एडिटोरियल (15 May, 2025)



आर्थिक स्थिरता में पारिस्थितिकी की भूमिका

यह एडिटोरियल 14/05/2025 को द हिंदू में प्रकाशित “Ecology is the world’s permanent economy” पर आधारित है। यह लेख इस विचार पर प्रकाश डालता है कि पारिस्थितिकी स्थायी आर्थिक समृद्धि की नींव है तथा यह रेखांकित करता है कि सच्ची स्थिरता तभी संभव है जब हम पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास के बीच संतुलन स्थापित करें

प्रिलिम्स के लिये:

पर्यावरण संरक्षण, स्मार्ट सिटीज़ मिशन, अमृत ​​(अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन) योजन, आर्थिक विकास, विश्व आर्थिक मंच, IPBES ग्लोबल असेसमेंट, विश्व स्वास्थ्य संगठन, वन अधिकार अधिनियम, पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये भुगतान। 

मेन्स के लिये:

पारिस्थितिक संरक्षण भारत के आर्थिक विकास में किस प्रकार योगदान देता है, भारत में आर्थिक विकास और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करने से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ। 

पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा द्वारा लोकप्रिय कहा गया यह गूढ़ कथन "पर्यावरण ही स्थायी अर्थव्यवस्था है" हमें स्मरण कराता है कि मानव समृद्धि मूल रूप से पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य से जुड़ी हुई है। आर्थिक विकास और स्थिरता तब तक संभव नहीं हैं, जब तक हम अपने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करने के साथ-साथ उनका संरक्षण भी न करें। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन और जैव-विविधता की हानि बढ़ती जा रही है, पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक वृद्धि के बीच उचित संतुलन खोजना अत्यावश्यक हो गया है। यही संतुलन वास्तविक सततता का प्रतिनिधित्व करता है — जहाँ न तो पारिस्थितिक तंत्र का त्याग किया जाता है और न ही आर्थिक प्रगति का।

पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था एक दूसरे पर किस प्रकार निर्भर हैं?

