लोक सेवाओं के समक्ष चुनौतियाँ | 09 May 2025
प्रिलिम्स के लिये:लोक सेवा दिवस , ईस्ट इंडिया कंपनी , भारत सरकार अधिनियम, 1919 , संघ लोक सेवा आयोग , संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग , लेटरल एंट्री योजना मेन्स के लिये:भारतीय लोक सेवाओं का विकास और संरचना, नौकरशाही में तटस्थता व दक्षता के लिये चुनौतियाँ, सिविल सेवाओं में लेटरल एंट्री और डोमेन विशेषज्ञता |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
लोकतंत्र में लोक सेवाओं/सिविल सेवाओं (civil services) की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है, जो पारदर्शिता, पार्श्व प्रवेश और तटस्थता बनाए रखने की आवश्यकता को विशेष रूप से उजागर करती है—विशेषकर तब, जब राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रशासनिक अक्षमताओं को लेकर चिंताएँ निरंतर बढ़ रही हों।
भारत की लोक सेवा प्रणाली का विकास कैसे हुआ?
- औपनिवेशिक शुरुआत: शुरू में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिये लोक सेवकों को कंपनी के निदेशकों द्वारा नामित किया जाता था और लंदन के हैलीबरी कॉलेज में प्रशिक्षित किया जाता था। फिर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य का प्रशासन करने के लिये भारत भेजा जाता था।
- यह प्रारंभिक प्रणाली संरक्षण पर गहराई से आधारित थी, जिसमें भारतीयों के लिये प्रशासनिक पदों पर शामिल होने के अवसर बहुत कम थे।
- योग्यता-आधारित प्रणाली का परिचय (वर्ष 1854): वर्ष 1854 की मैकाले रिपोर्ट ने संरक्षण प्रणाली (राजनीतिक या पारिवारिक संबंधों को वरीयता) को योग्यता-आधारित प्रणाली (प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से) के साथ बदलने की सिफारिश की।
- इसके जवाब में, वर्ष 1854 में लंदन में सिविल सेवा आयोग की स्थापना की गई और वर्ष 1855 में भारतीय लोक सेवा (I.C.S.) परीक्षा शुरू हुई।
- यह प्रणाली शुरू में प्रतिबंधात्मक थी, क्योंकि परीक्षाएँ केवल लंदन में आयोजित की जाती थीं तथा भारतीयों के लिये सीटें सीमित थीं।
- ICS में भारतीय भागीदारी: सत्येंद्रनाथ टैगोर ( श्री रवींद्रनाथ टैगोर के भाई ) वर्ष 1864 में ICS परीक्षा पास करने वाले पहले भारतीय बने। अगले कुछ दशकों में, ICS परीक्षा पास करने वाले भारतीय उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हुई।
- मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों (वर्ष 1919) के बाद , भारत में ICS परीक्षा वर्ष 1922 में शुरू हुई, जो इलाहाबाद और बाद में दिल्ली में आयोजित की गई, इसके बाद लंदन में भी इसका आयोजन जारी रहा।
- पुलिस और वन सेवाओं में सुधार: ICS के अलावा, इंपीरियल पुलिस और वन सेवा जैसी सेवाएँ विकसित हुईं, जिनमें वर्ष 1920 के बाद भारतीयों को भी शामिल किया जाना शुरू हुआ।
- भारतीय पुलिस में वर्ष 1939 के बाद अधिक भारतीयों की भर्ती की गई, जबकि भारतीय वन सेवा का गठन अखिल भारतीय सेवा अधिनियम, 1951 के अंतर्गत वर्ष 1966 में किया गया।
- ब्रिटिश शासन के तहत, लोक सेवाओं को शुरू में अनुबंधित और गैर-अनुबंधित के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
- वर्ष 1887 के एचिसन आयोग ने उन्हें इंपीरियल, प्रांतीय और अधीनस्थ सेवाओं में पुनर्गठित किया। वर्ष 1919 के बाद, इंपीरियल सेवाओं को अखिल भारतीय और केंद्रीय सेवाओं में विभाजित कर दिया गया।
- लोक सेवा आयोगों का गठन: भारत सरकार अधिनियम, 1919 ने सार्वजनिक सेवाओं की भर्ती और नियंत्रण के प्रबंधन के लिये भारत में एक लोक सेवा आयोग की स्थापना का प्रावधान किया।
- ली आयोग (वर्ष 1924) की सिफारिशों पर वर्ष 1926 में लोक सेवा आयोग गठित किया गया, जिसके पहले अध्यक्ष सर रॉस बार्कर थे ।
- इसके अलावा, भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने संघ के लिये एक लोक सेवा आयोग और प्रत्येक प्रांत या प्रांतों के समूह के लिये एक प्रांतीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की।
