एडिटोरियल (12 Oct, 2021)



भारतीय कृषि क्षेत्र और पर्यावरण

यह एडिटोरियल 11/10/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “A Carbon Policy for the Farm” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु परिवर्तन में भारत के योगदान की चर्चा की गई है, साथ ही इस बात पर भी विचार किया गया है कि भारत अपनी कृषि व्यवस्था में परिवर्तन लाकर किस प्रकार आगे और क्षति को सकता है।

संदर्भ

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल’ (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) की छठी आकलन रिपोर्ट में मानव जाति के लिये ‘कोड रेड’ जारी करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी का 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्म होना अपरिहार्य है।

यद्यपि वैश्विक स्तर पर ‘पर्यावरणीय स्वास्थ्य’ को महत्त्व दिया जा रहा है, लेकिन रिकवरी की गति उतनी तीव्र नहीं है जिस गति से क्षरण हो रहा है।

भारत के संदर्भ में, कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र ऊर्जा क्षेत्र एवं विनिर्माण क्षेत्र के बाद ग्रीनहाउस गैस का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है।  

कृषि क्षेत्र पर व्यापक रूप से निर्भर होने के कारण, भारत को अपनी कृषि व्यवस्था में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाने एवं खेती एवं पशुधन प्रबंधन के कार्बन-कुशल तरीकों को अपनाने की आवश्यकता है। 

भारत: जलवायु परिवर्तन एवं कृषि

  • वायु प्रदूषण में भारत की स्थिति: विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट, 2020 के अनुसार, विश्व के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में से 22 शहर भारत में हैं और दिल्ली विश्व की सबसे प्रदूषित राजधानी है।   
    • आसपास के राज्यों में पराली जलाने के कारण दिल्ली सर्दियों के मौसम में गंभीर वायु प्रदूषण का शिकार होती है।  
    • इस अवधि के दौरान ‘वायु गुणवत्ता सूचकांक’ (AQI) औसतन 300 के पार चला जाता है और कुछ दिन यह 600-800 तक के उच्च स्तर पर भी पहुँच जाता है, जबकि सुरक्षित सीमा 50 से कम है।  
  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन: वैश्विक स्तर पर भारत, चीन और अमेरिका के बाद ग्रीनहाउस गैस का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जो वार्षिक रूप से लगभग 2.6 बिलियन टन CO2 का उत्सर्जन करता है।      
    • हालाँकि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन मात्र 1.8 टन है, जो 4.4 टन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के वैश्विक औसत से काफी  कम है।    
    • भारत ने अपने ’राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (NDCs) में वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2005 के स्तर से 33-35% तक कम करने की प्रतिबद्धता जताई है।
  • भारत का क्षेत्रवार उत्सर्जन: वैश्विक स्तर पर बिजली एवं ऊष्मा उत्पादन, कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग उत्सर्जन के 50% भाग का निर्माण करते हैं। 
    • भारत में उत्सर्जन में सर्वाधिक हिस्सेदारी ऊर्जा क्षेत्र (44%), विनिर्माण एवं निर्माण क्षेत्र (18%) और कृषि, वानिकी एवं भूमि उपयोग क्षेत्रों (14%) की है।  
      • उत्सर्जन में शेष भागीदारी परिवहन, औद्योगिक प्रक्रियाओं और अपशिष्ट क्षेत्रों की है।
  • कृषि और जलवायु परिवर्तन:
    • कुल GHG उत्सर्जन: कुल उत्सर्जन में कृषि की हिस्सेदारी वर्ष 1994 में 28% से धीरे-धीरे घटकर वर्ष 2016 में 14% हो गई है।   
      • हालाँकि समग्र रूप से कृषि क्षेत्र का उत्सर्जन वर्ष 2018 में बढ़कर लगभग 650 मिलियन टन CO2 हो गया है।  
    • उत्सर्जन वर्गीकरण: भारतीय कृषि क्षेत्र में उत्सर्जन मुख्य रूप से पशुधन क्षेत्र (54.6%) और नाइट्रोजन उर्वरक (19%) के उपयोग से होता है।    
      • अवायवीय स्थितियों में चावल की खेती कृषि उत्सर्जन के एक बड़े भाग (17.5%) का निर्माण करती है। 
      • कृषि मृदा, नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है। 
      • वर्ष 1980-81 से वर्ष 2014-15 के बीच नाइट्रोजन-उर्वरक के उपयोग से N2O उत्सर्जन में 358% की वृद्धि हुई।