  • आर्थिक संपदा के आधार के रूप में प्राकृतिक पूंजी: आर्थिक गतिविधियाँ मूल रूप से प्राकृतिक पूँजी पर निर्भर करती हैं, पारिस्थितिक तंत्र उत्पादन और उपभोग के लिये आवश्यक कच्चा माल, ऊर्जा और सेवाएँ प्रदान करते हैं।
    • पारिस्थितिक सीमाओं की अनदेखी से संसाधनों के क्षरण और आर्थिक अस्थिरता का खतरा उत्पन्न होता है। सतत् अर्थव्यवस्थाओं को पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य को एक मुख्य संपत्ति के रूप में अपनाना चाहिये।
    • विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) की वर्ष 2020 की रिपोर्ट "नेचर रिस्क राइजिंग" के अनुसार, वैश्विक GDP का 50% से अधिक लगभग $44 ट्रिलियन — प्रकृति और उसकी सेवाओं पर निर्भर है।
  • जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिकी-आर्थिक जोखिम बढ़ता है: पारिस्थितिक असंतुलन द्वारा प्रेरित तीव्र होता जलवायु संकट चरम मौसम, संसाधनों की कमी तथा स्वास्थ्य पर प्रभावों के माध्यम से आर्थिक क्षेत्रों के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न कर रहा है।
    • जो आर्थिक विकास मॉडल जलवायु जोखिमों की अनदेखी करते हैं, वे भारी वित्तीय क्षति और सामाजिक अव्यवस्था का सामना कर सकते हैं। आर्थिक स्थिरता के लिये जलवायु-संवेदनशील विकास अनिवार्य है।
    • विश्व आर्थिक मंच (WEF) का अनुमान है कि प्रत्येक 1°C तापमान वृद्धि पर वैश्विक GDP में लगभग 12% की हानि होती है। IPCC की 2023 रिपोर्ट इंगित करती है कि जलवायु जनित आपदाओं के कारण प्रतिवर्ष ट्रिलियनों डॉलर की वैश्विक आर्थिक हानि हो रही है।
  • जैव विविधता की हानि से आजीविका और खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है: जैव-विविधता पारिस्थितिकीय लचीलापन, कृषि उत्पादकता और औषधीय संसाधनों को सहारा देती है, जो मानव कल्याण एवं आर्थिक स्वास्थ्य के लिये अत्यंत आवश्यक हैं।
    • इसका तीव्र क्षरण खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आय को संकट में डालता है, जिससे सतत विकास को गंभीर चुनौती मिलती है। जैव-विविधता का संरक्षण आर्थिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिये अनिवार्य है।
    • IPBES ग्लोबल असेसमेंट के अनुसार, लगभग 10 लाख प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं — यह आँकड़ा मानवीय गतिविधियों के कारण जैव-विविधता पर पड़ने वाले गहन प्रभाव को दर्शाता है।
      • यह खतरा केवल प्रजातियों की हानि तक सीमित नहीं है, बल्कि उन सेवाओं को भी प्रभावित करता है जो पारिस्थितिक तंत्र प्रदान करते हैं, जिससे 1.6 अरब से अधिक लोगों की आजीविका और जीवन-स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • हरित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन से नये आर्थिक अवसर सृजित करता है: पारिस्थितिक स्थिरता नवीकरणीय ऊर्जा, चक्रीय अर्थव्यवस्था (circular economy) और हरित प्रौद्योगिकियों में नवाचार को बढ़ावा देती है, जिससे रोजगार सृजन और आर्थिक विविधीकरण को बल मिलता है।
    • प्रकृति-आधारित समाधानों में निवेश से पारिस्थितिक पुनरुद्धार और आर्थिक वृद्धि — दोनों को बढ़ावा मिलता है, जिससे स्थिरता एक बाधा नहीं, बल्कि एक उत्प्रेरक बन जाती है।
    • विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) का अनुमान है कि प्रकृति-आधारित समाधानों में निवेश को 2030 तक वास्तविक रूप में कम-से-कम तीन गुना करना आवश्यक है।
  • मानव कल्याण और आर्थिक उत्पादकता: स्वच्छ हवा, जल और प्राकृतिक पर्यावरण सीधे जनस्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, जिससे स्वास्थ्य-सेवा लागत में कमी आती है और उत्पादकता में वृद्धि होती है।
    • पारिस्थितिकीय क्षरण रोगों का बोझ बढ़ाता है और आर्थिक हानि का कारण बनता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि पर्यावरणीय संरक्षण का सीधा संबंध मानव संसाधन और आर्थिक उत्पादन से है। पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य में निवेश करना वास्तव में मानव और आर्थिक पूँजी में निवेश करना है।
    • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, वातावरणीय और घरेलू वायु प्रदूषण के संयुक्त प्रभावों से प्रति वर्ष लगभग 70 लाख लोगों की असमय मृत्यु होती है, जिससे वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को अरबों डॉलर की उत्पादकता हानि होती है।

पारिस्थितिकी संरक्षण भारत के आर्थिक विकास में किस प्रकार योगदान दे रहा है?

