पर्यावरण प्रभाव आकलन | 20 May 2021

UNEP के अनुसार पर्यावरण प्रभाव आकलन: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) को निर्णय लेने से पूर्व किसी परियोजना के पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक प्रभावों की पहचान करने हेतु उपयोग किये जाने वाले उपकरण के रूप में परिभाषित किया जाता है।

  • पर्यावरण प्रभाव आकलन का लक्ष्य: इसका लक्ष्य परियोजना नियोजन और डिज़ाइन के प्रारंभिक चरण में पर्यावरणीय प्रभावों की भविष्यवाणी करना, प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के तरीके और साधन खोजना, परियोजनाओं को स्थानीय पर्यावरण के अनुरूप आकार देना और निर्णय निर्माताओं के लिये विकल्प प्रस्तुत करना है।

पर्यावरण प्रभाव आकलन का महत्त्व

  • यह विकास संबंधी परियोजनाओं के प्रतिकूल प्रभाव को समाप्त करने या कम करने के लिये एक लागत प्रभावी साधन प्रदान करता है।
  • यह निर्णय निर्माताओं को विकासात्मक परियोजना के लागू होने से पूर्व पर्यावरण पर विकासात्मक गतिविधियों के प्रभाव का विश्लेषण करने में सक्षम बनाता है।
  • विकास योजना में शमन रणनीतियों के अनुकूलन को प्रोत्साहित करता है।
  • यह सुनिश्चित करता है कि संबंधित विकास योजना पर्यावरण की दृष्टि से सुदृढ़ है और पारिस्थितिकी तंत्र के आत्मसात और पुनर्जनन की क्षमता की सीमा के भीतर है।

भारत में पर्यावरण प्रभाव आकलन

  • इतिहास: भारत में पर्यावरण प्रभाव आकलन की आवश्यकता सर्वप्रथम वर्ष 1976-77 में तब महसूस की गई, जब ‘योजना आयोग’ (वर्तमान नीति आयोग) ने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग को नदी-घाटी परियोजनाओं की पर्यावरणीय दृष्टि से जाँच करने को कहा।
    • पहली पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना वर्ष 1994 में तत्कालीन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (वर्तमान पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय) द्वारा प्रख्यापित की गई थी।
      • इस अधिसूचना के माध्यम से किसी भी निर्माण गतिविधि के विस्तार या आधुनिकीकरण या अधिसूचना की अनुसूची 1 में सूचीबद्ध नई परियोजनाओं की स्थापना के लिये पर्यावरण मंज़ूरी (EC) को अनिवार्य बना दिया गया।
  • कानून: भारत में पर्यावरण प्रभाव आकलन संबंधी प्रक्रिया को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 द्वारा वैधानिक रूप से समर्थन प्राप्त है, जिसमें आकलन की पद्धति और प्रक्रिया पर विभिन्न प्रावधान शामिल हैं।

पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना में 2006 का संशोधन

  • परियोजना मंज़ूरी प्रकिया का विकेंद्रीकरण: इसके तहत विकासात्मक परियोजनाओं को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया:
    • श्रेणी ‘A’ (राष्ट्रीय स्तरीय मूल्यांकन): इन विकासात्मक परियोजनाओं का मूल्यांकन ‘प्रभाव आकलन एजेंसी’ और ‘विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति’ द्वारा किया जाता है।
    • श्रेणी ‘B’ (राज्य स्तरीय मूल्यांकन): इस श्रेणी की विकासात्मक परियोजनाओं को ‘राज्य स्तरीय पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण’ (SEIAA) और राज्य ‘स्तरीय विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति’ (SEAC) द्वारा मंज़ूरी प्रदान की जाती है।
  • विभिन्न चरणों की शुरुआत: संशोधन के माध्यम से पर्यावरण प्रभाव आकलन में चार चरणों की शुरुआत की गई; स्क्रीनिंग, स्कोपिंग, जन सुनवाई और मूल्यांकन।
    • श्रेणी ‘A’ परियोजनाओं को अनिवार्य पर्यावरणीय मंज़ूरी की आवश्यकता होती है, अतः इस प्रकार उन्हें स्क्रीनिंग प्रक्रिया से नहीं गुज़रना पड़ता है।
    • श्रेणी ‘B’ परियोजनाएँ एक स्क्रीनिंग प्रक्रिया से गुज़रती हैं और उन्हें ‘B1’ (अनिवार्य रूप से पर्यावरण प्रभाव आकलन की आवश्यकता) और ‘B2’ (पर्यावरण प्रभाव आकलन की आवश्यकता नहीं) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
  • अनिवार्य मंज़ूरी वाली परियोजनाएँ: खनन, थर्मल पावर प्लांट, नदी घाटी, बुनियादी अवसंरचना (सड़क, राजमार्ग, बंदरगाह और हवाई अड्डे) जैसी परियोजनाओं और बहुत छोटे इलेक्ट्रोप्लेटिंग या फाउंड्री इकाइयों सहित विभिन्न छोटे उद्योगों के लिये पर्यावरण मंज़ूरी प्राप्त करना अनिवार्य होता है।

पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना मसौदा- 2020

  • पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत मौजूदा पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) अधिसूचना 2020 का मसौदा प्रकाशित किया है। 2020 के मसौदे के प्रमुख प्रस्तावों में शामिल हैं:
    • जन सुनवाई के लिये आवंटित समय में कटौती: पर्यावरण प्रभाव आकलन तंत्र के प्रमुख चरणों में से एक जन भागीदारी है। वर्ष 2020 में जारी मसौदे में जन सुनवाई के लिये नोटिस की अवधि को 30 दिन से घटाकर 20 दिन करने का प्रस्ताव किया गया है।
      • हालाँकि MoEFCC ने इंटरनेट और मोबाइल टेलीफोन जैसे संचार माध्यमों के के विकास को देखते हुए इसे ‘समय के अनुरूप’ होने का दावा किया है।
    • परियोजनाओं को छूट: इसके अलावा कई परियोजनाओं को ‘A’, ‘B1’ और ‘B2’ श्रेणी में वर्गीकृत करके, उन्हें सार्वजनिक जाँच से छूट प्रदान की गई है।
      • श्रेणी ‘A’ और ‘B1’ परियोजनाओं के विपरीत श्रेणी ‘B2’ परियोजनाओं को अनिवार्य पर्यावरण मंज़ूरी (EC) की आवश्यकता नहीं होती है।
      • इन परियोजनाओं में शामिल हैं:
        • अपतटीय और तटवर्ती तेल, गैस और शैल अन्वेषण।
        • 25 मेगावाट तक की जलविद्युत परियोजनाएँ।
        • 2,000 से 10,000 हेक्टेयर कमांड क्षेत्र के बीच सिंचाई परियोजनाएँ।
        • छोटे और मध्यम सीमेंट संयंत्र।
        • फॉस्फोरिक या अमोनिया एवं सल्फ्यूरिक एसिड के अलावा अन्य एसिड।
        • डाई और डाई इंटरमीडिएट, बल्क ड्रग्स, सिंथेटिक रबर, मध्यम आकार की पेंट इकाइयों में संलग्न MSMEs।
        • सभी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाएँ और 25-100 किलोमीटर के बीच राजमार्गों का विस्तार या चौड़ीकरण संबंधी परियोजनाएँ।
          • इनमें वे सड़कें भी शामिल हैं, जो जंगलों और प्रमुख नदियों से होकर गुज़रती हैं।
        • पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में हवाई रोपवे।
        • निर्दिष्ट भवन निर्माण और क्षेत्र विकास परियोजनाएँ; 1,50,000 वर्ग मीटर तक का निर्माण क्षेत्र।
  • मंज़ूरी के बाद अनुपालन: इसका तात्पर्य यह है कि एक बार संबंधित प्राधिकरण द्वारा परियोजना को मंजूरी मिलने के बाद प्रस्तावक परियोजनाओं को EIA रिपोर्ट में निर्धारित कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई और पर्यावरणीय क्षति न हो।
    • वार्षिक रिपोर्ट: नवीन EIA मसौदे में वार्षिक तौर पर अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करने का प्रस्ताव है जबकि वर्ष 2006 की अधिसूचना के अनुसार, अनुपालन रिपोर्ट हर छह महीने में प्रस्तुत की जानी थी।
      • पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि अनुपालन रिपोर्ट के लिये लंबी अवधि की अनुमति देने से परियोजना समर्थकों को विनाशकारी परिणामों को छिपाने का अवसर मिलेगा, जिन पर किसी का ध्यान नहीं जा सकता।
    • रिपोर्ट का निर्माण: अनुपालन रिपोर्ट पूरी तरह से परियोजना प्रस्तावक द्वारा ही तैयार किया जाएगा, जो बिना निरीक्षण और समीक्षा के परियोजना में प्रस्तुत गलत जानकारी का कारण बन सकता है।
    • गैर-अनुपालन के लिये कोई सार्वजनिक रिपोर्टिंग नहीं: EIA अधिसूचना 2020 में जनता द्वारा उल्लंघन और गैर-अनुपालन की रिपोर्टिंग शामिल नहीं है।
      • इसके बजाय सरकार केवल उल्लंघनकर्त्ता-प्रमोटर, सरकारी प्राधिकरण, मूल्यांकन समिति या नियामक प्राधिकरण से रिपोर्ट का संज्ञान लेगी।
    • कार्योत्तर मंज़ूरी: वर्ष 2020 के मसौदे में एक अन्य प्रमुख प्रस्ताव कार्योत्तर मंज़ूरी देना है, जहाँ एक परियोजना जो पर्यावरण मंज़ूरी मिलने से पहले ही कार्य कर रही है, को नियमित किया जा सकता है या मंज़ूरी के लिये आवेदन करने की अनुमति दी जा सकती है।
      • न्यायपालिका ने अप्रैल 2020 में ‘एलेम्बिक फार्मास्युटिकल बनाम रोहित प्रजापति’ के मामले में यह माना है कि "पर्यावरण कानून एक कार्योत्तर मंज़ूरी की धारणा को स्वीकार नहीं कर सकता है।"
    • फर्मों के लिये जुर्माना: जिन फर्मों को अपनी स्थापना की शर्तों का उल्लंघन करते हुए पाया गया और अगर उन्हें मंजूरी लेनी है, तो उन्हें जुर्माना देना होगा।

