रूस की क्रांति | 26 Dec 2020

वर्ष 1917 की रूसी क्रांति मुख्य रूप से पिछड़ी अर्थव्यवस्था, किसानों एवं मज़दूरों की दयनीय स्थिति, निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासन के अत्याचार का परिणाम थी।

रूसी क्रांति के कारण

निरंकुश राजतंत्र एवं स्वेच्छाचारी शासक

  • रूस में निरंकुश व दैवीय सिद्धांत पर आधारित शासन था जिसका संचालन कुलीन, वंशानुगत सामंत वर्ग के माध्यम से किया जाता था।
  • नौकरशाही वंशानुगत एवं भ्रष्ट थी तथा जनता का शोषण करने वाली थी।
  • जार निकोलस-I के शासनकाल में यह निरंकुशता अपने चरम पर पहुँच गई फलत: असंतोष और उग्र हो गया।

सामाजिक-आर्थिक विषमता:

  • फ्राँस की तरह यहाँ भी सामंत व पादरियों का विशेषाधिकार युक्त वर्ग तथा किसान व मज़दूरों के रूप में अधिकारहीन वर्ग मौजूद था। इनके मध्य अत्यंत तनाव व्याप्त था।
  • इस सामाजिक-आर्थिक विषमता के विरुद्ध असंतोष देखा गया।

किसानों की दयनीय स्थिति:

  • रूस में सर्वाधिक संख्या में किसान मौजूद थे किंतु उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय थी।
  • भूमि का 67% हिस्सा सामंतों के पास था तो वहीं 13% हिस्सा चर्च के पास। किसान खेतों में मज़दूरों की तरह कार्य करते थे।
  • हालाँकि वर्ष 1861 में रूस में दास प्रथा का उन्मूलन हो गया था किंतु व्यावहारिक रूप में अभी भी वह मौजूद थी।
  • इन सबके चलते किसान व मज़दूर वर्ग में भी विद्रोही भावना ने जन्म लिया।

श्रमिकों की दशा:

  • रूस में औद्योगीकरण देरी से हुआ और सीमित रहा।
  • अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी निवेश के कारण विदेशी पूंजीपतियों ने केवल मुनाफे पर ध्यान दिया। जिसकी वजह से श्रमिकों का अत्यधिक शोषण हुआ।
  • मज़दूरों के लिये न ही कार्य के घंटे निर्धारित थे और न ही न्यूनतम वेतन और सुविधाएँ।
  • प्रजातांत्रिक दल ने उन्हें संगठित कर क्रांति के लिये तैयार किया।

समाजवादी विचारधारा का प्रसार:

  • समावादी विचारधारा के प्रसार के चलते रूस में कई समाजवादी संगठन अस्तित्व में आए।
    • समाजवादी क्रांतिकारी दल: इसने कृषक हित के मुद्दों पर आवाज़ उठाकर लोकप्रियता हासिल की।
    • समाजवादी प्रजातांत्रिक दल: इसने मज़दूरों के हितों की बात की।
  • चूँकि समाजवादी विचारधारा जाति, धर्म आदि को महत्त्व नहीं देती, अत: जब जार निकोलस ने रूसी जाति पर बल देते हुए रूसीकरण की नीति अपनाई तो गैर रूसी जाति की जनता भी समाजवादी लहर में शामिल हो गई।

बौद्धिकों की भूमिका

  • गोर्की, टॉलस्टॉय जैसे विचारकों और लेखकों ने रूसी जनता को जागरूक करने का कार्य किया।
  • गोर्की ने ‘द पहर’ नामक पुस्तक के माध्यम से लोगों में राष्ट्रवादी भावना का प्रसार किया।
  • टॉलस्टॉय ने ‘वॉर एण्ड पीस’ की रचना के माध्यम से रूसी जनता में सम्मान की भावना जाग्रत की।

रूस एवं जापान युद्ध

  • जब जापान ने चीन के मंचूरिया क्षेत्र पर आक्रमण किया तो इसी दौरान रूसी सेना से उसकी भिड़ंत हुई और रूसी सेना पराजित हो गई।
  • इससे राजतंत्र की कमज़ोरी उजागर हो गई और पीड़ित जनता जार के विरुद्ध उठ खड़ी हुई।
  • सामाजिक, आर्थिक एवं सैनिक स्तर पर कमज़ोरी को दूर करने के लिये जनता ने एक प्रतिनिधि सदन ड्यूमा के गठन की मांग की।
  • अपनी मांगों के समर्थन में रूसी जनता ने पीटर्सबर्ग में शांतिपूर्ण जुलूस निकाला, जिस पर जार ने गोली चलवा दी जिससे जनता और उग्र हो गई तथा नागरिक अधिकारों हेतु जार को ड्यूमा के गठन की अनुमति देनी पड़ी।
  • ड्यूमा का अस्तित्व जार की इच्छा पर निर्भर था, अत: उसने बार-बार इसे नष्ट किया और लोकतंत्र कायम नहीं हो सका। अत: वर्ष 1905 की इस घटना को वास्तविक क्रांति नहीं कहा जा सकता।