  • नवीकरणीय ऊर्जा से सतत् आर्थिक विकास को बढ़ावा: भारत में नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में तेज़ी से हो रहा विस्तार ऊर्जा सुरक्षा को मज़बूत करता है, जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को घटाता है, और हरित निवेश को आकर्षित करता है, जिससे GDP में वृद्धि को बल मिलता है।
    • वित्त वर्ष 2024–25 में भारत ने 23.83 GW सौर ऊर्जा क्षमता जोड़ी, जिससे कुल नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता 130 GW से अधिक हो गई है, यह वर्ष 2030 तक 500 GW के लक्ष्य की दिशा में एक मज़बूत कदम है।
    • 19 अरब डॉलर की गुजरात हाइब्रिड नवीकरणीय ऊर्जा परियोजना बड़े पैमाने पर सतत् अवसंरचना का उदाहरण है, जो रोज़गार सृजन और क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देती है।
  • वन संरक्षण से कार्बन अवशोषण और आजीविका को बढ़ावा: भारत का वन एवं वृक्ष आच्छादन (Forest and Tree Cover) भूमि क्षेत्र का 25.17% हो गया है (भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2023 के अनुसार), जो कार्बन सिंक को मज़बूत करता है और जलवायु शमन तथा पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं के लिये आवश्यक है।
    • सतत् वानिकी (Sustainable Forestry) के माध्यम से एग्रोफॉरेस्ट्री एवं गैर-काष्ठ वानिकी उत्पादों (Non-Timber Forest Products) से आजीविका के साधन मिलते हैं, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था, जैव विविधता संरक्षण और दीर्घकालिक पारिस्थितिक एवं आर्थिक स्थायित्व में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • पर्यावरण अनुकूल खनन से संसाधन स्थिरता बढ़ती है: भारत का खनन क्षेत्र अब कठोर पर्यावरणीय मानदंडों और हरित तकनीकों को अपना रहा है, जिससे भूमि क्षरण और प्रदूषण को न्यूनतम किया जा रहा है।
    • भारतीय खान ब्यूरो (Indian Bureau of Mines) द्वारा लगभग 68 खानों को पाँच-सितारा ईको-रेटिंग प्रदान की गयी है। सतत् खनन यह सुनिश्चित करता है कि खनिज आपूर्ति शृंखलाएँ, जो अवसंरचना और विनिर्माण के लिये आवश्यक हैं, सुरक्षित रहें। साथ ही, यह राष्ट्रीय खनिज नीति 2019 के स्थायित्व लक्ष्यों के अनुरूप है।
  • शहरी हरियाली से सार्वजनिक स्वास्थ्य और उत्पादकता में सुधार होता है: शहरी वनीकरण (urban afforestation) और हरित अधोसंरचना (green infrastructure) प्रदूषण को कम करते हैं, जलवायु सहनशीलता बढ़ाते हैं और जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाते हैं, जिससे कार्यबल की उत्पादकता में वृद्धि होती है।
    • उत्तर प्रदेश के मियावाकी वन और प्लास्टिक सड़क परियोजनाएँ "अपशिष्ट से संसाधन" (waste-to-resource) की नवीनतम अवधारणाओं का उदाहरण हैं, जो तेज़ी से विकसित हो रहे शहरों में जीवन-योग्यता (urban livability) को बढ़ा रही हैं — ये शहर भारत की सेवा-प्रधान अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
  • जैव-विविधता संरक्षण पारिस्थितिक पर्यटन और ग्रामीण आय को बढ़ावा देता है: भारत की समृद्ध जैव-विविधता पारिस्थितिक पर्यटन (ecotourism) के लिये एक उभरती हुई संपत्ति है, जो ग्रामीण आजीविका को सशक्त बनाती है तथा विदेशी मुद्रा अर्जित करती है।
    • काज़ीरंगा जैसे पर्यटन स्थलों में वन्यजीव पर्यटन, जहाँ 2024-25 में 4.06 लाख से अधिक पर्यटकों का अब तक का उच्चतम आगमन दर्ज किया गया, स्थानीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।
    • बस्तर के धुरवा जनजाति के लोग कायकिंग, बेम्बू राफ्टिंग और ट्रेकिंग जैसी पर्यावरण-अनुकूल गतिविधियों को बढ़ावा देकर न केवल अपनी आजीविका को सतत् बना रहे हैं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत का भी संरक्षण कर रहे हैं।

