जलवायु परिवर्तन एवं भूमि रिपोर्ट | 05 Nov 2019

यह रिपोर्ट भू-आधारित पारिस्थितिकी प्रणालियों में ग्रीनहाउस गैस (GHG) प्रवाह, भूमि उपयोग (Land Use) और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन एवं शमन (Ldaptation and Mitigation), मरुस्थलीकरण (Desertification), भूमि निम्नीकरण (Land Degradation) तथा खाद्य सुरक्षा के संबंध में सतत भूमि प्रबंधन (Sustainable Land Management) को संबोधित करती है।

A. गर्म होते विश्व में लोग, भूमि और जलवायु

भूमि मानव आजीविका और कल्याण को प्राथमिक आधार प्रदान करती है जिसमें खाद्य आपूर्ति, स्वच्छ जल और कई अन्य पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं की आपूर्ति के साथ ही जैव विविधता प्रमुख रूप से शामिल हैं। मानव द्वारा भूमि का उपयोग वैश्विक हिम-रहित भूमि सतह के 70 प्रतिशत से अधिक (लगभग 69-76 प्रतिशत) हिस्से को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। भूमि जलवायु प्रणाली में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

  • वर्तमान में लोग भोजन, चारा, तंतु (फाइबर), लकड़ी और ऊर्जा के लिये भूमि के संभावित शुद्ध प्राथमिक उत्पादन के एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई हिस्से तक का उपयोग करते हैं।
  • एक आर्थिक दृष्टिकोण में, विश्व की स्थलीय पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं के वार्षिक मूल्य को वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के लगभग बराबर आकलित किया गया है।
  • भूमि ग्रीनहाउस गैसों (GHG) की एक स्रोत भी है और सिंक (अवशोषक) भी तथा साथ ही इसकी सतह और वायुमंडल के बीच ऊर्जा, पानी एवं एरोसोल (Aerosols) के आदान-प्रदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भूमि पारिस्थितिक तंत्र और जैव विविधता,तेज़ी से परिवर्तित हों रही जलवायु तथा मौसम एवं जलवायु की चरम स्थितियों के प्रति भिन्न-भिन्न सीमा तक संवेदनशील हैं। संवहनीय/सतत भूमि प्रबंधन पारिस्थितिकी तंत्रों और समाज पर जलवायु परिवर्तन सहित विभिन्न दबावों के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में योगदान कर सकता है।
  • वर्ष 1961 से उपलब्ध आँकड़े बताते हैं कि वैश्विक जनसंख्या वृद्धि और भोजन, चारा, फाइबर, लकड़ी तथा ऊर्जा के प्रति व्यक्ति उपभोग में परिवर्तन के कारण भूमि और ताज़े पानी के उपयोग की दर में वृद्धि हुई है इसी के चलते वर्तमान में कृषि क्षेत्र वैश्विक ताजे पानी के 70 प्रतिशत तक का उपयोग कर रहा है।
  • व्यावसायिक उत्पादन सहित कृषि और वानिकी के अंतर्गत भूमि के विस्तार तथा उन्नतशील कृषि एवं वानिकी उत्पादकता ने बढ़ती आबादी के लिये उपभोग और भोजन की उपलब्धता का समर्थन किया है।
  • वृहद क्षेत्रीय विविधता के साथ इन परिवर्तनों ने शुद्ध GHG उत्सर्जन में वृद्धि, प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों (जैसे- वन, सवाना, प्राकृतिक घास के मैदान और आर्द्रभूमि) के क्षरण और जैव विविधता में गिरावट लाने में योगदान किया है।
  • वर्ष 1961 से उपलब्ध आँकड़ों से पता चलता है कि वनस्पति तेलों और मांस की प्रति व्यक्ति आपूर्ति दोगुनी से अधिक हो गई है और प्रति व्यक्ति खाद्य कैलोरी की आपूर्ति में लगभग एक तिहाई की वृद्धि हुई है। वर्तमान में उत्पादित कुल खाद्य का 25-30 प्रतिशत भाग नष्ट या बर्बाद हो जाता है। ये कारक अतिरिक्त GHG उत्सर्जन से जुड़े हुए हैं। उपभोग प्रारूपों में परिवर्तन के कारण विश्व के लगभग 2 बिलियन वयस्क अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं, जबकि लगभग 821 मिलियन लोग अभी भी कुपोषण के शिकार हैं।
  • पृथ्वी के हिम-रहित भूमि क्षेत्र का लगभग एक-चौथाई भाग मानव-प्रेरित निम्नीकरण के अधीन है। कृषि भूमियों से मृदा अपरदन (Erosion) की दर मृदा निर्माण की दर से 10-20 गुना (जुताई रहित) अधिक है, जिसकी भविष्य में 100 गुना (पारंपरिक जुताई) तक होने की संभावना है।
  • जलवायु परिवर्तन भूमि निम्नीकरण को विशेष रूप से निम्नवर्ती तटीय इलाकों, नदी डेल्टाओं, शुष्क क्षेत्रों और स्थायी तुषार भूमि क्षेत्रों में और तेज़ करता है।
  • 1961-2013 की अवधि में शुष्क भूमि के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में वृहत अंतर-वार्षिक परिवर्तनशीलता के साथ औसतन प्रतिवर्ष 1 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है।
  • इससे प्रभावित होने वाले लोगों की सर्वाधिक संख्या दक्षिण एवं पूर्वी एशिया, उत्तरी अफ्रीका सहित सहारा क्षेत्र और अरब प्रायद्वीप सहित मध्य-पूर्व एशिया में मौजूद है।

पूर्व-औद्योगिक अवधि के बाद से भूमि सतह का वायु तापमान (Land Surface Air Temperature) वैश्विक औसत तापमान से लगभग दोगुना बढ़ गया है। मौसमी चरम घटनाओं की आवृत्ति व तीव्रता में वृद्धि के साथ जलवायु परिवर्तन ने खाद्य सुरक्षा और स्थलीय पारिस्थितिकी प्रणालियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है तथा साथ ही कई क्षेत्रों में मरुस्थलीकरण एवं भूमि निम्नीकरण में योगदान किया है।

  • पूर्व-औद्योगिक अवधि (1850-1900) के बाद से आकलित औसत भूमि सतह का वायु तापमान, वैश्विक औसत सतह (भूमि और महासागर) के तापमान (Global Mean Surface Temperature- GMST) की तुलना में काफी अधिक बढ़ गया है।
  • तापन (Warming) के परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि क्षेत्रों में ग्रीष्म लहर (Heat Waves) सहित विभिन्न ताप घटनाक्रमों की आवृत्ति और अवधि में वृद्धि हुई है। कुछ क्षेत्रों (भूमध्य सागर, पश्चिम एशिया, दक्षिण अमेरिका के कई भागों, अफ्रीका और उत्तर-पूर्वी एशिया) में सूखे की आवृत्ति एवं तीव्रता में वृद्धि हुई है और वैश्विक पैमाने पर भारी वर्षा की घटनाओं की तीव्रता में भी वृद्धि हुई है।
  • उपग्रही पर्यवेक्षणों ने पिछले तीन दशकों में एशिया, यूरोप, दक्षिण अमेरिका, मध्य उत्तरी अमेरिका और दक्षिण-पूर्वी ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों में वानस्पतिक हरियाली (Vegetation Greening) दर्शाई है। यह हरियाली विस्तारित फसल मौसम, नाइट्रोजन का जमाव, कार्बन निषेचन (CO2 Fertilisation) तथा भूमि प्रबंधन के संयोजन के परिणामस्वरूप देखी गई है।