- अधिनियम के कार्यान्वयन के साथ, लोक सेवा आयोग संघीय लोक सेवा आयोग बन गया।
- स्वतंत्रता के बाद के सुधार और समेकन: 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान को अपनाने के साथ ही संघीय लोक सेवा आयोग संघ लोक सेवा आयोग बन गया।
- पूर्व आयोग के अध्यक्ष और सदस्य संविधान के अनुच्छेद 378(1) के अंतर्गत नए निकाय में स्थानांतरित हो गए।
- संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 312 के तहत संसद को अखिल भारतीय सेवाएँ स्थापित करने का अधिकार प्राप्त है, जिनकी नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा की जाती है। राज्य स्तर पर नियुक्तियों की ज़िम्मेदारी राज्य लोक सेवा आयोगों (SPSC) की होती है।
- UPSC और SPSC स्वतंत्र संवैधानिक निकाय हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 315 से 323 (भाग XIV) इनकी संरचना, सदस्यों की नियुक्ति और हटाने की प्रक्रिया, तथा उनके अधिकारों और कार्यों को नियंत्रित करते हैं।
- अनुच्छेद 315: संघ और राज्यों के लिये लोक सेवा आयोगों (PSC) की स्थापना।
- दो या दो से अधिक राज्य आपसी सहमति से संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग (JSPSC) का गठन कर सकते हैं, बशर्ते कि प्रत्येक राज्य की विधानमंडल द्वारा इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया गया हो।
- अनुच्छेद 316: संघ, संयुक्त राज्य और राज्य लोक सेवा आयोगों (UPSC, JSPSC और SPSC) के सदस्यों की नियुक्ति और कार्यकाल।
- अनुच्छेद 317: UPSC, JSPSC और SPSC के सदस्यों को हटाने और निलंबन से संबंधित प्रावधान।
- अनुच्छेद 318: आयोग के सदस्यों और कर्मचारियों के लिये विनियम बनाने की शक्ति।
- अनुच्छेद 319: सदस्य पद छोड़ने के पश्चात अन्य पद ग्रहण करने पर प्रतिबंध।
लोक सेवाओं के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं?
- तटस्थता का क्षरण: बढ़ती राजनीतिक हस्तक्षेप ने नौकरशाही की स्वतंत्रता और मेरिट आधारित प्रणाली को कमज़ोर किया है, जिससे तबादलों और नियुक्तियों में स्पॉइल्स सिस्टम (spoils system) को बढ़ावा मिला है।
- स्पॉइल्स सिस्टम, जिसमें सत्तारूढ़ दल अपने वफादारों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करता है, अमेरिका में एक सामान्य प्रथा थी, जब तक कि वर्ष 1883 के पेंडलटन अधिनियम द्वारा इसे सीमित नहीं किया गया। इस प्रणाली के कारण प्रशासन का राजनीतिकरण हुआ, जिससे शासन व्यवस्था और संस्थागत स्थिरता कमज़ोर हुई।
- प्रकाश सिंह निर्णय में (2006) के सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे पुलिस महानिदेशक (DGP) की नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) से परामर्श के बाद की जाए। हालाँकि, कई राज्य इस प्रक्रिया को दरकिनार कर देते हैं, जिससे सिविल सेवाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप की प्रवृत्ति उजागर होती है।
- तकनीकी विशेषज्ञता का आभाव: कई नौकरशाह सामान्य प्रशासनिक पृष्ठभूमि से होते हैं, जिससे अवसंरचना, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में विशेषीकृत व तकनीकी चुनौतियों से निपटने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है।
- यह स्थिति उन जटिल प्रशासनिक मुद्दों के समाधान में अक्षमता का कारण बन सकती है, जिनके लिये विषय-विशेष ज्ञान आवश्यक होता है।
- वरिष्ठ नौकरशाही में निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता लाने के उद्देश्य से शुरू की गई लेटरल एंट्री योजना (LES) के तहत वर्ष 2019 से अब तक 63 नियुक्तियाँ की गई हैं।
- हालाँकि, यह योजना कानूनी और राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रही है, क्योंकि इसके लिये कोई वैधानिक ढाँचा मौजूद नहीं है और वंचित समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिलने की चिंताएँ भी उठाई जा रही हैं।