तात्कालिक कारण

  • रूस ने साम्राज्यवादी लाभ लेने के उद्देश्य से मित्र राष्ट्रों के पक्ष में प्रथम विश्वयुद्ध में भागीदारी की। इसके चलते उसे निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ा-
    • रूस ने बड़ी मात्रा में सैनिकों की भर्ती तो की किंतु पर्याप्त मात्रा में हथियार उपलब्ध नहीं कराए और न ही वेतन दिया, इससे सैनिकों में असंतोष बढ़ो गया।
    • परिवहन के साधन युद्ध कार्यों में लगाए गए थे जिससे उद्योगों के परिचालन में बाधा उत्पन्न हुई और आर्थिक संकट उत्पन्न हुआ।
    • वर्ष 1916-17 में पड़े भीषण अकाल से खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ जिससे जनता आक्रोशित हुई तथा अंततः यह आक्रोश रूसी क्रांति में परिणत हो गया।

रूसी क्रांति के चरण

  • वर्ष 1905 की क्रांति:
    • 20वीं सदी के आरंभ में रूस पर जार निकोलस-II का शासन था। वह एक तानाशाह था, जिसकी नीतियाँ जनता के बीच लोकप्रिय नहीं थीं। जब रूस जापान से हार गया तो वर्ष 1905 में जार का विरोध चरम पर पहुँच गया।
    • 9 जनवरी 1905 को रूसी श्रमिकों का एक जत्था अपने बीबी बच्चों के साथ जार को ज्ञापन सौंपने के लिये निकला, लेकिन सेंट पीटर्सबर्ग में उन पर गोलियाँ बरसा दी गईं। यह घटना इतिहास में ‘ब्लडी सन्डे’ के नाम से जानी जाती है। हज़ारों की संख्या में लोग मारे गए और समूचे रूस में जार के विरुद्ध प्रदर्शन होने लगे।
    • जार निकोलस को समझौता करने के लिये विवश होना पड़ा और अक्तूबर घोषणा-पत्र तैयार किया गया, जिसमें एक निर्वाचित संसद (ड्यूमा) को शामिल करने की भी बात कही गई थी। हालाँकि बाद में जार अक्तूबर घोषणा-पत्र में किये गए वादों से मुकर गया।
    • जहाँ एक ओरजार अपने वादों पर टिका नहीं रह सका, वहीं ड्यूमा भी रूसी जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतर पाई। जनता की परेशानियाँ ज्यों की त्यों बनी रहीं। अतः देर-सबेर दूसरी क्रांति तो होनी ही थी और कुछ इस तरह से वर्ष 1917 की क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

अक्तूबर 1917 की रूसी क्रांति

  • मार्च 1917 आते-आते जनता की दशा अत्यंत ही दयनीय हो गई थी। उसके पास न पहनने को कपड़े थे और न खाने को अनाज था। 
  • परेशान होकर भूखे और ठंड से ठिठुरते हुए गरीब और मज़दूरों ने 7 मार्च को पेट्रोग्रेड की सड़कों पर घूमना आरंभ कर दिया। रोटी की दुकानों पर ताज़ी और गरम रोटियों के ढेर लगे पड़े थे। भूखी जनता अपने आपको नियंत्रण में नहीं रख सकी। उन्होंने बाज़ार में लूट-पाट करनी आरंभ कर दी।
  • सरकार ने सेना को उन पर गोली चलाने का आदेश दिया ताकि गोली चलाकर लूटमार करने वालों को तितर-बितर किया जा सके, किंतु सैनिकों ने गोली चलाने से साफ मना कर दिया क्योंकि उनकी सहानुभूति जनता के प्रति थी। 
  • उनमें भी क्रांति की भावना प्रवेश कर चुकी थी। जार को अपना अंत नज़दीक नज़र आने लगा। ड्यूमा ने सलाह दी कि जनतांत्रिक राजतंत्र की स्थापना की जाए, लेकिन जार इसके लिये तैयार नहीं हुआ और इस तरह से रूस से राजतंत्र का खात्मा हो गया।
  • उपरोक्त निर्णय रूस में भी पश्चिमी राज्यों की तरह प्रजातांत्रिक व पूंजीवादी शासन के संकेत दे रहे थे जबकि रूस की क्रांति मज़दूरों, कृषकों, सैनिकों द्वारा प्राप्त की गई थी। 
  • बोल्शेविक के नेतृत्त्व में इस सरकार का विरोध किया गया।
  • मज़दूर और सैनिकों ने मिलकर सोवियत का गठन किया। इस सोवियत ने ड्यूमा के साथ मिलकर अस्थायी सरकार का गठन किया तथा इसका प्रमुख करेंसकी बना जो मध्यवर्गीय हितों से परिचालित था।