इस रिपोर्ट में वानस्पतिक हरियाली (Vegetation Greening) को प्रकाश संश्लेषण करने वाले सक्रिय पादपों के बायोमास में वृद्धि के रूप में परिभाषित किया गया है जिसे उपग्रही पर्यवेक्षणों में देखा गया है।

इस रिपोर्ट में कार्बन डाइऑक्साइड निषेचन (CO2 Fertilization) को वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड सांद्रता की वृद्धि के परिणामस्वरूप पौधे की वृद्धि के रूप में परिभाषित किया गया है। कार्बन डाई ऑक्साइड निषेचन की मात्रा पोषक तत्त्वों और जल की उपलब्धता पर निर्भर करती है।

  • उत्तरी यूरेशिया, उत्तरी अमेरिका के कुछ हिस्सों, मध्य एशिया और कांगो बेसिन सहित कुछ क्षेत्रों में वानस्पतिक भूरापन (Vegetation Browning) देखा गया है जो मुख्यतः जल संकट (Water Stress) का परिणाम है। वैश्विक स्तर पर वानस्पतिक भूरेपन की तुलना में वानस्पतिक हरियाली अधिक बड़े क्षेत्र में विस्तृत हुई है।

इस रिपोर्ट में उपग्रही पर्यवेक्षणों से अनुमानित वानस्पतिक भूरेपन (Vegetation Browning) को प्रकाश संश्लेषण करने वाले सक्रिय पादपों के बायोमास में कमी के रूप में परिभाषित किया गया है।

  • पिछले कुछ दशकों में कई शुष्क क्षेत्रों में भूमि के उपयोग एवं भूमि आवरण परिवर्तन और जलवायु संबंधित कारकों के कारण धूल के तूफानों की आवृत्ति तथा तीव्रता में वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप अरब प्रायद्वीप और मध्य-पूर्व, मध्य एशिया के वृहत क्षेत्र में मानव स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव बढ़ रहा है।
  • ग्लोबल वार्मिंग ने विश्व के कई भू-भागों में जलवायु कटिबंधों के विस्थापन को प्रेरित किया है, जिसमें शुष्क जलवायु कटिबंध का विस्तार और ध्रुवीय जलवायु कटिबंध का संकुचन शामिल है। परिणामस्वरूप, कई पादप और जंतु प्रजातियों के अनुक्रम, संख्या में बदलाव और उनकी मौसमी गतिविधियों में परिवर्तन आया है।
  • जलवायु परिवर्तन वर्षा की तीव्रता, बाढ़, सूखे की आवृत्ति और गंभीरता, उष्णता संकट, वर्षाहीन अवधि, पवन, समुद्री जल-स्तर में वृद्धि तथा लहरों की क्रियाशीलता, स्थायी तुषार भूमि के पिघलने के साथ भूमि प्रबंधन के व्यवस्थापन से आए परिवर्तनों में वृद्धि के रूप में भूमि निम्नीकरण की प्रकिया को तेज कर सकता है। अविरत तटीय कटाव तीव्र होता जा रहा है तथा समुद्र के स्तर में वृद्धि के साथ और अधिक क्षेत्रों को अतिक्रमित कर रहा है जिससे कुछ क्षेत्रों में भूमि उपयोग संबंधित दबाव में वृद्धि हो रही है।
  • जलवायु परिवर्तन ने पहले से ही तापन, बदलते वर्षा प्रारूप और कुछ चरम घटनाओं की अधिक आवृत्ति के कारण खाद्य सुरक्षा को प्रभावित किया है। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप अफ्रीका की पशुचारण प्रणालियों में पशु वृद्धि दर और उत्पादकता में कमी आई है। इस बात के ठोस साक्ष्य प्राप्त होते हैं कि कृषि कीटों और रोगों पर भी जलवायु परिवर्तन का पर्याप्त प्रभाव पड़ रहा है जहाँ उनके संक्रमण में वृद्धि और गिरावट दोनों स्थितियाँ नज़र आई हैं।

वर्ष 2007-2016 की अवधि में कृषि, वानिकी और अन्य भूमि उपयोग संबंधित (Agriculture, Forestry and Other Land Use- AFOLU) क्रियाकलापों के चलते वैश्विक स्तर पर मानव गतिविधियों से लगभग 13 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), 44 प्रतिशत मीथेन (CH4) और 82 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) उत्सर्जन हुआ। यह ग्रीन हाउस गैसों (GHGs) के कुल शुद्ध मानवजनित उत्सर्जन के 23 प्रतिशत का प्रतिनिधित्त्व करता है (केवल कार्बन डाई ऑक्साइड, CH4 और N2O के माप के आधार पर)। यदि वैश्विक खाद्य प्रणाली [ इस रिपोर्ट में वैश्विक खाद्य प्रणाली (Global Food System) को उन सभी तत्वों (पर्यावरण, लोग, निविष्टि, प्रक्रियाएँ, अवसंरचना, संस्थान आदि) और गतिविधियों के रूप में परिभाषित किया गया है जो खाद्य के उत्पादन, प्रसंस्करण, वितरण, तैयारी और उपभोग तथा वैश्विक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय परिणामों सहित इन गतिविधियों के समस्त परिणामों से संबंधित हैं।] में पहले और बाद की उत्पादन गतिविधियों से जुड़े उत्सर्जन को भी इसमें शामिल कर लें तो यह कुल शुद्ध मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 21-37 प्रतिशत है।

  • भूमि मानवजनित और प्राकृतिक प्रेरकों, दोनों के कारण कार्बनडाइ ऑक्साइड का स्रोत और सिंक (अवशोषक) दोनों है, जिससे मानवजनित प्रवाह को प्राकृतिक प्रवाह से अलग करना कठिन हो जाता है।
  • वैश्विक मॉडल और राष्ट्रीय ग्रीन हाउस गैस सूची (National GHG Inventories) भूमि क्षेत्र के लिये मानवजनित कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन और निवारण (Removals) का अनुमान लगाने के लिये भिन्न तरीकों का प्रयोग करते हैं।
  • मीथेन की वैश्विक औसतन वायुमंडलीय सांद्रता में 1980 के दशक के मध्य से लेकर 1990 के दशक की शुरुआत के बीच लगातार वृद्धि हुई, इसके बाद 1999 तक इसमें धीमी वृद्धि हुई, 1999-2006 के बीच कोई वृद्धि नहीं हुई और इसके बाद 2007 में पुनः इसमें वृद्धि होनी शुरू हुई। वर्ष 2000 से पहले की तुलना में अब जीवजनित स्रोत मीथेन उत्सर्जन के एक बड़े अनुपात के लिये जिम्मेदार हैं। जुगाली करने वाले पशुओं (Ruminants) और चावल की खेती के विस्तार का इस बढ़ते सांद्रण में महत्त्वपूर्ण योगदान है।
  • मृदा से मानवजनित N2O उत्सर्जन प्राथमिक रूप से नाइट्रोजन अनुप्रयोग के कारण होता है।
  • वैश्विक खाद्य प्रणाली में योगदान कर रही कृषि भूमियों में और कृषि भूमि मार्ग (Farm Gate) के विस्तार से होने वाला उत्सर्जन कुल मानवजनित उत्सर्जन का 16-27 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करता है। जनसंख्या एवं आय में वृद्धि और उपभोग के प्रारूपों में परिवर्तन से प्रेरित कृषि उत्पादन से उत्सर्जन में और वृद्धि होने का अनुमान लगाया गया है।

