उत्तर-पूर्व भारत के वर्षा पैटर्न में परिवर्तन | 13 Sep 2021

प्रिलिम्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन, मानसूनी वर्षा, बाढ़, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना

मेन्स के लिये:

वर्षा पैटर्न को प्रभावित करने वाले कारक एवं प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में एक विश्लेषण ने जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर-पूर्व (NE) भारत में वर्षा पैटर्न के बदलते स्वरूप को प्रदर्शित किया है।

  • जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना (NAPCC) को वर्ष 2008 में प्रधानमंत्री-जलवायु परिवर्तन परिषद नामक समिति द्वारा शुरू किया गया था। यह उन उपायों की पहचान करता है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने के साथ-साथ भारत के विकास उद्देश्यों को बढ़ावा देते हैं।



प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • उत्तर-पूर्व (NE) सामान्य रूप से मानसून के महीनों (जून-सितंबर) के दौरान भारी वर्षा प्राप्त करता है, लेकिन हाल के वर्षों में इसका वर्षा का पैटर्न परिवर्तित हो गया है।
    • तीव्र बारिश के साथ बादल फटने जैसी घटनाओं के कारण इस क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है, जिसके बाद सूखे की स्थिति लंबे समय तक शुष्क/कमज़ोर पड़ जाती है।
      • 2018 में प्रकाशित एक शोध-पत्र में पाया गया कि वर्ष 1979 और 2014 के बीच उत्तर-पूर्व (NE) में मानसूनी वर्षा में 355 मिमी की कमी आई है।
      • इसमें से 30-50 मिमी की कमी स्थानीय नमी के स्तर में गिरावट के कारण हुई।
    • अपनी अनोखी टोपोलॉजी (Topology) और खड़ी ढलानों के कारण त्वरित मैदानी इलाकों में जल के प्रवेश के कारण इस क्षेत्र में नदी के प्रवाह पैटर्न में बदलाव की संभावना है।
      • उत्तर-पूर्व (NE) का क्षेत्र ज़्यादातर पहाड़ी है और इसमें भारत-गंगा के मैदानों का विस्तार है, यह क्षेत्र क्षेत्रीय एवं वैश्विक जलवायु में परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है।
      • पूर्वोत्तर भारत में मानसून-पूर्व (Pre-monsoon) और मानसून के समय को वर्षा ऋतु की संज्ञा दी जाती हैं।
    • अधिकांश उत्तर-पूर्वी राज्यों में मानसून के दौरान होने वाली वर्षा दो दशकों में लंबी अवधि के औसत (LPA) से कम हो गई है।
    • ब्रह्मपुत्र की उत्तरी दिशा के अधिकांश ज़िलों में वर्षा के दिनों की संख्या में कमी आई है।
    • इसका आशय है कि अब कम दिनों में ही भारी बारिश देखने को मिलती है अर्थात् 'भारी वर्षा दिवस' बढ़ रहे हैं जिससे नदी में बाढ़ आने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
  • वर्षा पैटर्न को बदलने वाले कारक:
    • नमी/आर्द्रता और सूखा दोनों एक साथ:
      • वार्मिंग (Warming) का एक पहलू जो वर्षा को प्रभावित करता है, वह है भूमि का सूखना, जिससे शुष्क अवधि और सूखे की आवृत्ति एवं तीव्रता बढ़ जाती है।
      • आर्द्रता की मात्रा में वृद्धि और सूखे की स्थिति का एक साथ होना वर्षा के पैटर्न को अप्रत्याशित तरीके से बदल देता है।
    • यूरेशियाई क्षेत्र में हिमपात में वृद्धि:
      • यूरेशियाई क्षेत्र में बढ़ी हुई बर्फबारी भी पूर्वोत्तर भारत में मानसूनी वर्षा को प्रभावित करती है क्योंकि यूरेशिया में अत्यधिक हिमपात के कारण इस क्षेत्र का वातावरण ठंडा हो जाता है, जो उत्तर-पूर्व भारत के वर्षा पैटर्न में परिवर्तन को और अधिक प्रभावित करता है जो अंततः इस क्षेत्र में कमज़ोर ग्रीष्मकालीन मानसून का कारण बनता है।
    • प्रशांत दशकीय दोलन (PDO) में परिवर्तन:
      • उपोष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर पर समुद्र की सतह का तापमान, जो एक चक्र में भिन्न होता है और जिसका प्रत्येक चरण एक दशक तक रहता है। इसका पीक हर 20 वर्ष में आता है जिसे प्रशांत दशकीय दोलन (POD) के रूप में जाना जाता है।
      • इसका प्रभाव पूर्वोत्तर में मानसूनी बारिश पर पड़ सकता है।
      • PDO भी ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित हो रहा है क्योंकि यह समुद्र की परतों के मध्य तापमान के अंतर को कम करता है।
    • सौर कलंक अवधि:
      • मानसून के दौरान उत्तर-पूर्व में वर्षा पैटर्न एक सौर कलंक अवधि से दूसरे सौर कलंक अवधि में काफी भिन्न होता है, जो देश में कम दबाव के मौसमी गर्त की अंतर गहनता को प्रदर्शित करता है।
        • सौर कलंक अवधि सूर्य की सतह पर बढ़ती और घटती गतिविधि की क्रमोत्तर अवधि है जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करती है।
  • प्रभाव:
    • बदलते वर्षा पैटर्न (विशेष रूप से मानसून के मौसम के दौरान) नदियों के प्रवाह, हिमावरण की सीमा और पर्वतीय झरनों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, जो बदले में आजीविका, विशेष रूप से कृषि और मछली पकड़ने, वन वनस्पति विकास, पशु और पक्षी आवास तथा अन्य पारिस्थितिक तंत्र संबंधी पहलुओं पर प्रभाव डालते हैं।
      • सुबनसिरी, दिबांग (ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियाँ) और ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के अप्रत्याशित तरीके से पैटर्न बदलने के कुछ प्रमाण हैं।
    • ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाली अत्यधिक वर्षा की घटनाएँ वनरहित पहाड़ी ढलानों के साथ त्वरित मृदा क्षरण जैसी घटनाओं में वृद्धि करती हैं। इससे नदियों का सतही बहाव बढ़ जाता है और उनका मार्ग बदल जाता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