रूसी क्रांति के नेतृत्त्व की स्थिति:

  • लेनिन के नेतृत्त्व में बोल्शेविकों ने करेंसकी सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन किया और सत्ता किसान एवं मज़दूरों के हाथ में देने की बात की।
  • उसके अनुसार राज्य के उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर मज़दूरों एवं किसानों का नियंत्रण होना चाहिये।
  • रूस को प्रथम विश्वयुद्ध में भागीदारी नहीं करनी चाहिये।
  • इसी क्रम में बोल्शेविकों ने सरकारी भवनों, रेलवे, बिजलीघरों में नियंत्रण कर लिया और करेंसकी को त्यागपत्र देना पड़ा तथा लेनिन के नेतृत्त्व में सर्वहारा का शासन स्थापित हुआ।

रूसी क्रांति का परिणाम

  • राजनीतिक परिणाम:
    • राजतंत्र समाप्त हुआ, सर्वहारा का शासन स्थापित हो गया।
    • रूस द्वारा पूंजीवाद व उपनिवेशवाद के स्वाभाविक विरोध के कारण उसे औपनिवेशक शोषण से मुक्ति का अग्रदूत समझा गया।
    • जर्मनी के साथ बेस्टलिटोवस्क की संधि द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध से रूस अलग हो गया।
  • आर्थिक परिणाम:
    • रूस में उत्पादन एवं वितरण के साधनों पर राज्य का नियंत्रण स्थापित।
    • चूँकि पूंजीवादी देशों से रूस को किसी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा नहीं थी, अत: वह वैज्ञानिक-तकनीकी विकास हेतु आत्मनिर्भरता के पथ पर अग्रसर हुआ।
    • रूस द्वारा नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से आर्थिक विकास करने के कारण वह वैश्विक आर्थिक मंदी से दुष्प्रभावित नहीं हुआ।
  • सामाजिक परिणाम:
    • सामंत व कुलीन वर्ग की समाप्ति।
    • चर्च के शासन की समाप्ति।
    • वर्ग भेद की समाप्ति।
    • रूस में शिक्षा का प्रसार, राज्य द्वारा 16 वर्ष की उम्र तक नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान।
    • लैंगिक भेदभाव की समाप्ति।

वर्तमान दौर में रूसी क्रांति की प्रासंगिकता

  • मार्क्स के विश्लेषणों की महत्ता आज भी बरकरार है, क्योंकि यदि विश्व की आधुनिक  पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का अध्ययन किया जाए तो यह प्रवृत्ति सामने आती है कि आर्थिक मंदी या फिर सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से रोज़गार सृजन के संभावित खतरे पूंजीवाद के कारण ही हैं। 
  • आज के पूंजीवाद यानी नव उदारवादी पूंजीवाद ने हमारे पर्यावरण को मनमानी क्षति पहुँचाई है। जलवायु परिवर्तन के कारण आज संपूर्ण मानव जाति का अस्तित्व खतरे में है। मार्क्सवाद तथा समाजवाद ही इन समस्यायों का समाधान प्रस्तुत कर सकता है और एक टिकाऊ सामाजिक व्यवस्था के निर्माण का ज़रिया बन सकता है। 

निष्कर्ष

  • विश्व में एक वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना के प्रथम प्रयास के रूप में बोल्शेविक क्रांति हमेशा एक प्रेरणास्रोत बनी रहेगी।
  • दरअसल, समाजवादी लोकतंत्र का भारत में विशेष महत्त्व है, क्योंकि आज देश और समाज के कल्याण के नाम पर व्यक्तिगत अधिकारों को दबाने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ रही है।
  • समाज के अंतिम व्यक्ति तक सरकार की पहुँच और सबको रोज़गार देने की ज़रूरत पहले भी थी और आज भी है।