भूमि-उपयोग या जलवायु परिवर्तन के कारण भूमि स्थितियों में होने वाला परिवर्तन वैश्विक और क्षेत्रीय जलवायु को प्रभावित करता है। क्षेत्रीय स्तर पर भूमि स्थिति में परिवर्तन तापन/वार्मिंग को कम या अधिक कर सकता है और चरम घटनाओं की तीव्रता, आवृत्ति और अवधि को प्रभावित कर सकता है।

  • पूर्व-औद्योगिक काल के बाद से मानवीय गतिविधियों के कारण भूमि आवरण में हुए परिवर्तन से कार्बन डाई ऑक्साइड के अधिक उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि हुई है जबकि वैश्विक भूमि एल्बिडो (albedo; प्रकाशानुपात भूमि का उच्च एल्बिडो निम्न एल्बिडो वाली भूमि की तुलना में अधिक आपतित सौर विकिरण को दर्शाता है) में वृद्धि से सतह शीतलन (Surface Cooling) की स्थिति उत्पन्न होती है।
  • ग्रीष्म लहर और अत्यधिक वर्षा जैसी ऊष्मन संबंधी कई चरम घटनाओं की संभावना, तीव्रता और अवधि को भूमि स्थिति में परिवर्तन से काफी हद तक संशोधित किया जा सकता है। भूमि स्थिति में परिवर्तन सैकड़ों किलोमीटर दूर के क्षेत्रों में भी तापमान और वर्षा को प्रभावित कर सकता है।
  • वनस्पति आवरण में कमी से संबद्ध कार्बन डाई ऑक्साइड निर्मुक्ति के माध्यम से, मरुस्थलीकरण ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव में वृद्धि करता है। वनस्पति आवरण में यह कमी स्थानीय एल्बिडो को बढ़ाती है, जिससे सतह शीतलन की स्थिति बनती है।
  • वनीकरण, पुनः वनरोपण और वनों की कटाई आदि के रूप में वनावरण में परिवर्तन, जल और ऊर्जा के आदान-प्रदान के माध्यम से क्षेत्रीय सतह के तापमान को प्रभावित करते हैं। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वनावरण में वृद्धि वाष्पन-उत्सर्जन (Evapotranspiration) में वृद्धि शीतलन प्रभाव को बढ़ाती है। उत्तरी और समशीतोष्ण जैसे मौसमी हिमावरण वाले क्षेत्रों में वृक्षों और झाड़ियों के आवरण में वृद्धि सतह के एल्बिडो में कमी के साथ सर्दी के मौसम में तापन प्रभाव उत्पन्न करती है।
  • वैश्विक तापन और शहरीकरण दोनों ही शहरों और उनके आसपास के क्षेत्रों में उष्णता संबंधी घटनाओं विशेष रूप से ग्रीष्म लहर के दौरान तापन में वृद्धि करते हैं। बढ़ता शहरीकरण शहर में अथवा अनुवात (Downwind) शहरी इलाकों में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं को प्रेरित कर सकता है।

जलवायु परिवर्तन भूमि पर अतिरिक्त दबाव उत्पन्न कर सकता है और आजीविका, जैव विविधता, मानव व पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य, बुनियादी ढाँचे और खाद्य प्रणालियों के समक्ष पहले से विद्यमान जोखिमों को और बढ़ाता है। भविष्य के सभी GHG उत्सर्जन परिदृश्यों में भूमि पर बढ़ते प्रभावों का अनुमान लगाया जाता है। इससे कुछ क्षेत्रों को उच्च जोखिम का सामना करना पड़ेगा जबकि कुछ क्षेत्रों को पूर्वानुमान के इतर जोखिमों का सामना करना पड़ेगा।

  • तापन में वृद्धि के साथ जलवायु कटिबंधों का मध्य और उच्च अक्षांशों में ध्रुव की ओर और आगे बढ़ने का अनुमान है। उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में वार्मिंग के प्रभावस्वरूप सूखा, जंगल की आग और कीट प्रकोप सहित उत्तरी वनों पर खतरा बढ़ने का अनुमान लगाया जाता है।
  • वैश्विक तापन का वर्तमान स्तर शुष्क भूमि में जल की कमी, मिट्टी का कटाव, वनस्पति ह्रास, जंगल की आग से क्षति, स्थायी तुषार भूमि विगलन, तटीय क्षरण और उष्णकटिबंधीय फसल की उपज में गिरावट जैसे मध्यम श्रेणी के जोखिमों से संबद्ध हैं।
    • बढ़ते तापमान के साथ जोखिमों (सोपानी जोखिमों सहित) के अधिकाधिक गंभीर होते जाने का अनुमान है। ग्लोबल वार्मिंग के लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस पर शुष्क भूमि में जल की कमी, जंगल की आग से होने वाली क्षति, स्थायी तुषार भूमि निम्नीकरण और खाद्य आपूर्ति की अस्थिरता के जोखिमों के उच्च हो जाने का अनुमान है।
    • ग्लोबल वार्मिंग के लगभग 2 डिग्री सेल्सियस पर स्थायी तुषार भूमि निम्नीकरण और खाद्य आपूर्ति की अस्थिरता के जोखिमों के अत्यंत उच्च हो जाने का अनुमान है।
    • इसके अतिरिक्त ग्लोबल वार्मिंग के लगभग 3 डिग्री सेल्सियस पर वनस्पति ह्रास, जंगल की आग से होने वाली क्षति और शुष्क भूमि में जल की कमी के जोखिमों के अत्यंत उच्च हो जाने का अनुमान है।
    • इसके साथ ही 1.5 से 3 डिग्री सेल्सियस तापन के मध्य सूखा, जल संकट, ग्रीष्म लहर जैसी उष्णता संबंधी घटनाओं और पर्यावास क्षरण के जोखिमों में एक साथ वृद्धि होगी।
  • अनुमान लगाया गया है कि एशिया और अफ्रीका (पश्चिम अफ्रीका में मरुस्थलीकरण और उपज में गिरावट से सुभेद्य लोगों की सर्वाधिक संख्या है, जबकि उत्तरी अफ्रीका जल अभावग्रस्तता के प्रति अति संवेदनशील है) में सबसे अधिक लोग बढ़ते मरुस्थलीकरण के शिकार होंगे। उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, भूमध्यसागरीय क्षेत्र, दक्षिणी अफ्रीका और मध्य एशिया क्षेत्र जंगल की आग की बढ़ती घटनाओं से प्रभावित हो सकते हैं। उष्णकटिबंधीय और उप-उष्णकटिबंधीय क्षेत्र फसल की पैदावार में गिरावट के प्रति सबसे अधिक सुभेद्य होंगे।
  • जलवायु परिवर्तन देश के अंदर और देश के बाहर पर्यावरणीय कारणों से प्रेरित प्रवासन में वृद्धि कर सकता है।

जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न जोखिम का स्तर तापन के स्तर के साथ ही जनसंख्या, उपभोग, उत्पादन, तकनीकी विकास और भूमि प्रबंधन प्रारूपों के उभार दोनों पर निर्भर करता है।

  • उपभोग प्रारूप में परिवर्तन के साथ जनसंख्या और आय में अनुमानित वृद्धि के परिणामस्वरूप वर्ष 2050 में सभी साझा सामाजिक-आर्थिक मार्ग (Shared Socioeconomic Pathways- SSPs) में खाद्य, चारे और जल की वृहत मांग उत्पन्न होगी।

साझा सामाजिक-आर्थिक मार्ग

(Shared Socioeconomic Pathways /SSPs)

इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन शमन, अनुकूलन और भूमि-उपयोग पर भविष्य के सामाजिक-आर्थिक विकास के निहितार्थों का साझा सामाजिक-आर्थिक मार्ग (SSPs) का उपयोग करके पता लगाया गया है। SSPs जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन के प्रति विभिन्न चुनौतियों को अपने दायरे में लेता है।

  1. SSP1 में जनसंख्या की शीर्ष वृद्धि और गिरावट (वर्ष 2100 में लगभग 7 बिलियन), उच्च आय और घटती असमानता, प्रभावी भूमि-उपयोग विनियमन, अल्प संसाधन-गहन उपभोग (निम्न-GHG उत्सर्जन प्रणालियों में उत्पादित खाद्य एवं खाद्य अपशिष्ट के निम्न स्तर सहित), मुक्त व्यापार और पर्यावरण के अनुकूल प्रौद्योगिकियाँ और जीवन-शैली आदि शामिल हैं। अन्य मार्गों (Pathways) की तुलना में SSP1 में शमन और अनुकूलन के प्रति निम्न चुनौतियाँ मौजूद हैं।
  2. SSP2 में मध्यम जनसंख्या वृद्धि (वर्ष 2100 में लगभग 9 बिलियन), मध्यम आय; तकनीकी प्रगति, उत्पादन और उपभोग प्रारूप के पिछले रुझानों की निरंतरता तथा असमानता में धीमी कमी शामिल हैं। अन्य मार्गों की तुलना में SSP2 में शमन और अनुकूलन के प्रति मध्यम चुनौतियाँ मौजूद हैं।
  3. SSP3 में उच्च जनसंख्या (वर्ष 2100 में लगभग 13 बिलियन), निम्न आय, निरंतर जारी असमानता, भौतिकता-गहन उपभोग और उत्पादन, व्यापार में बाधाएँ तथा तकनीकी परिवर्तन की धीमी दर शामिल हैं। अन्य मार्गों की तुलना में SSP3 में शमन के प्रति और अनुकूलन के प्रति उच्च चुनौतियाँ मौजूद हैं।
  4. SSP4 में मध्यम जनसंख्या वृद्धि (वर्ष 2100 में लगभग 9 बिलियन), मध्यम आय लेकिन क्षेत्रों के अंदर और क्षेत्रों के बीच व्यापक असमानता शामिल हैं। अन्य मार्गों की तुलना में SSP4 में शमन के प्रति निम्न चुनौतियाँ तथा अनुकूलन के प्रति उच्च चुनौतियाँ मौजूद हैं।
  5. SSP5 में जनसंख्या की शीर्ष वृद्धि और गिरावट (वर्ष 2100 में लगभग 7 बिलियन), उच्च आय तथा कम असमानता एवं मुक्त व्यापार शामिल हैं। इस मार्ग में संसाधन-गहन उत्पादन, उपभोग और जीवन शैली शामिल हैं। अन्य मार्गों की तुलना में SSP5 में शमन के प्रति उच्च चुनौतियाँ और अनुकूलन निम्न चुनौतियाँ मौजूद हैं।

SSPs को प्रतिनिधि एकाग्रता मार्ग RCPs (Representative Concentration Pathways;RCPs) के साथ जोड़ा जा सकता है जो अनुकूलन निहितार्थ के साथ शमन के विभिन्न स्तरों को सूचित करता है। इस प्रकार SSPs विभिन्न SSP-RCP संयोजनों द्वारा अनुमानित वैश्विक औसत सतह तापमान वृद्धि के विभिन्न स्तरों के अनुरूप हो सकते हैं।

B. अनुकूलन और शमन प्रतिक्रिया विकल्प

कई भूमि संबंधी प्रतिक्रियाएँ जो जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और शमन में योगदान करती हैं, वे मरुस्थलीकरण और भूमि निम्नीकरण की रोकथाम के साथ खाद्य सुरक्षा में वृद्धि भी कर सकती हैं। भूमि संबंधी प्रतिक्रियाओं की क्षमता और अनुकूलन एवं शमन पर सापेक्षिक बल देना संदर्भ विशिष्ट है, जिसमें समुदायों और क्षेत्रों की अनुकूलन क्षमता शामिल है। यद्यपि भूमि संबंधी प्रतिक्रिया विकल्प अनुकूलन और शमन में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं, लेकिन अनुकूलन के मार्ग में कुछ बाधाएँ भी हैं और वैश्विक शमन में उनके योगदान की अपनी सीमाएँ हैं।

  • प्रतिक्रिया विकल्पों का सफल कार्यान्वयन स्थानीय पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के विवेचन पर निर्भर करता है। मृदा कार्बन प्रबंधन जैसे कुछ विकल्प सक्षमतापूर्वक भूमि उपयोग प्रकारों की एक विस्तृत श्रृंखला पर लागू होते हैं, जबकि जैविक मृदा, पीटभूमि और आर्द्रभूमि ताजे जल संसाधनों से संबंधित भूमि प्रबंधन अभ्यासों की प्रभावकारिता विशिष्ट कृषि-पारिस्थितिक स्थितियों पर निर्भर करती है। भूमि निम्नीकरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality) की प्राप्ति कृषि, चरागाह, वन और जल सहित विभिन्न क्षेत्रों में स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न प्रतिक्रियाओं के एकीकरण पर निर्भर करती है।
  • मृदा या वनस्पतियों में कार्बन प्रच्छादन (Carbon Sequestration) करने वाले वनीकरण, पुनः वनरोपण, कृषि-वानिकी, खनिज मृदा पर मृदा कार्बन प्रबंधन अथवा लकड़ी उत्पादों में कार्बन भंडारण जैसे भूमि आधारित विकल्प अनिश्चित काल तक के लिये कार्बन प्रच्छादन जारी नहीं रखते हैं, जबकि पीटभूमि सदियों तक कार्बन प्रच्छादन जारी रख सकती हैं। जब वनस्पति परिपक्व होती है या जब वनस्पति और मृदा कार्बन संग्रहण संतृप्त स्तर तक पहुँच जाता है, तब वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड की वार्षिक निर्मुक्ति शून्य की ओर घटती जाती है, जबकि कार्बन भंडार को बनाए रखा जा सकता है। लेकिन वनस्पति और मिट्टी में संचित कार्बन के भविष्य में क्षति (या सिंक व्युत्क्रमण) का खतरा है, जो बाढ़, सूखा, आग, कीट प्रकोप या भविष्य के खराब प्रबंधन जैसी स्थितियों से प्रेरित हो सकता है।

