राज्यों की राजकोषीय स्थिति पर CAG की रिपोर्ट | 23 Sep 2025

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने 28 भारतीय राज्यों की राजकोषीय स्थिति पर अपनी पहली दशकीय समीक्षा जारी की, जिसमें यह दर्शाया गया कि इन राज्यों का सार्वजनिक ऋण (आंतरिक उधार एवं केंद्र से प्राप्त ऋण सहित) पिछले 10 वर्षों में तीन गुना हो गया है और वित्त वर्ष 2022-23 में ₹59.6 लाख करोड़ तक पहुँच गया है, जिससे राजकोषीय स्थिरता को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं। 

राज्यों की राजकोषीय स्थिति पर CAG रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं? 

  • एक दशक में ऋण वृद्धि: राज्यों का कुल सार्वजनिक ऋण वर्ष 2013-14 में 17.57 लाख करोड़ रुपए से 3.39 गुना बढ़कर वर्ष 2022-23 में 59.60 लाख करोड़ रुपए हो गया। 
    • सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) में ऋण का अनुपात (किसी राज्य की भौगोलिक सीमाओं के भीतर उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य) 16.66% से बढ़कर 22.96% हो गया, जो अधिक राजकोषीय भार को दर्शाता है। 
    • वित्त वर्ष 2022-23 में राज्यों का ऋण, भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 22.17% रहा। 
  • राज्यवार विविधताएँ: पंजाब (40.35%), नगालैंड (37.15%) और पश्चिम बंगाल (33.70%) में ऋण का अनुपात सर्वाधिक रहा, जबकि ओडिशा (8.45%), महाराष्ट्र (14.64%) और गुजरात (16.37%) में यह न्यूनतम रहा। 
  • ऋण बनाम राजस्व क्षमता: औसतन, राज्यों का ऋण उनकी राजस्व प्राप्तियों का लगभग 150% रहा है, जो कोविड-19 के दौरान वर्ष 2020-21 में बढ़कर 191% तक पहुँच गया। 
  • उधारी के स्रोत: प्रतिभूतियों, ट्रेजरी बिलों, बॉण्ड, बैंकों, भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की वेज़ एंड मीन्स एडवांस तथा भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) और राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) जैसी संस्थाओं से खुले बाज़ार से लिये गए ऋण। 
  • केंद्र की भूमिका: वस्तु एवं सेवा कर (GST) क्षतिपूर्ति की कमी और पूंजीगत व्यय के लिये विशेष सहायता के कारण केंद्र सरकार से ऋण में वृद्धि हुई। 
  • स्वर्णिम नियम का उल्लंघन: राजकोषीय नीति के स्वर्णिम नियम के अनुसार, सरकारों को चालू व्यय के लिये नहीं बल्कि केवल पूंजी निवेश के लिये उधार लेना चाहिये। 
    • हालाँकि, कम-से-कम 11 राज्यों ने पूंजी निवेश के बजाय दैनिक व्यय को पूरा करने के लिये उधार लिया। आंध्र प्रदेश और पंजाब में 25% से भी कम उधार पूंजीगत परियोजनाओं में लगाया गया। 

भारत में उच्च राज्य ऋण के क्या कारण हैं? 

