हिरासत में मौत | 15 Feb 2023

प्रिलिम्स के लिये:

मौलिक अधिकार, भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता

मेन्स के लिये:

हिरासत में होने वाली मौतों का कारण, पुलिसिंग में सुधार, तकनीक और पूछताछ, हिरासत में होने वाली मौतों को निम्नीकृत करने हेतु उपाय

चर्चा में क्यों? 

गृह मंत्रालय (Ministry of Home Affairs- MHA) के अनुसार, पिछले पाँच वर्षों में हिरासत में सबसे अधिक (80) मौतें गुजरात में हुई हैं।

Custodial-Deaths

हिरासत में मौत:

  • परिचय:  
    • हिरासत में होने वाली मौतें या ‘कस्टडियल डेथ’ (Custodial Deaths) से तात्पर्य है पुलिस हिरासत में अथवा मुकदमे की सुनवाई के दौरान न्यायिक हिरासत में अथवा कारावास की सज़ा के दौरान व्यक्तियों की मृत्यु। इसके कई कारण हो सकते हैं, जिसमें बल का अत्यधिक प्रयोग, लापरवाही अथवा अधिकारियों द्वारा दुर्व्यवहार शामिल है।
    • भारत के विधि आयोग के अनुसार, गिरफ्तार किये गए अथवा हिरासत में लिये गए व्यक्ति के खिलाफ लोक सेवक द्वारा किया गया अपराध हिरासत में हिंसा (Custodial Violence) के समान  है।
  • भारत में हिरासत में मौत के मामले:  
    • वर्ष 2017-2018 के दौरान पुलिस हिरासत में मौत के कुल 146 मामले सामने आए। 
      • वर्ष 2018-2019 में 136 
      • वर्ष 2019-2020 में 112 
      • वर्ष 2020-2021 में 100 
      • वर्ष 2021-2022 में 175 
    • पिछले पाँच वर्षों में हिरासत में सबसे अधिक मौतें गुजरात (80) में दर्ज की गई हैं, इसके बाद महाराष्ट्र (76), उत्तर प्रदेश (41), तमिलनाडु (40) और बिहार (38) का स्थान है।
    • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (National Human Rights Commission- NHRC) ने 201 मामलों में मौद्रिक राहत और एक मामले में अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की है।

हिरासत में होने वाली मौतों के संभावित कारण:

  • मज़बूत कानून का अभाव: 
    • भारत में अत्याचार विरोधी कानून नहीं है और अभी तक हिरासत में हिंसा का अपराधीकरण नहीं किया गया है, साथ ही दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर भ्रम की स्थिति है। 
  • संस्थागत चुनौतियाँ: 
    • संपूर्ण कारावास प्रणाली स्वाभाविक रूप से अपारदर्शी बनी हुई है।
    • भारत बहुप्रतीक्षित कारावास सुधार सुनिश्चित करने में भी विफल रहा है और यह खराब परिस्थितियों, भीड़भाड़, जनशक्ति की भारी कमी तथा कारावास में नुकसान के खिलाफ न्यूनतम सुरक्षा से प्रभावित होती रही हैं।
  • अत्यधिक बल का प्रयोग: 
    • हाशिये पर जी रहे समुदायों को लक्षित करने तथा आंदोलनों में भाग लेने वाले अथवा विचारधाराओं का प्रचार करने वाले लोगों को राज्य अपनी शासन व्यवस्था के विपरीत मानता है, उन्हें नियंत्रित करने के लिये अत्यधिक बल प्रयोग के साथ-साथ अत्याचार करता है।
  • लंबी न्यायिक प्रक्रिया: 
    • न्यायालयों द्वारा अपनाई जाने वाली लंबी, खर्चीली औपचारिक प्रक्रियाएँ गरीबों और कमज़ोर लोगों को हतोत्साहित करती हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुपालन का अभाव: 
    • हालाँकि भारत ने वर्ष 1997 में उत्पीड़न के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र अभिसमय पर हस्ताक्षर किये हैं, परंतु इसका अनुसमर्थन किया जाना अभी भी बाकी है।
    • जबकि हस्ताक्षर करना केवल संधि में निर्धारित दायित्त्वों को पूरा करने के लिये देश के प्रयोजन को इंगित करता है, दूसरी ओर, यह अनुसमर्थन, प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये कानूनों और तंत्रों के प्रभाव में लाए जाने पर ज़ोर देता है।
  • अन्य कारक: 
    • चिकित्सा उपेक्षा अथवा चिकित्सीय देख-रेख का अभाव और यहाँ तक कि आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि।
    • कानून प्रवर्तन अधिकारियों का खराब प्रशिक्षण अथवा जवाबदेही की कमी।
    • सुधारक केंद्रों की अपर्याप्तता अथवा दयनीय स्थिति।
    • कैदी की स्वास्थ्य अथवा मौजूदा चिकित्सीय स्थिति जिनका हिरासत में रहते हुए पर्याप्त रूप से समाधान या इलाज नहीं किया गया। 

