SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के कार्यान्वयन में प्रणालीगत विफलता का निवारण | 09 Dec 2025

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

तमिलनाडु से प्राप्त रिपोर्टों की एक शृंखला में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण (PoA) अधिनियम, 1989 के तहत दर्ज मामलों में चिंताजनक विलंब, प्रणालीगत विफलताओं और निरंतर बने जाति-आधारित दबावों को उजागर किया गया है।

  • यह अधिनियम अप्रभावी हो गया है, जिससे पीड़ितों को निरंतर भय और अन्याय की स्थिति में रहना पड़ रहा है, जिससे सामाजिक न्याय प्रभावित हो रहा है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (PoA) अधिनियम, 1989 क्या है?

  • परिचय: यह एक व्यापक भारतीय विधि है जो विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के सदस्यों के खिलाफ अपराधों और भेदभाव का निवारण करने, दंड का प्रावधान करने और प्रतितोष के लिये अधिनियमित है।
  • प्रमुख प्रावधान:
    • अत्याचारों की परिभाषा: अधिनियम में विभिन्न अत्याचारों को परिभाषित किया गया है, जिनमें जबरन उपभोग, लैंगिक शोषण, भूमि अधिग्रहण, बंधित श्रम, सार्वजनिक अपमान और निर्वाचन के दौरान अभित्रास अथवा धमकी शामिल हैं।
      • इसमें शास्ति सहित 6 माह से 5 वर्ष के कारावास का दंड तथा गंभीर अपराधों के लिये वर्द्धित दंड (आजीवन कारावास या मृत्युदंड भी) निर्धारित किया गया है।
    • त्वरित न्याय: प्रत्येक ज़िले में त्वरित सुनवाई के लिये विशेष न्यायालयों का गठन तथा मामलों को प्रभावी रूप से निपटान करने के लिये विशेष लोक अभियोजकों की नियुक्ति का प्रावधान।
    • सक्रिय और निवारक उपाय: इसके अंतर्गत प्राधिकारियों को अत्याचार करने की संभावना वाले व्यक्तियों का निष्कासन करने की अनुमति है तथा मजिस्ट्रेट और पुलिस को अत्याचार संभावित क्षेत्रों की घोषणा करने और SC/ST सुरक्षा के लिये निवारक कार्रवाई करने का अधिकार देता है।
    • सुदृढ़ प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय: इसके अंतर्गत अग्रिम जमानत का वर्जन किया गया है, यदि अभियुक्त को वित्तीय सहायता दी जाती है तो यह दुष्प्रेरण माना जाता है तथा विशेष न्यायालय को अपराध में प्रयुक्त संपत्ति को कुर्क करने या ज़ब्त करने की अनुमति होती है।
    • लोक सेवकों की जवाबदेही: धारा 4 के अंतर्गत उन लोक सेवकों (गैर-SC/ST) को दंडित किये जाने का प्रावधान है जो अधिनियम के तहत कर्त्तव्यों की साशय उपेक्षा करते हैं, उन्हें कम-से-कम एक वर्ष के कारावास का दंड दिया जाता है
  • पीड़ित एवं साक्षी व्यक्ति: अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य सरकारों को कार्यान्वयन सुनिश्चित करने, पीड़ितों को कानूनी सहायता, साक्षी व्यक्ति के व्यय और आर्थिक पुनर्वास प्रदान करने की आवश्यकता है
  • संसदीय निगरानी: प्रत्येक वर्ष, केंद्र सरकार को अधिनियम को प्रभावी रूप से लागू करने के लिये स्वयं तथा राज्य सरकारों द्वारा किये गए कार्यों पर संसद में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होती है।

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के प्रभावी कार्यान्वयन में कौन-सी प्रणालीगत विफलताएँ हैं?