भारत में आर्थिक विकास और पारिस्थितिकी संरक्षण के बीच संतुलन बनाने में प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • तीव्र औद्योगिकीकरण के कारण संसाधनों का ह्रास: भारत के औद्योगिक विकास से सीमित प्राकृतिक संसाधनों पर असहनीय दबाव पड़ रहा है, जिसके परिणामस्वरूप वनों की कटाई, जल-संकट और मृदा अपरदन हो रहा है।
    • विकास की मांगों और संरक्षण के बीच संतुलन बनाना कठिन है क्योंकि संसाधन निष्कर्षण GDP को बढ़ावा देता है, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाता है। अस्थिर खनन और अवसंरचना परियोजनाएँ अक्सर पर्यावरण सुरक्षा मानदंडों की उपेक्षा कर जाती हैं।
      • उदाहरण के लिये, केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB) की 2023 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के 60% से अधिक कुओं में जल स्तर में गिरावट के संकेत मिले हैं, जो दर्शाता है कि कई क्षेत्रों में भूजल निष्कर्षण पुनर्भरण से अधिक हो रही है।
      • एक हालिया विश्लेषण में बताया गया कि ओड़िशा के नबरंगपुर, पुरी, कंधमाल और कालाहांडी ज़िलों में खनन के कारण वन क्षेत्र का 20% से अधिक हिस्सा समाप्त हो गया है।
  • शहरीकरण के कारण पर्यावरणीय तनाव: तीव्र शहरी विस्तारण से आवासीय स्थल नष्ट होते हैं, प्रदूषण बढ़ता है और अपशिष्ट प्रबंधन में चुनौतियाँ आती हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव पड़ता है।
    • संयुक्त राष्ट्र आवास कार्यक्रम (UN Habitat) के अनुसार, विश्व की कुल ऊर्जा खपत का 78% शहरों में होता है और 60% से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी वहीं होता है।
      • भारत के प्रमुख महानगर जैसे दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में प्रदूषण के स्तर में वृद्धि के कारण देश के शहरी पारिस्थितिकी तंत्र संकट की स्थिति में हैं। शहरी नियोजन में हरित अवसंरचना को शामिल करना अभी भी अपर्याप्त है।
  • भूमि उपयोग की परस्पर विरोधी प्राथमिकता: कृषि, उद्योग, शहरी विकास और संरक्षण सीमित भूमि के लिये प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जिससे संघर्ष उत्पन्न होते हैं जो सतत् नियोजन में बाधा डालते हैं।
    • अल्पकालिक आर्थिक लाभ को प्राथमिकता देने के कारण अक्सर जंगलों पर अतिक्रमण और वेटलैंड्स (आर्द्रभूमि) के विनाश की घटनाएँ बढ़ जाती हैं। समन्वित भूमि उपयोग नीति की कमी इन तनावों को और बढ़ा देती है।
    • उदाहरण के लिये, वेटलैंड्स इंटरनेशनल साउथ-एशिया (WISA) के अनुमान के अनुसार, भारत में पिछले चार दशकों में लगभग 30% प्राकृतिक आर्द्रभूमि शहरीकरण, अवसंरचना निर्माण, कृषि विस्तार और प्रदूषण के कारण नष्ट हो चुकी है।
  •  अपर्याप्त पर्यावरणीय शासन और प्रवर्तन: पर्यावरण नियमों का कमज़ोर क्रियान्वयन और विभिन्न एजेंसियों के बीच अधिकार क्षेत्र का अतिव्यापन संरक्षण प्रयासों को कमज़ोर करता है।
    • पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में विलंब और भ्रष्टाचार जवाबदेही को बाधित करते हैं। विकास और पारिस्थितिकी के बीच संतुलन स्थापित करना प्रशासनिक अक्षमताओं के कारण चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • गरीबी और आजीविका की प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता: भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में करोड़ों लोग जीविका के लिये सीधे वनों, जल निकायों और भूमि पर निर्भर हैं, जिससे संरक्षण और आजीविका की आवश्यकताओं के बीच तनाव उत्पन्न होता है।
    • कठोर संरक्षण नीतियाँ समुदायों को हाशिये पर डाल सकती हैं, जिससे विरोध और अस्थायी शोषण की प्रवृत्ति बढ़ती है।
    • 275 मिलियन से अधिक लोग वन संसाधनों पर निर्भर हैं (भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2023)।
      • झारखंड में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि वन-आधारित आजीविकाएँ ग्रामीण आय का 12% से 42% तक योगदान करती हैं, जिससे संरक्षण का सख्त क्रियान्वयन जटिल हो जाता है।
  • जलवायु परिवर्तन पारिस्थितिकीय कमज़ोरियों को बढ़ा रहा है: जलवायु परिवर्तन चरम मौसमी घटनाओं को तीव्र करता है, जिससे कृषि, जल उपलब्धता और जैव-विविधता प्रभावित होती है और विकास-संरक्षण के संतुलन को जटिल बनाता है। कमज़ोर क्षेत्रों में अनुकूलन क्षमता कम होने के कारण सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय जोखिम बढ़ जाते हैं।
    • वर्ष 2024 में भारत ने 536 हीटवेव दिन अनुभव किये, जो पिछले 14 वर्षों में सबसे अधिक हैं। हिमालय की ग्लेशियरों का पिघलना 100 मिलियन से अधिक लोगों के जल सुरक्षा को निचले इलाकों को प्रभावित करता है।

आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के बीच प्रभावी संतुलन हेतु भारत क्या उपाय अपना सकता है? 

  • भूदृश्य-स्तरीय एकीकृत संसाधन प्रबंधन: क्रॉस-सेक्टोरल, भूदृश्य-स्तरीय शासन ढाँचे को लागू करना चाहिये जिससे वन, जल, कृषि एवं जैवविविधता प्रबंधन को समन्वित किया जा सके।
    • जल उपयोग दक्षता को अनुकूलित करने, मृदा स्वास्थ्य को बेहतर करने, पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने तथा जलवायु अनुकूलन एवं धारणीय आजीविका को बढ़ावा देने के क्रम में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) और राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम के बीच समन्वय का लाभ उठाना चाहिये।
  • बहुस्तरीय पर्यावरण विनियामक तंत्र को मज़बूत करना: पारदर्शी निगरानी तथा प्रवर्तन के लिये AI-संचालित रिमोट सेंसिंग एवं ब्लॉकचेन जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों से युक्त मज़बूत, विकेंद्रीकृत पर्यावरण विनियामक निकायों की स्थापना करनी चाहिये। 
    • गतिशील पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) को बढ़ावा देना चाहिये, जिसमें संचयी तथा दीर्घकालिक पारिस्थितिकी-आर्थिक प्रभावों को शामिल किया जाए, साथ ही स्थानीय समुदायों एवं हितधारकों को शामिल करते हुए भागीदारीपूर्ण निर्णय लेने को सुनिश्चित किया जाए।
  • उद्योग में सर्कुलर और जैव-अर्थव्यवस्था का अनुकरण: अपशिष्ट निगरानी के साथ पारिस्थितिकी अनुरूप डिज़ाइन और बंद-लूप प्रणालियों पर बल देते हुए सर्कुलर औद्योगिक मॉडल में परिवर्तन को अपनाना चाहिये।
    • MSME के लिये ज़ीरो डिफेक्ट ज़ीरो इफेक्ट (ZED) को विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) ढाँचे के साथ एकीकृत करने के साथ निर्माताओं को धारणीय सामग्री अपनाने, प्रदूषण को कम करने एवं पर्यावरण-नवाचार समूहों को बढ़ावा देने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये, जिससे विकास बाधित न हो।
  • प्रकृति-आधारित जलवायु समाधान (NbCS) को मुख्यधारा में शामिल करना: पारिस्थितिकी तंत्र के उन्नयन, शहरी हरित गलियारे, ब्लू कार्बन पहल और कृषि वानिकी को राष्ट्रीय जलवायु रणनीतियों में शामिल करने के साथ NbCS को बढ़ावा देना चाहिये। 
    • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये भुगतान (PES) जैसे उपकरणों का उपयोग करके पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के मौद्रिक मूल्यांकन को संस्थागत बनाने के साथ बाज़ार आधारित प्रोत्साहनों के माध्यम से संरक्षण वित्त को सक्षम करना चाहिये, जिससे आर्थिक विकास को जैवविविधता संरक्षण अनिवार्यताओं के साथ संरेखित किया जा सके।
  • धारणीय आजीविका के साथ समुदाय-केंद्रित संरक्षण: वन अधिकार अधिनियम (FRA) को मनरेगा समर्थित पारिस्थितिकी-पुनर्स्थापन परियोजनाओं के साथ जोड़कर, अधिकार-आधारित भागीदारी के साथ स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना चाहिये। 
    • गैर-लकड़ी वन उत्पादों, पारिस्थितिकी पर्यटन तथा नवीकरणीय ऊर्जा उद्यमिता में कौशल विकास के माध्यम से जलवायु-अनुकूल आजीविका को बढ़ावा देना चाहिये, जिससे संरक्षण और समावेशी आर्थिक सशक्तीकरण का एक बेहतर चक्र निर्मित हो सके।
  • ग्रीन शहरी अवसंरचना और सतत् गतिशीलता: प्रकृति आधारित अवसंरचना (पारगम्य सतहें, शहरी आर्द्रभूमि, हरित छतें) को अपनाने के साथ स्मार्ट सिटी मिशन और AMRUT ​​(अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन) योजना के तहत एकीकृत शहरी नियोजन को बढ़ावा देना चाहिये। 
    • इससे शहरी ताप द्वीप प्रभाव, वायु प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन में कमी आने के साथ जीवन-गुणवत्ता और आर्थिक उत्पादकता में वृद्धि होगी।
  • सहक्रियात्मक नीतियों के साथ स्वच्छ ऊर्जा अपनाने में तेज़ी लाना: राष्ट्रीय सौर मिशन और परफॉर्म अचीव ट्रेड (PAT) को उभरती हुई बैटरी भंडारण एवं स्मार्ट ग्रिड प्रौद्योगिकियों के साथ जोड़कर नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाने पर ध्यान देना चाहिये।
    • ग्रीन हाइड्रोजन और जैव ऊर्जा नवाचारों को प्रोत्साहित करने के क्रम में सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देने एवं भारत को वैश्विक स्वच्छ-प्रौद्योगिकी केंद्र के रूप में स्थापित करने के साथ ऊर्जा सुरक्षा तथा औद्योगिक डीकार्बोनाइजेशन सुनिश्चित करना चाहिये।
  • बड़े पैमाने पर पर्यावरण साक्षरता तथा व्यवहार परिवर्तन: सभी स्तरों पर जागरूकता के क्रम में स्थानीय पारिस्थितिकी ज्ञान प्रणालियों के साथ अनुभवात्मक शिक्षा को एकीकृत करना चाहिये। 
    • पर्यावरण अनुकूल व्यवहार, ज़िम्मेदार उपभोग और जलवायु कार्रवाई प्रतिबद्धता को बढ़ावा देने के क्रम में सोशल मीडिया प्रभावकों एवं गेमीफिकेशन का लाभ उठाते हुए राष्ट्रव्यापी डिजिटल अभियान शुरू करना चाहिये, जिससे सामाजिक नेतृत्व को मज़बूत किया जा सके।
  • हरित वित्त पारिस्थितिकी तंत्र: प्रोत्साहनयुक्त हरित बॉण्ड, ESG-अनुरूप निवेश एवं सभी क्षेत्रों में अनिवार्य जलवायु-संबंधी वित्तीय व्यवस्था के माध्यम से एक व्यापक वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करना चाहिये।
    • ऋण मूल्यांकन एवं निवेश संबंधी निर्णय लेने में पारिस्थितिकी जोखिमों को मुख्यधारा में लाने के क्रम में आरबीआई के विवेकपूर्ण मानदंडों के साथ एकीकृत राष्ट्रीय पर्यावरण जोखिम मूल्यांकन प्रोटोकॉल स्थापित करना चाहिये।