हिरासत के संबंध में उपलब्ध प्रावधान: 

  • संवैधानिक प्रावधान: 
    • अनुच्छेद 21:
      • अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन अथवा व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा"।
      • अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत एक मौलिक अधिकार है। 
    • अनुच्छेद 22:
      • अनुच्छेद 22 "कुछ मामलों में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण" प्रदान करता है।
      • भारत के संविधान के अनुच्छेद 22(1) के तहत परामर्श का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है।
  • राज्य सरकार की भूमिका:
    • भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के अनुसार, पुलिस और सार्वजनिक व्यवस्था राज्य सूची के विषय हैं।
    • मानवाधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करना प्राथमिक रूप से संबंधित राज्य सरकार का उत्तरदायित्त्व है।  
  • केंद्र सरकार की भूमिका:
    • केंद्र सरकार समय-समय पर सलाह जारी करती है और उसने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम (PHR),1993 को भी अधिनियमित किया है। 
    • इसमें लोक सेवकों द्वारा कथित मानवाधिकार उल्लंघनों की जाँच के लिये NHRC और राज्य मानवाधिकार आयोगों की स्थापना का प्रावधान है।
  • कानूनी प्रावधान: 
    • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC):
      • आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 41 को वर्ष 2009 में संशोधित किया गया था ताकि सुरक्षा उपायों को इसमें शामिल किया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि गिरफ्तारी एवं पूछताछ के लिये हिरासत में लेने हेतु उचित आधार एवं दस्तावेज़ी प्रक्रियाएँ हों, कानूनी प्रतिनिधित्त्व के माध्यम से सुरक्षा उपलब्ध हो ताकि गिरफ्तारी परिवार, मित्र और जनता के लिये पारदर्शी हो सके।
    • भारतीय दंड संहिता:
      • भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 330 और 331 में ज़बरन कबूलनामे हेतु क्षति पहुँचाने को लेकर सज़ा का प्रावधान है।  
      • कैदियों के खिलाफ हिरासत में यातना के अपराध को IPC की धारा 302, 304, 304A और 306 के तहत लाया जा सकता है। 
    • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के तहत संरक्षण:
      • अधिनियम की धारा 25 में प्रावधान है कि पुलिस के सामने किये गए कबूलनामे को न्यायालय में स्वीकार नहीं किया जा सकता है।  
      • अधिनियम की धारा 26 में प्रावधान है कि व्यक्ति द्वारा पुलिस के समक्ष किया गया कबूलनामा व्यक्ति के खिलाफ साबित नहीं किया जा सकता है जब तक कि यह मजिस्ट्रेट के समक्ष नहीं किया जाता है। 
    • भारतीय पुलिस अधिनियम, 1861:
      • पुलिस अधिनियम, 1861 की धारा 7 और 29 उन पुलिस अधिकारियों की बर्खास्तगी, दंड या निलंबन का प्रावधान करती है जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन में लापरवाही करते हैं या ऐसा करने में अयोग्य हैं।

आगे की राह 

  • अत्याचार तथा क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक उपचार या दंड की रोकथाम सहित मानवाधिकार कानूनों एवं विनियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना।
  • बल के उचित प्रयोग तथा संदिग्धों को नियंत्रित करने के गैर-खतरनाक तरीकों पर कानून प्रवर्तन अधिकारियों के लिये व्यापक और प्रभावी प्रशिक्षण कार्यक्रम का संचालन।
  • मौत के कारणों का पता लगाने तथा ज़िम्मेदार पक्षों को जवाबदेह ठहराने के लिये हिरासत में हुई सभी मौतों की स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच करना।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. मौत की सज़ा को कम करने में राष्ट्रपति द्वारा देरी का उदाहरण सार्वजनिक बहस के तहत न्याय से इनकार के रूप में सामने आए हैं। क्या ऐसी याचिकाओं को स्वीकार/अस्वीकार करने के लिये राष्ट्रपति के लिये कोई समय निर्दिष्ट होना चाहिये?  विश्लेषण कीजिये।  (मुख्य परीक्षा- 2014)

प्रश्न. भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) सबसे प्रभावी हो सकता है जब इसके कार्यों को सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने वाले अन्य तंत्रों द्वारा पर्याप्त रूप से समर्थित किया जाता है। उपर्युक्त अवलोकन के आलोक में मानवाधिकार मानकों को बढ़ावा देने और उनकी रक्षा करने में न्यायपालिका एवं अन्य संस्थानों के प्रभावी पूरक के रूप में NHRC की भूमिका का आकलन कीजिये।  (मुख्य परीक्षा- 2014)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस