एक चीन नीति | 13 Feb 2019

चर्चा में क्यों?

  • अपने चुनाव अभियान के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘एक चीन नीति’ पर सवाल खड़े किये।
  • ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन के बुलावे को स्वीकार करके तथा टीवी और सोशल नेटवर्क साइट ट्विटर पर ‘एक चीन नीति’ पर सवाल खड़े करके ट्रंप ने संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के बीच कूटनीतिक संबंधों का रुख बदल दिया।
  • ‘एक चीन नीति’ एक नाजुक संतुलन बनाए रखने वाली नीति है जिसे चीन ने कई दशकों में कायम किया है और ट्रंप द्वारा इस पर सवाल खड़े करने से चीन द्वारा स्वाभाविक रूप से एक तीक्ष्ण प्रतिक्रिया की अपेक्षा की जा रही है जो अमेरिका का सबसे बड़ा देयता और व्यापारिक भागीदार है।
  • डोनाल्ड ट्रंप के बयान पर तीक्ष्ण प्रतिक्रिया देते हुए चीन के विदेश मंत्री ने इस बात की चेतावनी दी कि अमेरिका की एक चीन नीति में कोई भी फेरबदल वाशिंगटन और बीजिंग के बीच के संबंधों को नष्ट कर देगा।

क्या है एक चीन नीति?

  • यह चीन के उस पक्ष का कूटनीतिक समर्थन है कि विश्व में सिर्फ एक चीन है और ताइवान चीन का ही एक हिस्सा है।
  • एक नीति के तौर पर इसका अर्थ है कि ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ (चीनी जन-गणराज्य या पी.आर.सी.,जो चीन का मुख्य भू-भाग है) से कूटनीतिक संबंधों के इच्छुक देशों को ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ (चीनी गणराज्य या आरओसी यानी ताइवान) से संबंध तोड़ने होंगे।
  • इस नीति के तहत अधिकांश देशों के औपचारिक संबंध ताइवान के बजाय चीन के साथ हैं। ताइवान को चीन अपने से टूटकर अलग प्रदेश मानता है, जो एक दिन मुख्य चीन में मिल जाएगा।
  • यद्यपि ताइवान की सरकार का यह मानना है कि यह एक स्वतंत्र देश है, जो औपचारिक रूप से ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ कहा जाता है, लेकिन इस नीति (एक चीन नीति) के कारण ताइवान अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से पृथक् पड़ गया है।
  • ज्ञातव्य है कि जनवरी 2017 में ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन (Tasiing-wen) ने अमेरिकी यात्रा संपन्न की थी तो चीन ने इस पर बहुत तीव्र विरोध प्रकट किया तथा अमेरिका से बदला लेने की चेतावनी तक दे डाली।

एक चीन नीति का उद्भव

  • इस नीति की शुरुआत 1949 से होने लगी थी, जब चीनी गृहयुद्ध के पश्चात् हारी हुई सत्ताधारी राष्ट्रवादी पार्टी जिसे ‘कुओमिंतांग’ भी कहा जाता है, ताइवान लौटी और च्यांग काई शेक के नेतृत्व में वहीं ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ की स्थापना की गई। जबकि जीते हुए साम्यवादियों ने ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ की घोषणा की। दोनों पक्षों ने यह दावा किया कि वे पूर्ण चीन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • तब से चीन के सत्ताधारी कम्युनिस्ट दल ने यह धमकी दी है कि अगर ताइवान स्वयं को कभी भी औपचारिक रूप से स्वतंत्र घोषित करता है तो वह उस पर बल प्रयोग करेगा, लेकिन हालिया वर्षों में उसने इस द्वीप के साथ नर्म कूटनीतिक तरीके को अपनाया है।
  • शुरुआत में अमेरिका समेत कई देश साम्यवादी चीन के बजाय ताइवान को तरजीह देते रहे थे, लेकिन कूटनीतिक रुख तब बदलने लगा जब 1970 के दशक की शुरुआत में चीन और अमेरिका ने रिश्ते बनाने की पारस्परिक आवश्यकताओं को समझा और उसके बाद अन्य देश बीजिंग के पक्ष में ताइपेई (ताइवान की राजधानी) से रिश्ते तोड़ने लगे।
  • हालाँकि अब भी कई देश ताइवान के साथ व्यापार कार्यालयों या सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा अनौपचारिक संबंध बनाए हुए हैं और अमेरिका ताइवान का सबसे महत्त्वपूर्ण सुरक्षा और व्यापार मित्र देश है।

कौन विजेता है और कौन पराजित है?

  • बीजिंग अपने दावे को मजबूती से आगे बढ़ाने में सक्षम रहा है और इस नीति से उसको सबसे अधिक फायदा हुआ है, जिससे ताइवान कूटनीतिक रूप से कमज़ोर हो गया है।
  • विश्व के अधिकतर देशों और यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा भी ताइवान को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता नहीं दी गई है।
  • हालाँकि, ताइवान अपने पड़ोसियों के साथ काफी सजीव आर्थिक और सांस्कृतिक संबंध बनाए हुए है और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ अपने भावनात्मक रिश्तों का लाभ उठाकर कई छूटें भी प्राप्त करता है। जहाँ तक अमेरिका का संबंध है, तो हालिया घटनाओं को या तो भारी भूल कहा जा रहा है या एक कुशल रणनीतिक चाल।
  • भारी भूल इसलिये क्योंकि इससे अमेरिका और चीन के बीच दशकों से कायम कूटनीतिक संबंधों को हानि पहुँचा सकता है और कुशल रणनीतिक चाल इसलिये क्योंकि यह चीन को ताइवान और तिब्बत के साथ उसकी अविच्छेद संप्रभुता को चुनौती देकर, पीछे धकेल सकता है।

एक चीन नीति पर भारत का दृष्टिकोण

  • चीन के कई पड़ोसियों की तरह भारत ने भी हालिया वर्षों में चीनी विदेश नीति के अधिक स्वीकारात्मक और राष्ट्रवादी ब्रांड को ही अपनाया है।
  • इन द्विपक्षीय संबंधों में कई बार घर्षण उत्पन्न हुआ, जैसे–विवादित सीमाओं पर चीन द्वारा भारत में घुसपैठ करना, पाकिस्तान आधारित आतंकवादियों पर संयुक्त राष्ट्र द्वारा आरोपित प्रतिबंधों को रोकने के चीन के प्रयासों के बाद और भारतीय प्रधानमंत्री एवं दलाई लामा की अरुणाचल प्रदेश की यात्रा, जिसके अधिकतर हिस्से को चीन के द्वारा ‘दक्षिणी तिब्बत’ कहा जाता है, आदि।
  • हालिया वर्षों में भारत ने चीन के साथ अधिक व्यावहारिक रवैया प्रदर्शित किया है और चीन को यह संकेत दिया है कि यदि उसे एक चीन नीति पर भारत की स्वीकार्यता चाहिये तो चीन को कश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के ऊपर भारतीय संप्रभुता को स्वीकार करना होगा।

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के शब्दों में, ‘भारत के एक चीन नीति पर सहमत होने के लिये चीन को भी ‘एक भारत नीति’ की पुनः पुष्टि करनी होगी।’