Agriculture

कार्बन-कुशल कृषि की ओर

  • ‘कार्बन-कुशल कृषि’ की अवधारणा को कानूनी समर्थन प्रदान करना: कृषि क्षेत्र के लिये एक विशिष्ट कार्बन नीति तैयार की जानी चाहिये, जो कार्बन उत्सर्जन को कम करने और वैश्विक स्तर पर व्यापार-योग्य कार्बन क्रेडिट के माध्यम से किसानों को पुरस्कृत करने पर लक्षित हो।  
    • इसके अलावा, भारत को अपनी नीति में यह स्पष्ट रूप से प्रकट करना चाहिये कि विदेशी प्रदूषणकारी उद्योगों को बिक्री करते समय कार्बन क्रेडिट को किस प्रकार समायोजित किया जाएगा, ताकि दोहरी गणना से बचा जा सके। 
  • आहार संबंधी प्रथाओं में परिवर्तन लाना: विश्व में सर्वाधिक पशुधन आबादी (537 मिलियन) के साथ भारत को आहार संबंधी बेहतर प्रथाओं को विकसित करने पर ज़ोर देना चाहिये, ऐसे में उनकी उत्पादकता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।   
  • जल-कुशल फसलों को बढ़ावा देना: पशुधन के अलावा, चावल की खेती (विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम भारत के सिंचित इलाकों में) मीथेन उत्सर्जन हेतु काफी हद तक उत्तरदायी है।    
    • जबकि चावल का बीजारोपण और वैकल्पिक ‘वेट एंड ड्राई’ विधि से चावल की खेती कार्बन फुटप्रिंट को कम कर सकती है, हालाँकि वास्तविक समाधान यह होगा कि चावल के बजाय मक्का या अन्य निम्न जल खपत वाली फसलों की खेती की ओर आगे बढ़ा जाए।   
    • इसके साथ ही, चावल के बजाय मक्के की खेती के लिये किसानों को पुरस्कृत करने की एक प्रणाली इसे धान की तुलना में अधिक लाभदायक बनाएगी और यह सभी के लिये अनुकूल स्थिति होगी।   
  • जैव ईंधन को बढ़ावा देना: मक्का जैसी जल की बचत करने वाली फसलों से और साथ ही गैर-खाद्य चारे से इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है।    
    • यह न केवल कच्चे तेल के आयात पर भारत की निर्भरता को कम करने में मदद करेगा बल्कि कार्बन फुटप्रिंट को भी कम करेगा।
  • फर्टिगेशन (Fertigation) को बढ़ावा देना: बेहतर एवं कुशल उर्वरक उपयोग का एक विकल्प फर्टिगेशन (Injection of Fertilizers) को बढ़ावा देना और घुलनशील उर्वरकों को सब्सिडी प्रदान करना हो सकता है।      
    • सरकार को ’फर्टिगेशन’ के लिये ड्रिप पर प्रोत्साहन और सब्सिडी प्रदान करना चाहिये; चावल की खेती के बजाय मक्का या अन्य निम्न जल-गहन फसलों की ओर आगे बढ़ना चाहिये; और घुलनशील उर्वरकों पर दानेदार यूरिया के ही समान सब्सिडी प्रदान कर इसे बढ़ावा देना चाहिये।    
  • संवहनीय डेयरी अभ्यास: संवहनीय डेयरी अभ्यासों को सक्रियता से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है, जिसमें निम्नलिखित को शामिल किया जा सकता है:  
    • प्रौद्योगिकीय और सर्वोत्तम कृषि अभ्यासों के हस्तक्षेप और समाधानों के माध्यम से GHG उत्सर्जन में कमी करना।  
    • ‘सर्कुलर बायो-इकोनॉमी’ (Circular Bio-Economy) में पशुधन को बेहतर ढंग से एकीकृत करके संसाधनों की मांग को कम करना।  
      • पशु अपशिष्ट से पोषक तत्वों और ऊर्जा के पुनर्चक्रण और पुनर्प्राप्ति के माध्यम से इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।  
      • निम्न मूल्य और निम्न उत्सर्जन वाले बायोमास का उपयोग करने हेतु विभिन्न स्तरों पर फसलों और कृषि-उद्योगों के साथ पशुधन का एकीकरण।

निष्कर्ष

  • इस बात को ध्यान में रखते हुए कि पर्यावरण को अब तक हो चुकी क्षति अपरिवर्तनीय है, कार्बन उत्सर्जन में भारी और तत्काल कटौती की आवश्यकता है।
  • भारत एक कृषि पर निर्भर अर्थव्यवस्था होने के कारण न तो इस प्रथा को छोड़ सकता है और न ही इससे होने वाली क्षति की अनदेखी कर सकता है। 
    • भारत को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDCs) की पूर्ति के लिये बेहतर कार्बन-कुशल दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत के ‘राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान’ (NDCs) की पूर्ति में कृषि क्षेत्र द्वारा प्रस्तुत बाधाओं की चर्चा कीजिये।