- भ्रष्टाचार और उत्तरदायित्व के मुद्दे: लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार एक महामारी के रूप में विशेष रूप से प्रशासन के निचले स्तरों पर व्याप्त है।
- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PCA), 1988 में सांठगाँठ वाले भ्रष्टाचार की स्पष्ट परिभाषा का अभाव है, जो आपसी लाभ के लिये गुप्त सहयोग को संदर्भित करता है, जो अक्सर सार्वजनिक हित को नुकसान पहुँचाता है। यह कानूनी अंतर भ्रष्टाचार से निपटने के प्रयासों को प्रभावी रूप से कमज़ोर करता है।
- अनुच्छेद 311 लोक सेवकों को व्यापक सुरक्षा प्रदान करता है, जिससे अक्सर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई में विलंब होता है।
- भ्रष्टाचार से निपटने के प्रयासों के बावजूद, उत्तरदायित्व और दंडात्मक कार्रवाई के आभाव के कारण भ्रष्ट प्रथाएँ प्रायः जारी रहती हैं।
- परिवर्तन का विरोध और नौकरशाही की कठोरता: लोक सेवाएँ अक्सर अत्यधिक प्रक्रियात्मक और पदानुक्रमित तरीके से कार्य करती हैं, जो नवाचार और उत्तरदायित्व की क्षमता को सीमित कर देती हैं।
- प्रक्रियाओं का पालन करने पर ज़ोर देने के बजाय परिणामों पर ध्यान केंद्रित न करने से सार्वजनिक सेवाओं की प्रभावी आपूर्ति में बाधा उत्पन्न हुई है।
- प्रौद्योगिकी का अक्षमता से उपयोग: लोक सेवाओं को आधुनिक शासन की मांगों को पूरा करने के लिये पर्याप्त रूप से प्रौद्योगिकी द्वारा सशक्त नहीं किया गया है।
- इस प्रकार की क्षमताओं की कमी नागरिक सहभागिता को बढ़ाने और सार्वजनिक सेवाओं को सरल बनाने की संभावनाओं को सीमित कर देती है।
भारत में लोक सेवाओं को सशक्त बनाने के लिये क्या से उपाय किये जा सकते हैं?
- भर्ती प्रणाली और पार्श्व प्रवेश या लेटरल एंट्री में सुधार: यद्यपि लोक सेवा आयोग (PSC) मेरिट-आधारित भर्ती सुनिश्चित करते हैं, फिर भी मध्य और वरिष्ठ स्तरों पर विषय-विशेषज्ञों को शामिल करने के लिये प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है।
- नीति आयोग (तीन वर्षीय कार्य एजेंडा) ने नौकरशाही के बाहर से नए विचारों और विशेषज्ञता को लाने के लिये पार्श्विक प्रेरण (Lateral induction) को बढ़ाने की सिफारिश की है।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC), 2005 ने लोक सेवा में पार्श्व प्रवेश/लैटरल एंट्री की सिफारिश की थी ताकि विशेष ज्ञान और विशेषज्ञता को शामिल किया जा सके, जो पारंपरिक सामान्यत: प्रशिक्षित अधिकारियों में नहीं हो सकती।
- वैश्विक उदाहरण: ब्रिटेन और सिंगापुर की लोक सेवाएँ नियमित रूप से अकादमिक तथा निजी क्षेत्र से पेशेवरों को शामिल करती हैं।
- निष्पादन मूल्यांकन और जवाबदेही: द्वितीय ARC द्वारा सुझाए अनुसार, वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) को 360-डिग्री फीडबैक तंत्र के साथ एकीकृत करें ताकि वस्तुनिष्ठ प्रदर्शन समीक्षा सुनिश्चित हो सके।
- प्रमोशन और पदस्थापना को मापने योग्य परिणामों से जोड़ें जो सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) के अनुरूप हों।
- स्पष्ट सेवा नियमों और एक सशक्त सिविल सेवा बोर्ड (CSB) के माध्यम से लोक सेवकों को जवाबदेह बनाते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप से सुरक्षा सुनिश्चित करना।
- विशेषज्ञता और भूमिका की स्पष्टता को प्रोत्साहित करना: भारतीय नौकरशाही आज भी मुख्य रूप से सामान्यवादी प्रकृति की बनी हुई है।
- सुरेंद्रनाथ समिति (2003) और बासवान समिति (2016) दोनों ने स्वास्थ्य, बुनियादी अवसंरचना और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में क्षेत्रीय नेतृत्व के लिये अधिकारियों की पहचान करने तथा उन्हें प्रशिक्षित करने के माध्यम से डोमेन विशेषज्ञता को बढ़ावा देने की सिफारिश की थी।
- क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण: मिशन कर्मयोगी भारत की लोक सेवाओं को सशक्त बनाने के लिये एक रूपांतरणकारी मार्ग प्रदान करता है, जो नियम-आधारित शासन से भूमिका-आधारित शासन की ओर बदलाव लाता है।
- इसके प्रभावी कार्यान्वयन में iGOT कर्मयोगी प्लेटफॉर्म के माध्यम से व्यक्तिगत और निरंतर सीखने को सुनिश्चित किया जाना चाहिये, जिसमें नैतिकता एवं डिजिटल तत्परता सहित व्यवहारिक, कार्यात्मक तथा डोमेन-विशिष्ट क्षमताओं पर विशेष ज़ोर हो, ताकि नागरिक-केंद्रित व भविष्य के लिये तैयार लोक सेवा का निर्माण किया जा सके।
- नैतिकता और सत्यनिष्ठा को बढ़ावा देना: अधिकारियों का मार्गदर्शन करने के लिये केंद्रीय और राज्य स्तर पर नैतिकता आयोग की स्थापना करना।
- कर्मयोगी मिशन के तहत राष्ट्रीय शिक्षण सप्ताह के माध्यम से सार्वजनिक सेवा मूल्यों पर नियमित मॉड्यूल शुरू करें, जिसमें सिविल सेवक प्रतिवर्ष ईमानदारी, नैतिकता और संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की शपथ लें।
- भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिये लोकपाल, केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) जैसे संस्थानों को सशक्त बनाएँ।
- द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC), 2005 ने शीघ्र अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिये उचित सुरक्षा उपायों हेतु अनुच्छेद 309 को अपनाने की सिफारिश की।
- ब्रिटेन की नोलन समिति (1994) ने सार्वजनिक अधिकारियों के नैतिक आचरण का मार्गदर्शन करने के लिये सात मुख्य सिद्धांतों की रूपरेखा तैयार की, जिसमें निस्वार्थता, अखंडता, वस्तुनिष्ठता, जवाबदेही, पारदर्शिता, ईमानदारी और सार्वजनिक जीवन में नैतिकता को बनाए रखने के उद्देश्य से नेतृत्व शामिल है।
- भारत को शासन में नैतिक मानकों को सशक्त बनाने के लिये ऐसे मूल्यों को संस्थागत रूप से अपनाना चाहिये।
- कार्य संस्कृति और शिकायत निवारण में सुधार: एक जनकेंद्रित और सेवा-उन्मुख कार्य संस्कृति को बढ़ावा देना।
- केंद्रीकृत लोक शिकायत निवारण और निगरानी प्रणाली (CPGRAMS) जैसे प्लेटफॉर्म के माध्यम से शिकायत निवारण को डिजिटाइज़ करें और फीडबैक लूप्स को सशक्त बनाएँ।
- प्रदर्शन को पुरस्कृत करके तथा सही निर्णयों के लिये प्रतिशोधात्मक कार्रवाई से सुरक्षा प्रदान करके नवाचार और जोखिम लेने को प्रोत्साहित करना।
- समावेशी और विविध सिविल सेवाएँ: यह सुनिश्चित करें कि महिलाओं और दिव्यांगजनों का प्रतिनिधित्व केवल प्रवेश स्तर पर ही नहीं, बल्कि नेतृत्व भूमिकाओं में भी हो।
निष्कर्ष
सिविल सेवाएँ भारतीय लोकतंत्र की स्टील फ्रेम बनी हुई हैं, लेकिन उन्हें समकालीन चुनौतियों के अनुकूल होना चाहिये। चूँकि भारत एक विकसित अर्थव्यवस्था और समावेशी समाज बनने की आकांक्षा रखता है, इसलिये लोक सेवकों को ईमानदारी के साथ नवाचार और तटस्थता के साथ जवाबदेही को जोड़ना चाहिये। 21वीं सदी की शासन प्रणाली की माँगों के साथ नौकरशाही को पुनः संगठित करने के लिये साहसिक सुधारों का समय आ गया है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारतीय लोकतंत्र की स्टील फ्रेम होने के बावजूद सिविल सेवाएँ राजनीतिकरण और सामान्यवादी प्रभुत्व के मुद्दों का सामना करती हैं। इन मुद्दों को हल करने के लिये सुधार सुझाएँ। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मेन्सप्रश्न. उन दस आधारभूत मूल्यों की पहचान कीजिये, जो एक प्रभावी लोक सेवक होने के लिये आवश्यक हैं। लोक सेवकों में गैर-नैतिक व्यवहार के निवारण के तरीकों और साधनों का वर्णन कीजिये। (2021) प्रश्न. “आर्थिक प्रदर्शन के लिये संस्थागत गुणवत्ता एक निर्णायक चालक है।” इस संदर्भ में लोकतंत्र को सुदृढ़ करने के लिये सिविल सेवा में सुधारों के सुझाव दीजियेl (2020) |