पारिस्थितिक गरीबी की अवधारणा | 19 Oct 2020

प्रिलिम्स के लिये:

पारिस्थितिक गरीबी की अवधारणा, गरीबी उन्मूलन के लिये अंतर्राष्ट्रीय दिवस

मेन्स के लिये:

पारिस्थितिक गरीबी की अवधारणा

चर्चा में क्यों?

17 अक्तूबर, 2020 को 'गरीबी उन्मूलन के लिये अंतर्राष्ट्रीय दिवस' की 27वीं वर्षगाँठ मनाई गई। 

प्रमुख बिंदु:

  • संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के माध्यम से वर्ष 1992 में इसकी शुरुआत की गई थी।
  • वर्ष 2020 में इस दिवस का विषय था- "सभी के लिये सामाजिक और पर्यावरणीय न्याय प्राप्ति को एक साथ कार्य मिलकर कार्य करना।"

गरीबी की वर्तमान स्थिति:

  • विगत 25 वर्षों में विश्व में पहली बार COVID-19 महामारी के कारण गरीबी में वृद्धि दर्ज की गई है।
  • गरीबी में होने वाली वृद्धि ने देशों को वर्तमान ‘आय आधारित गरीबी मापन’ की पद्धति के स्थान पर अन्य प्रणाली को अपनाने पर विचार करने को मजबूर किया है।
  • COVID-19 महामारी के कारण दुनिया में 115 मिलियन से अधिक लोग 'गरीब की श्रेणी' में शामिल हो गए हैं तथा इनका प्रसार सार्वभौमिक है। अर्थात् इसमें विकसित-विकासशील, नगरीय-ग्रामीण, यूरोप-एशिया सभी क्षेत्रों के लोग शामिल हैं।
  • विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2019 में प्रत्येक 10 लोगों में से एक ‘अत्यधिक गरीब’  (Extreme poor) श्रेणी में शामिल था।
    • विश्व वैंक के अनुसार, 1.90 अमेरिकी डॉलर प्रतिदिन से कम आय स्तर को 'अत्यधिक गरीबी रेखा' के रूप में जाना जाता था।

पारिस्थितिकीय गरीबी (Ecological Poverty):

  • 'पारिस्थितिक अवनयन' (Ecological Degradation) के कारण लोगों का आय स्तर भी प्रभावित होता है। इस प्रकार 'पारिस्थितिक अवनयन' जनित 'आय गरीबी' (Income Poverty) को ‘पारिस्थितिक गरीबी’ कहा जाता है।
  • विभिन्न अनुमानों के अनुसार, विश्व स्तर पर संपत्ति में 'प्राकृतिक पूंजी' (Natural Capital) का 9 प्रतिशत योगदान है, लेकिन कम आय वाले देशों में यह 47 प्रतिशत है। यह विकासशील और गरीब देशों में प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों की निर्भरता को दर्शाता है। इस प्रकार 'पारिस्थितिक अवनयन' से कम आय वाले देशों में गरीबी का स्तर सर्वाधिक बढ़ता है। 
  • 'खाद्य और कृषि संगठन' (FAO) के अनुसार, एक अरब से अधिक लोग वनों पर आश्रित हैं और उनमें से अधिकांश गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं।
  • भारत में 'वन क्षेत्र' और 'गरीबी क्षेत्र' के मैप में समानता देखने को मिलती है। भारत में सबसे अधिक गरीबी छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे सर्वाधिक वनाच्छादित क्षेत्रों में देखने को मिलती है।
  • विश्व बैंक की 'गरीबी और साझा समृद्धि'  रिपोर्ट 2018 के अनुसार, गरीबी में कमी की दर धीमी हो गई है। रिपोर्ट के अनुसार, विगत दो दशकों में दुनिया में गरीबों के वितरण में नाटकीय बदलाव आया है। यह परिवर्तन, आर्थिक भलाई (Economic Well-being) के लिये पारिस्थितिकी के महत्त्व को उजागर करता है।
    • वर्ष 1990 में वैश्विक गरीबों के आधे से अधिक पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र से थे। दुनिया के 27 सबसे गरीब देशों में से 26 उप-सहारा अफ्रीका क्षेत्र से थे। वर्ष 2002 में दुनिया के गरीबों का सिर्फ एक-चौथाई इस क्षेत्र से था लेकिन वर्ष 2015 तक 50 प्रतिशत से अधिक गरीब इस क्षेत्र से थे।

गरीबी का बदलता परिदृश्य: 

  • वर्तमान गरीबी के वितरण को देखकर दो मुख्य निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
    • प्रथम, अधिकांश गरीब जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है।
    • दूसरा, इन क्षेत्रों की पारिस्थितिकी का बहुत अधिक अवनयन हो चुका है।
  • इन क्षेत्रों में अधिकांश गरीब जनसंख्या अपनी आजीविका के लिये भूमि, जंगल और पशुधन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है। उनकी संपूर्ण अर्थव्यवस्था (Economy) पारिस्थितिकी (Ecology) पर आधारित होती है। इस प्रकार इन क्षेत्रों में पारिस्थितिकी में ह्रास, गरीबी का कारण बनता है।

पारिस्थितिकी और अधिकारिता का मुद्दा:

  • प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर जनसंख्या के संबंध में एक असहज प्रश्न यह है कि वे कौन-से कारण हैं जिनके कारण प्रकृति पर निर्भर लोग गरीब बने रहते हैं?
  • 'जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं पर अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति प्लेटफॉर्म' (IPBES) की 'वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्ट' के अनुसार, प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होने वाली सेवाओं में वृद्धि हुई है, जबकि विनियमन और रखरखाव सेवाओं के प्रावधान में गिरावट आई है।
  • वर्तमान प्रकृति संरक्षण के प्रयास  निरंतरता यथा- 'आइची जैव विविधता लक्ष्य', ‘सतत् विकास लक्ष्य’- 2030 आदि पर्यावरण अवनयन को रोकने के लिये अपर्याप्त हैं।
  • 'संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम' (UNEP) के एक अध्ययन के अनुसार, विश्व स्तर पर उत्पादित पूंजी में प्रति हेड दोगुनी और मानव पूंजी में प्रति हेड लगभग 13% की वृद्धि हुई है, लेकिन प्रति हेड प्राकृतिक पूंजी स्टॉक के मूल्य में लगभग 40% की गिरावट आई है (अवधि वर्ष 1992-2014)।
    • अर्थात् जो लोग पर्यावरण पर निर्भर हैं, उनकी संपत्ति में गिरावट देखी गई है, जिससे गरीबी को बढ़ावा मिलता है।

आगे की राह:

  • गरीबी उन्मूलन सहित समग्र विश्व के विकास के लिये पारिस्थितिकी का महत्त्व इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 169 सतत् विकास लक्ष्यों में से 86 प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरणीय क्षति को कम करने या प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिक सेवाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर देने के लिये लक्षित हैं।
  • सभी रूपों में 'गरीबी उन्मूलन' के लक्ष्य को 10 वर्षों अर्थात वर्ष  2030 तक प्राप्त करना है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही 'सामाजिक और पर्यावरणीय' न्याय को हमारी गरीबी उन्मूलन योजनाओं के प्रमुख हिस्से के रूप में अपनाना चाहिये।
  • हमें गरीबी के पारिस्थितिक आयाम पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रकृति पर निर्भर लोगों के लिये प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच और अधिकारिता उपायों को गरीबी उन्मूलन रणनीतियों के केंद्र में रखना चाहिये।

स्रोत: डाउन टू अर्थ