  • GST के बाद कम हुई राजकोषीय स्वायत्तता: वर्ष 2017 में वस्तु एवं सेवा कर (GST) के परिचय ने कर संग्रह को केंद्रीकृत कर दिया, जिससे राज्यों के पास स्वतंत्र रूप से राजस्व उत्पन्न करने के सीमित साधन रह गए। 
    • इसके अतिरिक्त नए केंद्रीय उपकरों और अधिभारों के कारण कर राजस्व में उनकी हिस्सेदारी में गिरावट से उनकी राजकोषीय क्षमता और भी कम हो गई। 
  • राजकोषीय असंतुलन: राज्य कुल राजस्व का एक तिहाई से कम संग्रह करते हैं, जबकि सार्वजनिक व्यय का लगभग दो-तिहाई भार उनका होता है। 
    • यह महत्त्वपूर्ण राजस्व-व्यय असंतुलन राज्यों को अपने व्यय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये उधार लेने के लिये बाध्य करता है। 
  • बाज़ार उधारी पर उच्च निर्भरता: समय के साथ राज्य अधिकतर बाज़ार उधारियों की ओर मुड़े हैं, जो राज्य ऋण का बड़ा हिस्सा बनाते हैं। 
    • बाज़ार उधारी अन्य ऋण उपकरणों की तुलना में उच्च लागत पर आती है, जिससे राज्यों पर वित्तीय भार बढ़ता है। 
  • आकस्मिक देयताएँ: राज्य सरकारें अक्सर ऐसी परियोजनाएँ संचालित करती हैं, जिनमें वित्तीय गारंटी शामिल होती है (जैसे, अवसंरचना परियोजनाएँ), जिससे भविष्य में संभावित वित्तीय दायित्व उत्पन्न होते हैं, जिन्हें आकस्मिक देयताएँ कहा जाता है। ये देयताएँ राजकोषीय स्थिति के लिये जोखिम उत्पन्न करती हैं। 
  • उच्च ब्याज दरें: राज्यों को केंद्र सरकार की तुलना में अपेक्षाकृत उच्च उधारी लागत का सामना करना पड़ता है, जो कुल ऋण सेवा भार को बढ़ाता है। 
  • ऐतिहासिक ऋण संचय: जिन राज्यों का उच्च ऋण का इतिहास रहा है, उन्हें मौजूदा ऋण की सेवा के लिये और अधिक उधार लेना पड़ता है, जिससे एक ऋण जाल बन जाता है, जिससे बाहर निकलना कठिन हो जाता है। 

भारत में बढ़ते राज्य सार्वजनिक ऋण के क्या निहितार्थ हैं? 

  • राजकोषीय संघवाद के लिये खतरा: बढ़ता कर्ज राज्यों की राजकोषीय स्वायत्तता को सीमित करता है और राज्य के वित्त पर केंद्रीय नियंत्रण बढ़ाता है, जिससे संघीय ढाँचे को नुकसान पहुँचता है। 
  • राजकोषीय स्थिरता जोखिम: उच्च ऋण सेवा लागत विकास व्यय के लिये धन को सीमित कर देती है, जिससे संभावित रूप से ऋण जाल उत्पन्न हो जाता है, जहाँ राज्य मौजूदा ऋण को चुकाने के लिये अधिक उधार लेते हैं। 
  • आर्थिक विकास पर प्रभाव: राज्यों की बुनियादी ढाँचे जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में निवेश की क्षमता कम हो सकती है, जिससे दीर्घकालिक विकास धीमा हो सकता है। 
  • मुद्रास्फीति और ब्याज दर जोखिम: उच्च उधार लागत और मुद्रास्फीति का दबाव अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर सकता है तथा राजकोषीय तनाव बढ़ा सकता है। 
  • क्षेत्रीय असमानताएँ: उच्च ऋण-GDP अनुपात वाले राज्यों को राजकोषीय संकट का सामना करना पड़ सकता है, जिससे राजकोषीय स्वास्थ्य में अधिक क्षेत्रीय असमानताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। 
  • सामाजिक कल्याण पर प्रभाव: राज्य कल्याण कार्यक्रमों और सार्वजनिक सेवाओं में कटौती कर सकते हैं, जिससे कमज़ोर आबादी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

राजकोषीय स्थिति को बनाए रखते हुए राज्य ऋण भार को कैसे कम कर सकते हैं? 