निष्कर्ष: 

पारिस्थितिकी तंत्र और अर्थव्यवस्था की परस्पर निर्भरता निर्विवाद है, क्योंकि सतत् आर्थिक समृद्धि हमारे प्राकृतिक पर्यावरण के स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। भारत की चुनौती महत्त्वाकांक्षी विकास लक्ष्यों के साथ मज़बूत पर्यावरण संरक्षण को एकीकृत करने में निहित है। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की है कि वन और प्राकृतिक संसाधन राष्ट्रीय संपत्ति हैं जो देश की वित्तीय संपदा का अभिन्न अंग हैं। इस संतुलन को प्राप्त करना न केवल जैवविविधता और जलवायु की सुरक्षा के लिये बल्कि भारत के सतत् भविष्य को सुरक्षित करने के लिये भी आवश्यक है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: 

Q. "पारिस्थितिकी तंत्र, स्थायी अर्थव्यवस्था है।" भारत में पारिस्थितिक संरक्षण तथा आर्थिक विकास के बीच अंतर्संबंध का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। 

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक परीक्षा

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन सा भौगोलिक क्षेत्र की जैवविविधता के लिये खतरा हो सकता है? (वर्ष 2012)  

  1. ग्लोबल वार्मिंग 
  2. आवास का खंडीकरण 
  3. विदेशी प्रजातियों का आक्रमण 
  4. शाकाहार को बढ़ावा देना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग करे सही उत्तर का चयन कीजिये: 

(a) केवल 1, 2 और 3 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 4 
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (a)


प्रश्न. जैवविविधता निम्नलिखित तरीकों से मानव अस्तित्व के लिये आधार बनाती है: (वर्ष 2011) 

  1. मृदा का निर्माण 
  2. मृदा क्षरण की रोकथाम 
  3. अपशिष्ट का पुनर्चक्रण 
  4. फसलों का परागण

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर का चयन कीजिये: 

(a) केवल 1, 2 और 3 
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1 और 4 
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: d


मेन्स:

Q.  भारत में जैव-विविधता किस प्रकार अलग-अलग पाई जाती है? वनस्पतिजात और प्राणिजात के संरक्षण में जैव-विविधता अधिनियम, 2002 किस प्रकार सहायक है?  (वर्ष 2018)