अधिकांश आकलित प्रतिक्रिया विकल्प सतत विकास और अन्य सामाजिक लक्ष्यों में सकारात्मक योगदान देते हैं। कई प्रतिक्रिया विकल्प बिना भूमि प्रतिस्पर्द्धा के भी कार्यान्वित किए जा सकते हैं और कई सह-लाभ (Co-benefits) प्रदान करने की क्षमता रखते हैं।

  • भूमि के लिये प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि नहीं करने वाले अधिकांश भूमि प्रबंधन-आधारित प्रतिक्रिया विकल्प और मूल्य श्रृंखला प्रबंधन (जैसे आहार विकल्प, कटाई के बाद के नुकसान को कम करना, खाद्य की बर्बादी कम करना) एवं जोखिम प्रबंधन पर आधारित लगभग सभी विकल्प बेहतर स्वास्थ्य व कल्याण, स्वच्छ जल,स्वच्छता, जलवायु कार्यवाही और भूमि पर जीवन को प्रोत्साहन देते हुए निर्धनता उन्मूलन तथा भुखमरी की समाप्ति में योगदान कर सकते हैं।

यद्यपि अधिकांश प्रतिक्रिया विकल्प उपलब्ध भूमि के लिये प्रतिस्पर्द्धा किये बिना कार्यान्वित किए जा सकते हैं, कुछ विकल्प भूमि रूपांतरण की मांग में वृद्धि कर सकते हैं। यदि इसे कुल भूमि के सीमित हिस्से पर लागू किया जाता है और सतत प्रबंधित भूदृश्यों में एकीकृत किया जाता है, तो इसके कम प्रतिकूल दुष्प्रभाव होंगे और कुछ सकारात्मक सह-लाभ भी पाए जा सकते हैं।

  • जैव ऊर्जा (Bioenergy) के लिये बायोमास के उत्पादन और उपयोग के सह-लाभ, प्रतिकूल दुष्प्रभाव एवं भूमि निम्नीकरण के खतरे, खाद्य असुरक्षा, GHG उत्सर्जन तथा अन्य पर्यावरणीय एवं सतत विकास लक्ष्य के जोखिम हो सकते हैं।
    • ये प्रभाव संदर्भ विशिष्ट हैं और प्रस्तरण, प्रारंभिक भूमि उपयोग, भूमि के प्रकार, जैव उर्जा फीडस्टॉक, प्रारंभिक कार्बन भंडार, जलवायु क्षेत्र एवं प्रबंधन शासन पर निर्भर करते हैं; और अन्य भूमि मांग रखने वाले अन्य प्रतिक्रिया विकल्पों के भी यही परिणाम सामने आ सकते हैं।
    • जैव उर्जा फीडस्टॉक के रूप में अवशेषों और जैविक अपशिष्टों का उपयोग जैव ऊर्जा प्रस्तरण के साथ जुड़े भूमि उपयोग परिवर्तन दबाव को कम कर सकता है, चूँकि अवशेष सीमित होते हैं और अवशेषों को हटाना, जो अन्यथा मृदा में ही छोड़ दिये जाते हैं, मृदा निम्नीकरण का कारण बन सकते हैं।

मरुस्थलीकरण पर रोकथाम की कई गतिविधियाँ शमन सह-लाभों के साथ जलवायु परिवर्तन अनुकूलन में योगदान कर सकती हैं, साथ ही समाज को सतत विकास सह-लाभ प्रदान करते हुए जैव विविधता की हानि को रोक सकती हैं। मरुस्थलीकरण को टालने, उसमें कमी लाने और उसके व्युत्क्रमण से मिट्टी की उर्वरता बढ़ेगी, मृदा और बायोमास में कार्बन भंडारण में वृद्धि होगी, जबकि कृषि उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा को लाभ पहुँचेगा। अवशिष्ट जोखिम और दूरनुकूलक (Maladaptive) परिणामों की संभावना के कारण निम्नीकृत भूमि की पुनर्स्थापना के प्रयास से अधिक बेहतर होगा कि मरुस्थलीकरण की रोकथाम की जाए।