संबंधित मुद्दे:

  • नियमों के उल्लंघन की संभावनाओं को बढ़ावा देता है: पर्यावरण संबंधी वकीलों ने तर्क दिया है कि कार्योत्तर मंज़ूरी से उद्योगों को मंज़ूरी की परवाह किये बिना संचालन शुरू करने के लिये प्रोत्साहित करने की संभावना है और अंततः जुर्माना राशि का भुगतान करके नियमों के उल्लंघन की संभावनाएँ बढ़ सकती हैं।
  • सरकार को मज़बूत करता है लेकिन जनता को कमजोर करता है: मसौदे में EIA प्रक्रिया और संबंधित उद्योगों पर राजनीतिक और नौकरशाही के गढ़ के लिये किसी उपाय का प्रावधान नहीं किया गया है।
    • इसके बजाय, यह पर्यावरण की सुरक्षा में सार्वजनिक भागीदारी को सीमित करते हुए सरकार की विवेकाधीन शक्ति को बढ़ाने का प्रस्ताव करता है।
    • साथ ही, यह मसौदा सार्वजनिक परामर्श को सीमित करके, आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के साथ मेल नहीं खाता है।
  • 'रणनीतिक' परियोजनाओं के लिये आसानी से मंजूरी: जबकि राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा से संबंधित परियोजनाओं को स्वाभाविक रूप से रणनीतिक माना जाता है, सरकार को अन्य परियोजनाओं के लिये "रणनीतिक" टैग पर निर्णय लेना होता है।
  • 2020 के मसौदे में कहा गया है कि "ऐसी परियोजनाओं को सार्वजनिक डोमेन में नहीं रखा जाएगा"। यह बिना कारण बताए रणनीतिक समझी जाने वाली किसी भी परियोजना की मंज़ूरी के लिये रास्ता खोलता है।
  • समय में कटौती करना अर्थात् जागरूकता में कमी करना: सार्वजनिक सुनवाई के लिये नोटिस की अवधि को 30 दिनों से घटाकर 20 दिन करने से EIA रिपोर्ट के मसौदे का अध्ययन करना मुश्किल हो जाएगा, खासकर जब यह व्यापक रूप से या क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध न हो।
    • इसके अलावा, समय की कमी विशेष रूप से उन क्षेत्रों में एक समस्या पैदा करेगी जहाँ सूचना आसानी से उपलब्ध नहीं है या ऐसे क्षेत्र जहाँ लोग प्रक्रिया के बारे में अच्छी तरह से अवगत नहीं हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय ढाँचे और सम्मेलनों के लिये गैर-अनुरूपता: भारत का 1972 में स्टॉकहोम में मानव, पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) सम्मेलन, 1992 में रियो शिखर सम्मेलन, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) और पेरिस जलवायु समझौते में सक्रिय भागीदार रहा है तथा पर्यावरण शासन को मज़बूत किया है।
    • इन अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण उपकरणों के प्रति निष्ठा की प्रतिज्ञा करने और अब इसके विपरीत घरेलू स्तर पर अपने EIA शासन को कमजोर करने का प्रस्ताव करने के बाद भारत संज्ञानात्मक असंगति की स्थिति में है।
    • अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं और समझौतों में किये गए वादों के प्रति इस तरह की गैर-अनुरूपता पर्यावरण शासन और जलवायु राजनीति में वैश्विक नेता के रूप में भारत के रुख को कमज़ोर करेगी।

आगे की राह:

  • मंत्रालय को सार्वजनिक परामर्श के लिये समय को कम करने के बजाय सूचना तक पहुँच सुनिश्चित करने के साथ-साथ जन सुनवाई के बारे में जागरूकता और संपूर्ण EIA प्रक्रिया पर इसके प्रभाव के बारे में ध्यान देना चाहिये।
  • ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस में सुधार के लिये सरकार को पर्यावरणीय मंज़ूरी देने में औसतन 238 दिनों की देरी को कम करना चाहिये, जो नौकरशाही की देरी और जटिल कानूनों के कारण उत्पन्न होती है।