  • प्रक्रियागत उपेक्षा: अनिवार्य प्रावधानों का हमेशा से ही उल्लंघन किया जाता रहा है। यथासमय FIR दर्ज नहीं की जाती हैं और आरोपपत्र निर्धारित 60 दिनों के भीतर बहुत कम मामलों में ही कभी दायर किये जाते हैं
  • अनुपयुक्त प्राथमिकताएँ: अधिकारी प्रायः अनौपचारिक शांति बैठकों और गैर-कानूनी समझौतों का विकल्प चुनकर अनिवार्य विधि प्रक्रिया को दरकिनार कर देते हैं, जो एक ऐसी प्रथा है जिसमें न केवल विधिक स्वीकृति का अभाव होता है, बल्कि यह एक प्रणालीगत और दृढ़ता से व्याप्त जातिगत पूर्वाग्रह को भी उजागर करता है
  • अप्रभावी पुनर्वास: यद्यपि कुछ मामलों में मौद्रिक अनुतोष प्रदान किया जाता है, लेकिन विधि द्वारा अनिवार्य व्यापक सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास- जिसमें भूमि, रोज़गार और शैक्षिक सहायता शामिल है- में विलंब होता है या कभी प्रदान नहीं किया जाता है।
  • जवाबदेही का अभाव: अधिनियम की धारा 4, जो कर्त्तव्यों की साशय उपेक्षा के लिये लोक सेवकों को दंडित करती है, का शायद ही कभी उपयोग किया गया है, जिससे अधिकारियों के बीच दंड से मुक्ति की संस्कृति का निर्माण हुआ है।
  • दंड से मुक्ति के साथ धमकी: आरोपी अक्सर स्वतंत्र रहते हैं, उसी इलाके पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं, जिससे भय का माहौल बनता है, जिससे पीड़ितों और गवाहों पर अपने बयान से पलटने या शिकायत वापस लेने का दबाव पड़ता है।

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के अप्रभावी कार्यान्वयन ने सामाजिक न्याय को कैसे कमज़ोर किया है?

  • निवारण का क्षरण: कम दोषसिद्धि दर, साथ ही दोषी अपराधियों की समयपूर्व रिहाई - जैसे कि मेलावलावु नरसंहार (1997, 6 अनुसूचित जाति के लोग मारे गए) जहाँ 16 दोषियों को अच्छे आचरण के लिये रिहा कर दिया गया - अपराधियों को प्रोत्साहित करती है और निवारण को कमज़ोर करती है।
  • जातिगत आतंक को बढ़ावा देना: मेलावलावु नरसंहार (1997) और सेननगरमपट्टी दोहरे हत्याकांड (1992) जैसे अत्याचारों का उद्देश्य पूरे समुदाय को आतंकित करके चुप कराना और आत्मसमर्पण करवाना था। विलंबित न्याय भय और दंड से मुक्ति को कायम रखकर इस लक्ष्य की पूर्ति करता है।
  • मनोवैज्ञानिक युद्ध: यह प्रक्रिया स्वयं एक सजा बन जाती है, जिसमें पीड़ित न केवल न्याय के लिये लड़ते हैं, बल्कि लगातार धमकियों और नौकरशाही की उदासीनता के खिलाफ भी लड़ते हैं, जिससे विधिक सहायता लेने की उनकी इच्छा समाप्त हो जाती है।
  • संवैधानिक अधिदेशों को कमज़ोर करना: संरक्षण प्रदान करने में अधिनियम की विफलता अस्पृश्यता के संवैधानिक उन्मूलन (अनुच्छेद 17) और सामाजिक न्याय के वादे को निरर्थक और अप्रभावी बना देती है।
  • सामाजिक सद्भाव का विखंडन: अनसुलझे अपराध और पक्षपातपूर्ण प्रतिक्रियाएँ अंतर-जातीय तनाव को बढ़ाती हैं , सामुदायिक संबंधों और सामाजिक सामंजस्य को नुकसान पहुँचाती हैं।

SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  • मज़बूत निगरानी तंत्र: एक उच्च स्तरीय विशेष समिति को FIR से लेकर पुनर्वास तक के मामलों की सक्रिय निगरानी करनी चाहिये, जो निष्क्रिय राज्य और ज़िला स्तरीय समितियों का स्थान लेगी।
  • शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करना: सरकार को समर्पित न्यायाधीशों और अभियोजकों के साथ पूर्णतः कार्यात्मक अनन्य विशेष न्यायालयों की स्थापना करनी चाहिये, जिससे रिक्तियों और अतिरिक्त शुल्कों को समाप्त किया जा सके, जो विलंब का कारण बनते हैं।
  • जवाबदेही लागू करना: अधिनियम के तहत अपने कर्त्तव्यों की उपेक्षा करने वाले जाँच अधिकारियों, अभियोजकों या मजिस्ट्रेटों को दंडित करने के लिये धारा 4 को सख्ती से लागू करना।
  • तत्काल सुरक्षा प्रदान करना: विश्वसनीय और दृश्यमान सुरक्षा उपायों के माध्यम से पीड़ितों और गवाहों में विश्वास उत्पन्न करना।
  • ज़मीनी स्तर पर सामाजिक सुधार: सामाजिक लोकतंत्र के लिये मैनुअल जैसी शिक्षा के माध्यम से सामाजिक चेतना और बंधुत्व को बढ़ावा देना विधिक उपायों के पूरक के रूप में दीर्घकालिक परिवर्तन के लिये आवश्यक है।

निष्कर्ष

सख्त प्रावधानों के बावजूद, SC/ST (PoA) अधिनियम उदासीनता, विलंब और निम्नस्तरीय जवाबदेही के कारण कमज़ोर है; प्रभावी न्याय के लिये सख्त प्रवर्तन, मज़बूत निगरानी, ​​पीड़ितों की सुरक्षा और मज़बूती से स्थापित जातिगत पूर्वाग्रह को खत्म करने के लिये सामाजिक प्रयास की आवश्यकता है।

दृष्टि मेंस प्रश्न:

प्रश्न. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 को प्रायः "दंतहीन कानून" कहा जाता है। इस शक्तिशाली कानून को ज़मीनी स्तर पर अप्रभावी बनाने वाली प्रणालीगत और कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)

1. SC/ST (PoA) अधिनियम, 1989 का उद्देश्य क्या है?
अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अत्याचारों को रोकना तथा पीड़ितों को विधिक, सामाजिक-आर्थिक और मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करना।

2. SC/ST (PoA) अधिनियम की धारा 4 में क्या प्रावधान है?
धारा 4 लोक सेवकों को जवाबदेह बनाती है तथा अधिनियम के तहत निर्धारित कर्त्तव्यों की जानबूझकर उपेक्षा करने वालों के लिये कारावास का प्रावधान करती है, हालाँकि इसका प्रयोग शायद ही कभी किया जाता है।

3. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत एक प्रमुख प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय का नाम बताइये जिसका उद्देश्य त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करना है।
जाँच में विलंब को रोकने के लिये अधिनियम में FIR दर्ज होने के 60 दिनों के भीतर आरोप पत्र दाखिल करना अनिवार्य किया गया है।

सारांश

  • SC/ST (PoA) अधिनियम में सख्त प्रावधान हैं - कठोर दंड , अग्रिम जमानत का निषेध और त्वरित सुनवाई - लेकिन यह प्रक्रियागत उपेक्षा एवं जवाबदेही के अभाव से प्रभावित है।
  • जातिगत पूर्वाग्रह , गवाहों को डराने-धमकाने तथा व्यापक सामाजिक-आर्थिक पुनर्वास प्रदान करने में विफलता के कारण कार्यान्वयन में बाधा आ रही है।
  • अप्रभाविता के परिणामस्वरूप दोषसिद्धि की दर कम होती है, अपराधियों का हौसला बढ़ता है, जातिगत आतंक फैलता है और पीड़ितों को मनोवैज्ञानिक नुकसान होता है।
  • प्रभावी न्याय के लिये धारा 4 के प्रवर्तन, सुदृढ़ निगरानी, ​​कार्यात्मक विशेष न्यायालय, पीड़ितों की सुरक्षा और जातिगत पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिये ज़मीनी स्तर पर सामाजिक शिक्षा की आवश्यकता होती है।

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