42वें संशोधन, 1976 से पहले भी, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद संविधान के विभिन्न प्रावधानों में अंतर्निहित थे।
- अनुच्छेद 14, 15, 16 और 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं और धर्म के आधार पर भेदभाव को निषिद्ध करते हैं।
- नीति निदेशक सिद्धांत (भाग IV) में समाजवादी लक्ष्य प्रतिबिंबित होते हैं, जैसे कि संपत्ति का न्यायसंगत वितरण, सामाजिक न्याय और राज्य द्वारा जनकल्याण सुनिश्चित करना।
- ऐतिहासिक और राजनीतिक संदर्भ: प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ शब्दों को शामिल करना भारत की धार्मिक तटस्थता तथा उस समय की राजनीतिक इच्छा की पुष्टि करता है। 42वें संविधान संशोधन, 1976 के माध्यम से इन मूल्यों को संविधान में दर्ज किया गया, जिन्हें बाद में 44वें संशोधन, 1978 द्वारा भी बरकरार रखा गया।
- न्यायिक समर्थन:
- केशवानंद भारती मामला (1973) में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा घोषित किया, जिसे संसद द्वारा भी हटाया या संशोधित नहीं किया जा सकता।
- एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पंथनिरपेक्षता को भारतीय लोकतंत्र की एक मूल विशेषता के रूप में पुनः पुष्टि की।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राज्य की नीति के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) में निहित समाजवादी उद्देश्य संविधान के लिये मौलिक हैं और कुछ मामलों में अनुच्छेद 39 (b) और 39 (c) समाजवाद और आर्थिक न्याय की रक्षा के लिये अनुच्छेद 14 और 19 पर वरीयता प्राप्त कर सकते हैं।
- डॉ. बलराम सिंह बनाम भारत संघ (2024) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्दों की प्रविष्टि को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया तथा इन शब्दों की वैधता और संविधान के अनुरूप होने की पुष्टि की।
समावेशन के विरुद्ध तर्क
- मूल इरादे के विरुद्ध: आलोचकों का तर्क है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर और संविधान निर्माताओं का मानना था कि "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" जैसे मूल्य पहले से ही संविधान के प्रावधानों में अंतर्निहित हैं, इसलिये इनका स्पष्ट रूप से समावेशन अनावश्यक था।
- उन्होंने यह तर्क दिया कि आपातकाल (1976) के दौरान इन शब्दों को शामिल किया जाना संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ और लोकतंत्र के दमन के बीच संविधानिक मूल्यों के "विश्वासघात" के समान था।
- पश्चिमी विचारधाराओं की प्रभावी उपस्थिति: विशेषज्ञों और आलोचकों का तर्क है कि समाजवाद और पंथनिरपेक्षता पश्चिमी अवधारणाएँ हैं, जो भारतीय सभ्यता की मूल भावना से मेल नहीं खातीं। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारतीय आध्यात्मिक परंपराएँ धर्म के साथ "सकारात्मक संरेखण" को बढ़ावा देती हैं, जो पश्चिमी पंथनिरपेक्षता में देखे गए सख्त चर्च-राज्य पृथक्करण के विपरीत है।
- प्रक्रियात्मक चिंताएँ: संविधान के प्रारूपण की प्रक्रिया के अंत में अपनाई गई और 26 नवंबर, 1949 को औपचारिक रूप से अधिनियमित की गई प्रस्तावना, संविधान की मूल भावना और मूलभूत दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है।
- आलोचकों का तर्क है कि प्रस्तावना में पूर्वव्यापी संशोधन करना उसकी पवित्रता को समाप्त करता है।
निष्कर्ष
प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल किया जाना एक संवैधानिक बहस का विषय बना हुआ है, जो मूल उद्देश्य और विकसित होते लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच के गतिशील तनाव को दर्शाता है। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें मूल संरचना सिद्धांत का हिस्सा माना है, फिर भी प्रक्रियात्मक वैधता, वैचारिक अधिरोपण और सभ्यतागत दृष्टिकोण को लेकर चिंताएँ बनी हुई हैं। भारतीय संविधान की भावना को बनाए रखने के लिये संवैधानिक नैतिकता, बहुलवाद और पंथनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक आदर्शों को बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: Q. भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को पंथनिरपेक्षता के सिद्धांतों के साथ संतुलित करने में शामिल संवैधानिक और दार्शनिक चुनौतियों की समीक्षा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा के विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021) (a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य उत्तर: (b) प्रश्न. निम्नलिखित में कौन-सी लोक सभा की अनन्य शक्ति(याँ) है/हैं? (2022)
नीचे दिये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) 1 और 2 उत्तर: (b) प्रश्न. यदि भारत का राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 356 के अधीन यथा उपबंधित अपनी शक्तियों का किसी विशेष राज्य के संबंध में प्रयोग करता है, तो (2018) (a) उस राज्य की विधान सभा स्वतः भंग हो जाती है। उत्तर: (b) |