  • वे समाधान जो मरुस्थलीकरण से निपटने में योगदान करते हुए जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन में सहायता करते हैं, स्थान एवं क्षेत्र विशिष्ट होते हैं और इनमें अन्य बातों के साथ-साथ जल संचयन एवं सूक्ष्म सिंचाई, पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त सूखा-प्रत्यास्थी पौधों का उपयोग कर निम्नीकृत भूमि की पुनर्बहाली तथा कृषि-वानिकी और अन्य कृषि-पारिस्थितिक (Agroecological) एवं पारिस्थितिकी तंत्र-आधारित अनुकूलन अभ्यास शामिल हैं।
  • धूल एवं रेत के तूफानों और रेत के टीलों के प्रसार को कम करने से पवन अपरदन के नकारात्मक प्रभाव कम हो सकते हैं तथा वायु की गुणवत्ता एवं स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है।
    • जल की उपलब्धता और मिट्टी की स्थिति के अनुरूप वनीकरण, वृक्षारोपण तथा पारिस्थितिकी तंत्र बहाली कार्यक्रम, जो देशी एवं कम जल आवश्यकता वाले जलवायु-प्रत्यास्थी वृक्ष प्रजातियों के उपयोग से ‘ग्रीन वाल’ (Green Walls) और ‘ग्रीन डैम’ (Green Dams) के रूप में पवन-अवरोधकों के निर्माण का लक्ष्य रखते हैं, धूल के तूफानों को कम करने के साथ ही पवन अपरदन पर नियंत्रण और कार्बन सिंक में योगदान कर सकते हैं, जबकि इसके साथ-साथ सूक्ष्म पर्यावरण, मृदा पोषक तत्व और जल अवधारण क्षमता में भी सुधार करेंगे।
  • मरुस्थलीकरण पर रोकथाम के उपाय मृदा में कार्बन प्रच्छादन (Carbon Sequestration) को बढ़ावा दे सकते हैं। प्राकृतिक वनस्पतियों की पुनर्बहाली और निम्नीकृत भूमि पर वृक्षारोपण दीर्घावधि में ऊपरी मृदा (Topsoil) और अवभूमि (Subsoil) में कार्बन की अधिवृद्धि करते हैं।
  • निर्धनता उन्मूलन और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चितता को मुक्त भूमि, फसल भूमि और वनों में भूमि निम्नीकरण तटस्थता (Land Degradation Neutrality) इसमें मरुस्थलीकरण को टालना, कमी करना और व्युत्क्रमण शामिल हैं, का प्रसार करने वाले उन उपायों का भी लाभ मिल सकता है जो मरुस्थलीकरण की रोकथाम में योगदान करते हैं, जबकि सतत विकास ढाँचे के अंदर जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन में भी योगदान करते हैं। इस तरह के उपायों में निर्वनीकरण और मुक्त भूमि व जंगल की आग के प्रबंधन सहित स्थानीय रूप से अनुकूल अभ्यासों को टालना शामिल हैं।
  • वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और मरुस्थलीकरण के संयुक्त प्रभावों के संबंध में अनुकूलन सीमा तथा संभावित कुप्रभाव की जानकारी का अभाव है। नए या संवर्धित अनुकूलन विकल्पों की अनुपस्थिति में, अवशिष्ट जोखिमों और विषम-अनुकूलित (Maladaptive; पर्यावरण या स्थिति से उपयुक्त रूप से समंजित न होना) परिणामों की संभावना अधिक होती है।
    • सिंचाई के कारण मिट्टी की लवणता में वृद्धि या अधिक निकासी से भू-जल में कमी जैसे कुछ पर्यावरणीय प्रभावों के कारण कुछ अनुकूलन विकल्प विषम-अनुकूलित (maladaptive) बन सकते हैं।
    • मरुस्थलीकरण के चरम रूपों के कारण भूमि उत्पादकता पूर्ण रूप से समाप्त हो सकती है, अनुकूलन विकल्प सीमित हो सकते हैं या अनुकूलन सीमितता तक पहुँच सकती है।
  • स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों और प्रौद्योगिकियों के विकास तथा उन तक पहुँच को प्रोत्साहन देना जलवायु परिवर्तन के शमन और उसके प्रति अनुकूलन में योगदान कर सकता है। ऊर्जा आपूर्ति की विविधता में वृद्धि के साथ पारंपरिक बायोमास के उपयोग में कमी मरुस्थलीकरण और वन निम्नीकरण की रोकथाम कर सकती है। इससे विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों को सामाजिक-आर्थिक और स्वास्थ्य लाभ प्राप्त हो सकते हैं। पवन और सौर ऊर्जा अवसंरचना की दक्षता अभिज्ञात है, हालाँकि यह दक्षता धूल और रेत के तूफानों से कुछ क्षेत्रों में प्रभावित हो सकती है।

सतत वन प्रबंधन सहित सतत भूमि प्रबंधन, भूमि निम्नीकरण की रोकथाम एवं उसमें कमी ला सकता है, यह भूमि उत्पादकता को बनाए रखेगा और कभी-कभी भूमि निम्नीकरण पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को उलट भी सकता है। यह शमन तथा अनुकूलन में भी योगदान दे सकता है। निजी खेतों से लेकर समग्र वाटरशेड तक के पैमाने पर भूमि के निम्नीकरण को कम करना और उसे उत्क्रमित (reversing) कर समुदायों को लागत प्रभावी, त्वरित और दीर्घकालिक लाभ प्रदान किया जा सकता है और इसके साथ ही अनुकूलन और शमन के सह-लाभों सहित कई सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को समर्थन देगा। सतत भूमि प्रबंधन के कार्यान्वयन के साथ कुछ स्थितियों में अनुकूलन की सीमितता के पार भी जाया जा सकता है।

उत्पादन से उपभोग तक (खाद्य हानि और अपशिष्ट सहित) समग्र खाद्य प्रणाली में प्रतिक्रिया विकल्पों को कार्यान्वित किया जा सकता है तथा अनुकूलन एवं शमन को बढ़ावा देने के लिये इन्हें आगे बढ़ाया जा सकता है।

  • फसल भूमि में जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और शमन में योगदान करने वाले अभ्यासों में मृदा कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि करना, अपरदन नियंत्रण, बेहतर उर्वरक प्रबंधन, बेहतर फसल प्रबंधन जैसे-धान व चावल प्रबंधन और ताप एवं सूखा सहिष्णुता के लिये किस्मों और आनुवंशिक सुधारों का उपयोग करना शामिल है। विभिन्न प्रकार की खेती तथा पशुचारण प्रणाली पशुधन उत्पादों की उत्सर्जन तीव्रता में कमी ला सकती है।
  • कई पशुधन संबंधी विकल्प ग्रामीण समुदायों , विशेष रूप से छोटे किसानों और पशुपालकों की अनुकूलन क्षमता को बढ़ा सकते हैं। अनुकूलन और शमन के बीच उल्लेखनीय सामंजस्य पाया जाता है, उदाहरण के लिये सतत भूमि प्रबंधन दृष्टिकोणों के माध्यम से यह सामंजस्य बनाए रखना संभव है।
  • खाद्य हानि और अपशिष्टों को कम करने से ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन कम हो सकता है और यह खाद्य उत्पादन के लिये आवश्यक भूमि क्षेत्र में कमी लाने के माध्यम से अनुकूलन में योगदान कर सकता है। उन्नत फसल कटाई तकनीक, खेत में भंडारण, बुनियादी ढाँचे, परिवहन, पैकेजिंग, खुदरा क्षेत्र जैसे तकनीकी विकल्प और शिक्षा आपूर्ति श्रृंखला में खाद्य हानि और अपशिष्ट को कम कर सकते हैं।

भविष्य का भूमि उपयोग अंशतः वांछित जलवायु परिणाम और प्रसारित किये गए प्रतिक्रिया विकल्पों की श्रेणी पर निर्भर करता है। सभी निर्धारित मॉडल मार्ग (Modelled Pathways) जो तापन को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे तक सीमित करते हैं, भूमि-आधारित शमन एवं भूमि-उपयोग परिवर्तन की आवश्यकता है और उनमें से अधिकांश में पुनः वनरोपण, वनीकरण, निर्वनीकरण में कमी तथा जैव ऊर्जा के विभिन्न संयोजन शामिल किये गए हैं। कुछ ही मॉडल मार्ग भूमि रूपांतरण में कमी के साथ 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करते हैं और इस प्रकार वे मरुस्थलीकरण, भूमि निम्नीकरण एवं खाद्य सुरक्षा संबंधी परिणामों में कमी लाते हैं।

C. प्रतिक्रिया विकल्पों को सक्षम करना

सभी पैमानों पर नीतियों, संस्थानों और शासन प्रणालियों का उपयुक्त डिज़ाइन भूमि-संबंधी अनुकूलन और शमन में योगदान कर सकता है, जबकि साथ ही जलवायु-अनुकूल विकास मार्गों की तलाश को अवसर दे सकता है। पारस्परिक रूप से सहायक जलवायु और भूमि नीतियों में संसाधनों की बचत, सामाजिक लचीलेपन में वृद्धि करने, पारिस्थितिक पुनर्स्थापना का समर्थन करने और विभिन्न हितधारकों के बीच संलग्नता और सहयोग को बढ़ावा देने की क्षमता है।

  • भूमि-उपयोग क्षेत्रीकरण, स्थानिक योजना, एकीकृत भूदृश्य योजना, विनियमन, प्रोत्साहन (जैसे पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये भुगतान) और स्वैच्छिक या प्रेरक साधन (जैसे पर्यावरणीय कृषि नियोजन, संवहनीय उत्पादन के लिये मानक एवं प्रमाणन, वैज्ञानिक, स्थानीय एवं स्वदेशी ज्ञान का उपयोग और सामूहिक कार्यवाही) सकारात्मक अनुकूलन और शमन परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।
  • भूमि नीतियाँ (प्रथागत भू-स्वामित्व को मान्यता, सामुदायिक मानचित्रण, पुनर्वितरण, विकेंद्रीकरण, सह-प्रबंधन, किराये बाज़ारों का विनियमन सहित) जलवायु परिवर्तन को सुरक्षा और प्रत्यास्थी प्रतिक्रिया, दोनों प्रदान कर सकती हैं।
  • भूमि निम्नीकरण तटस्थता की प्राप्ति में उपायों का एक संतुलन शामिल होगा जो भूमि निम्नीकरण को टालता हो और उसमें कमी लाता हो और ऐसा सतत भूमि प्रबंधन के अभिग्रहण और उन उपायों के माध्यम से होगा जो पुनर्वास और पुनर्स्थापन द्वारा भूमि निम्नीकरण की स्थिति को पलट देंगे। भूमि निम्नीकरण तटस्थता की तलाश भूमि निम्नीकरण और जलवायु परिवर्तन को एक साथ संबोधित करने की प्रेरणा प्रदान करती है।

समग्र खाद्य प्रणाली हेतु प्रवर्तन नीतियाँ, जिनमें वे नीतियाँ भी शामिल हैं जो खाद्य हानि और अपशिष्ट को कम करती हैं और आहार विकल्पों को प्रभावित हैं, अधिक सतत भूमि-उपयोग प्रबंधन, परिष्कृत खाद्य सुरक्षा और निम्न उत्सर्जन प्रक्षेप पथ को सक्षम करती हैं। इस तरह की नीतियाँ जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन में योगदान कर सकती हैं, भूमि निम्नीकरण, मरुस्थलीकरण और गरीबी को कम कर सकती हैं तथा साथ ही सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार ला सकती हैं। बाज़ारों तक पहुँच में सुधार, भू-स्वामित्व की सुरक्षा, खाद्य में पर्यावरणीय लागत को कम करने, पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं के लिये भुगतान और स्थानीय एवं सामुदायिक सामूहिक कार्यवाही की वृद्धि द्वारा सतत भूमि प्रबंधन और निर्धनता उन्मूलन सक्षम किया जा सकता है।

  • भूमि निम्नीकरणकारी कृषि पद्धतियों की पर्यावरणीय लागतों पर विचार करना अधिक सतत भूमि प्रबंधन को प्रोत्साहित कर सकता है।
  • खाद्य प्रणालियों को प्रभावित करने वाली चरम घटनाओं के प्रति अनुकूलन और अधिक लचीलेपन को जोखिम साझाकरण और हस्तांतरण तंत्र सहित व्यापक जोखिम प्रबंधन द्वारा सुगम बनाया जा सकता है।
  • पोषण में सुधार के लिये सार्वजनिक खरीद में खाद्य स्रोतों की विविधता में वृद्धि, स्वास्थ्य बीमा, वित्तीय प्रोत्साहन और जागरूकता प्रसार अभियान जैसी सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियाँ भोजन की मांग को प्रभावित कर सकती हैं, स्वास्थ्य देखभाल की लागत को कम कर सकती हैं, GHG उत्सर्जन में कमी ला सकती हैं और अनुकूलन क्षमता को बढ़ा सकती हैं।

भूमि और खाद्य नीतियों का निर्माण करते समय सह-लाभों और दुविधाओं (Trade-offs) की पहचान कर लेना कार्यान्वयन अवरोधों को दूर कर सकता है। सुदृढ़ बहुस्तरीय, उन्नत और बहुक्षेत्रीय शासन के साथ-साथ पुनरावृत्ती, सुसंगत, अनुकूली और प्रत्यास्थी तरीके से विकसित तथा अपनाई गई नीतियाँ सह-लाभों को अधिकतम जबकि हानि को न्यूनतम कर सकती हैं। चूँकि भूमि प्रबंधन का निर्णय खेत-स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक लिया जाता है और जलवायु एवं भूमि नीतियाँ, दोनों प्रायः कई क्षेत्रों, विभागों और एजेंसियों तक व्याप्त होती हैं।

  • मरुस्थलीकरण, भूमि निम्नीकरण और खाद्य सुरक्षा को एकीकृत, समन्वित और सुसंगत तरीके से संबोधित करना जलवायु प्रत्यास्थी विकास में सहायता कर सकता है तथा कई संभावित सह-लाभ प्रदान कर सकता है।
  • कई सतत भूमि प्रबंधन प्रथाओं को असुरक्षित भू-स्वामित्व, संसाधनों और कृषि सलाहकार सेवाओं तक पहुँच की कमी, अपर्याप्त एवं असमान निजी एवं सार्वजनिक प्रोत्साहन तथा ज्ञान एवं व्यावहारिक अनुभव की कमी के कारण व्यापक रूप से नहीं अपनाया जाता है।
  • भूमि और खाद्य क्षेत्र संस्थागत विखंडन की विशेष चुनौतियों का सामना करते हैं और प्रायः अलग-अलग पैमानों पर हितधारकों के बीच संलग्नता की कमी और संकीर्ण दृष्टिकोण केंद्रित नीति उद्देश्यों से ग्रस्त होते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवहन, पर्यावरण, जल, ऊर्जा और बुनियादी ढाँचे जैसे अन्य क्षेत्रों के साथ समन्वय, जोखिम में कमी और बेहतर स्वास्थ्य जैसे सह-लाभों को बढ़ा सकता है।
  • ट्रेड-ऑफ/ सामंजस्य के सफल प्रबंधन में प्रायः संरचित फीडबैक प्रक्रियाओं के साथ हितधारक आगत (इनपुट) को अधिकतम करना विशेष रूप से समुदाय-आधारित मॉडल में, सुविधाजनक संवादों या स्थानिक रूप से स्पष्ट मानचित्रण जैसे नवोन्मेषी मंच का उपयोग करना और पुनरावृत्तीय अनुकूली प्रबंधन (Iterative Adaptive Management), जो नए साक्ष्यों के उभरने पर नीति में निरंतर पुनरावृत्ति का अवसर देता है, शामिल होते हैं।

भूमि-आधारित जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन के लिये नीति साधनों के चयन, मूल्यांकन, कार्यान्वयन और निगरानी में स्थानीय हितधारकों (विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील मूल निवासी एवं स्थानीय समुदाय, महिलाएँ, गरीब एवं वंचित) की संलग्नता से निर्णयन और शासन की प्रभावशीलता की वृद्धि होती है। विभिन्न क्षेत्रों के बीच और वृहत पैमाने पर एकीकरण सह-लाभों को अधिकतम करने और ट्रेड ऑफ को न्यूनतम करने की संभावना में वृद्धि करता है।

  • नीतिगत साधनों का प्रदर्शन के मूल्यांकन, रिपोर्टिंग और सत्यापन में समाविष्टि सतत भूमि प्रबंधन का समर्थन कर सकती है। संकेतकों का चयन, जलवायु डेटा संग्रह, भूमि मॉडलिंग और भूमि उपयोग योजना में हितधारकों को संलग्नता एकीकृत भूदृश्य योजना और नीति चयन को अवसर प्रदान करता है।
  • जलवायु परिवर्तन, खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता संरक्षण और मरुस्थलीकरण एवं भूमि निम्नीकरण रोकथाम की संयुक्त चुनौतियों पर काबू पाने में स्वदेशी और स्थानीय ज्ञान शामिल करने वाली कृषि पद्धतियाँ योगदान कर सकती हैं।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति महिलाओं की विषम संवेदनशीलता के कारण, भूमि प्रबंधन और भू-स्वामित्व में उनका समावेशन अवरुद्ध है। भूमि अधिकारों तथा सतत भूमि प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी के अवरोध की समस्या पर ध्यानाकर्षण करने वाली नीतियों में निर्धनता-उन्मूलन कार्यक्रमों के दायरे में महिलाओं को वित्तीय हस्तांतरण, महिलाओं के लिये स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण पर व्यय, महिलाओं के वित्तीय मौजूदा समुदाय-आधारित संस्थाओं के माध्यम से रियायती ऋण और कार्यक्रमों का प्रसार शामिल है।

D. निकट अवधि में कार्यवाही

मरुस्थलीकरण, भूमि निम्नीकरण और खाद्य सुरक्षा पर ध्यान देने के लिये मौजूदा ज्ञान के आधार पर निकट अवधि में कार्यवाही की जा सकती है, जबकि जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन तथा इसके शमन के लिये दीर्घावधिक प्रतिक्रियाओं को समर्थन देना होगा। इसके अंतर्गत व्यक्तिगत और संस्थागत क्षमता का निर्माण, ज्ञान हस्तांतरण में तेजी लाना, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और तैनाती में वृद्धि करना, वित्तीय तंत्र को सक्षम करना, पूर्व चेतावनी प्रणाली लागू करना, जोखिम प्रबंधन को लागू करना और कार्यान्वयन व उन्नयन में अंतराल को संबोधित करना आदि प्रक्रियाएं शामिल हैं।

  • निकट-अवधि क्षमता-निर्माण, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एंव परिनियोजन और वित्तीय तंत्र को सक्षम करना भूमि क्षेत्र में अनुकूलन तथा शमन को मज़बूत कर सकता है। ज्ञान एवं प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एक परिवर्तित होती जलवायु के अंदर खाद्य सुरक्षा के लिये प्राकृतिक संसाधनों के सतत उपयोग को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है।
  • भूमि निम्नीकरण और मरुस्थलीकरण सहित भूमि उपयोग परिवर्तन के मापन और निगरानी को नई सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकियों के विस्तृत उपयोग (सेलफोन आधारित अनुप्रयोग, क्लाउड आधारित सेवाएँ, धरातल सेंसर, ड्रोन चित्रण), जलवायु सेवाओं के उपयोग तथा भूमि संसाधनों पर दूरस्थ संवेदी भूमि व जलवायु सूचना का सहयोग प्राप्त है। खाद्य सुरक्षा ( कमी/दुर्भिक्ष )और जैव-विविधता के लिये मौसमी पूर्वानुमान और पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ महत्त्वपूर्ण हैं।
  • जोखिम प्रबंधन विशेष रूप से भूमि के संदर्भ में कृषि भूमि प्रबंधन भूदृश्य दृष्टिकोण, कीटों और रोगों के प्रकोपों ​पर जैविक नियंत्रण तथा जोखिम साझाकरण एवं हस्तांतरण तंत्र में सुधार के माध्यम से अनुकूलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
  • उभरते प्रतिक्रिया विकल्पों की प्रभावकारिता, सह-लाभ और जोखिमों के संबंध में आँकड़े तथा सूचनाओं की उपलब्धता व पहुँच में वृद्धि करके भूमि उपयोग की प्रभावकारिता बढ़ाकर सतत भूमि प्रबंधन में सुधार लाया जा सकता है। कुछ प्रतिक्रिया विकल्प (जैसे- संशोधित मृदा कार्बन प्रबंधन) केवल छोटे पैमाने पर प्रदर्शन सुविधाओं हेतु कार्यान्वित किए जा रहे हैं और इन विकल्पों के व्यापक कार्यान्वयन व उन्नयन के साथ ज्ञान, वित्तीय एवं संस्थागत अंतराल और चुनौतियाँ बनी हुई हैं।

जलवायु परिवर्तन अनुकूलन और शमन, मरुस्थलीकरण, भूमि निम्नीकरण तथा खाद्य सुरक्षा पर ध्यान देने से निकट अवधि में की जाने वाली कार्यवाही सामाजिक, पारिस्थितिक, आर्थिक एवं विकास के सह-लाभ प्रदान कर सकती है। ये सह-लाभ निर्धनता उन्मूलन और संवेदनशील लोगों के लिये अधिक प्रत्यास्थ आजीविका में योगदान कर सकते हैं।

  • सतत भूमि प्रबंधन, गरीबी उन्मूलन के प्रयासों, बाजार तक पहुँच, गैर-बाजार तंत्र और निम्न-उत्पादक कार्यप्रणाली उन्मूलन के बीच एक सहक्रिया/तालमेल है। इस सहक्रियता को अधिकतम करने से पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों और सेवाओं के संरक्षण के माध्यम से अनुकूलन, शमन तथा विकासपरक सह-लाभ की ओर आगे बढ़ सकते हैं।
  • भूमि पुनर्स्थापन में निवेश वैश्विक लाभ में परिणत हो सकता है और शुष्क क्षेत्रों में पुनर्स्थापित पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के अनुमानित आर्थिक मूल्य के संदर्भ में 3-6 का लाभ-लागत अनुपात प्राप्त हो सकता है। कई सतत भूमि प्रबंधन प्रौद्योगिकियाँ और कार्यप्रणाली 3 से 10 वर्षों के अंदर लाभदायक बन जाती हैं।

महत्त्वाकांक्षी शमन मार्गों के अनुसरण से सभी क्षेत्रों में मानवजनित GHG उत्सर्जन में तेजी से कमी भूमि पारिस्थितिकी तंत्र और खाद्य प्रणालियों पर जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करती है। विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु शमन और अनुकूलन प्रतिक्रियाओं में देरी के कारण भूमि पर नकारात्मक प्रभाव बढ़ेगा और सतत विकास की संभावना कम होगी।