  • राजस्व सृजन में वृद्धि: कर आधार का विस्तार करके और आर्थिक औपचारिकता के माध्यम से कर के दायरे को व्यापक बनाकर कर संग्रह दक्षता में वृद्धि करना। 
    • राज्य खनन रॉयल्टी, पर्यटन और सार्वजनिक परिसंपत्ति मुद्रीकरण जैसे नवीन राजस्व स्रोतों की खोज कर सकते हैं। 
  • व्यय को युक्तिसंगत बनाना: राज्यों को दीर्घकालिक निवेश के लिये पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता देनी चाहिये, विवेकाधीन व्यय को नियंत्रित करना चाहिये और अकुशल कल्याण कार्यक्रमों को युक्तिसंगत बनाना चाहिये। 
  • ऋण पुनर्गठन: राज्यों को उच्च ब्याज दर वाले ऋण का पुनर्वित्त करना चाहिये, कम लागत वाले ऋण स्रोतों [जैसे, राष्ट्रीय लघु बचत कोष (NSSF), ग्रीन बॉण्ड या इंफ्रास्ट्रक्चर बॉण्ड] की तलाश करनी चाहिये और राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम, 2003 के अनुसार ऋण-GDP अनुपात को सीमा के भीतर रखने के लिये ऋण सीमा निर्धारित करनी चाहिये। 
  • निवेश को बढ़ावा देना: बुनियादी अवसंरचना, प्रौद्योगिकी एवं नवीकरणीय ऊर्जा जैसे प्रमुख क्षेत्रों में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) पर ध्यान केंद्रित करना। 
    • इससे राज्य के वित्त पर भार कम हो सकता है और साथ ही निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता का लाभ भी उठाया जा सकता है। 
  • आकस्मिक निधि बनाना: अप्रत्याशित वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये आपातकालीन निधि या आकस्मिक निधि बनाना, जिससे आर्थिक आघातों या प्राकृतिक आपदाओं के समय अत्यधिक उधार लेने से बचने में सहायता मिलेगी। 
  • केंद्र-राज्य राजकोषीय सहयोग को बढ़ाना: वित्त आयोग के अनुसार केंद्रीय राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ाना तथा अल्पकालिक उधार आवश्यकताओं को कम करने के लिये समय पर GST क्षतिपूर्ति सुनिश्चित करना। 
  • सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन में सुधार: फिस्कल हेल्थ इंडेक्स (FHI) की सहायता से प्रदर्शन-आधारित बजट को लागू करना, व्यय को परिणामों से जोड़ना तथा खरीद को सुव्यवस्थित करने और अक्षमताओं को कम करने के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग करना। 
  • सामाजिक सुरक्षा जाल: ऐसे सामाजिक सुरक्षा जाल को सुदृढ़ करना, जो सबसे अधिक संवेदनशील वर्गों की रक्षा करें, बिना राज्य के बजट पर अत्यधिक भार डाले। 

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. भारत में बढ़ते राज्य ऋण के संदर्भ में, सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन को मज़बूत करने के महत्त्व पर चर्चा कीजिये 

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनाें पर विचार कीजिये: (2018) 

  1. राजकोषीय दायित्व और बजट प्रबंधन (एफ.आर.बी.एम.) समीक्षा समिति के प्रतिवेदन में सिफारिश की गई है कि वर्ष 2023 तक केंद्र एवं राज्य सरकारों को मिलाकर ऋण-जी.डी.पी. अनुपात 60% रखा जाए जिसमें केंद्र सरकार के लिये यह 40% तथा राज्य सरकारों के लिये 20% हो। 
  2. राज्य सरकाराें के जी.डी.पी. के 49% की तुलना में केंद्र सरकार के लिये जी.डी.पी. का 21% घरेलू देयतायें हैं। 
  3. भारत के संविधान के अनुसार यदि किसी राज्य के पास केंद्र सरकार की बकाया देयतायें हैं तो उसे कोई भी ऋण लेने से पहले केंद्र सरकार से सहमति लेना अनिवार्य है। 

उपर्युत्त कथनाें में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1    
(b) केवल 2 और 3 
(c) केवल 1 और 3    
(d) 1, 2 और 3 

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. उदारीकरण के बाद की अवधि के दौरान बजट बनाने के संदर्भ में सार्वजनिक व्यय प्रबंधन भारत सरकार के लिये एक चुनौती है। स्पष्ट कीजिये। (2019)