भारतीय नृत्य कला (भाग 2) | 10 Sep 2019

कत्थक (उत्तर प्रदेश,जयपुर)

  • कत्थक शब्द का उदभव कथा शब्द से हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ है कथा कहना।
  • वस्तुतः कत्थक उत्तर प्रदेश की ब्रजभूमि की रासलीला परंपरा से जुड़ा हुआ है।
  • इसमें पौराणिक कथाओं के साथ ही ईरानी एवं उर्दू कविता से ली गई विषय वस्तुओं का नाटकीय प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
  • इसे ‘नटवरी’ नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
  • अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय ठाकुर प्रसाद एक उत्कृष्ट नर्तक थे, जिन्होंने नवाब को नृत्य सिखाया तथा ठाकुर प्रसाद के 3 पुत्रों बिंदादीन, कालका प्रसाद एवं भैरव प्रसाद ने कत्थक को लोकप्रिय बनाया।
  • कत्थक नृत्य की ख़ास विशेषता इसके पद संचालन और घिरनी खाने में है। इसमें घुटनों को मोड़ा नहीं जाता है।
  • इसे ध्रुपद एवं ठुमरी गायन के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
  • भारत के शास्त्रीय नृत्यों में केवल कत्थक का ही संबंध मुस्लिम संस्कृति से रहा है।

मणिपुरी नृत्य (मणिपुर)

  • यह नृत्य रूप 18वीं सदी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ।
  • इसमें शरीर धीमी गति से चलता है तथा संकेतों एवं शरीर की गतिविधियों का प्रयोग होता है।
  • इसमें भक्ति पर अधिक बल दिया गया है तथा इसमें तांडव एवं लास्य दोनों का समावेश होता है।
  • इस नृत्य की आत्मा ढोल है। इसमें मुद्राओं का सीमित प्रयोग होता है तथा नर्तक घुंघरू नहीं बांधते।
  • रवींद्रनाथ टेगोर ने इसके विकास में महती भूमिका निभाई। वे इससे बहुत प्रभावित थे तथा उन्होंने शांति निकेतन में इसका प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया।

ओडिसी नृत्य (ओडिशा)

  • ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में एक महारिस संप्रदाय हुआ करता था जो शिव मंदिरों में नृत्य करता था। कालांतर में इसी से ओडिसी नृत्य कला का विकास हुआ।
  • इस पर 12वीं शताब्दी में वैष्णववाद का भी व्यापक प्रभाव पड़ा।
  • इसे सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय नृत्यों में से एक माना जाता है।
  • इसका उल्लेख शिलालेखों पर भी मिलता है। ब्रम्हेश्वर मंदिर के शिलालेखों तथा कोणार्क के सूर्य मंदिर में इसका उल्लेख है।
  • इसमें त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। त्रिभंग में एक पाँव मोड़ा जाता है और देह को थोड़ा, किंतु विपरीत दिशा में कटि और ग्रीवा पर वक्र किया जाता है।
  • इसकी मुद्राएँ एवं अभिव्यक्तियाँ भरतनाट्यम से मिलती-जुलती हैं।

सत्रिया नृत्य (असम)

  • यह संगीत, नृत्य तथा अभिनय का सम्मिश्रण है।
  • इस नृत्य शैली के विकास का श्रेय संत शंकरदेव को जाता है।
  • शंकरदेव ने इसे “अंकिया नाट” के प्रदर्शन के लिये विकसित किया था।
  • इसमें पौराणिक कथाओं का समावेश होता है।
  • इसमें शंकरदेव द्वारा संगीतबद्ध रचनाओं का प्रयोग किया गया, जिसे बोरगीत कहा जाता है।