‘‘यदि आज़ादी और समानता, जैसा कि कुछ लोग समझतें हैं, मुख्यत: प्रजातंत्र में पाई जानी है तो वह तभी प्राप्त की जा सकती है, यदि लोग समान रूप से सरकार में अधिकतम हिस्सा लें।’’
अरस्तू (Aristotle)
1. पारदर्शिता
2. जवाबदेही
3. पूर्वानुमान
4. भागीदारी
1. भारतीय दंड संहिता का अध्याय 6 और 7
2. विदेशी भर्ती अधिनियम, 1874
3. अधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923
4. आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1938
5. आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1961
6. अवैध कार्यकलाप (रोकथाम) अधिनियम, 1967
1. ‘जासूूसी’ अथवा किसी निषिद्ध स्थान पर प्रविष्टि आदि, गुप्त सूचना का परपोषण अथवा संग्रह अथवा ऐसे ही कार्यकलाप
2. विनिर्दिष्ट किस्म की गुप्त सूचना का गलत संप्रेषण, अथवा प्राप्ति
3. जासूसों को पनाह देना
4. वर्दियों का अनाधिकृत उपयोग, रिपोर्टों की जालसाज़ी, ताकि किसी निषिद्ध स्थान पर प्रवेश किया जा सके अथवा राज्य की सुरक्षा के लिये हानिकारक कोई प्रयोजन
5. निषिद्ध स्थान के निकट, पुलिस अथवा सेना के साथ दखल।
1. अधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923 को निरस्त किया जाना चाहिये और इसे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के एक अध्याय के रूप में प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये, जिसमें अधिकारिक गुप्तता से संबंधित प्रावधान शामिल किये जाएँ।
2. नए कानून में विद्यमान धारा 5 के समक्ष, शौरी समिति द्वारा की गई सिफारिश के अनुसार हो सकती है।
शौरी समिति ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 123 और 124 की भी जाँच की और संशोधनों का सुझाव दिया।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 123 में संशोधन किया जाए।
तद्नुसार सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Code of Civil Procedure) और दंड प्रक्रिया संहिता 1973 (Indian Penal Code) में उपयुक्त स्थान पर निम्नलिखित शामिल करना होगा:
पद का कार्यभार सँभालते समय एक केंद्रीय मंत्री को निम्न प्रकार गुप्तता की शपथ दिलाई जाती है:
राज्य सरकार में मंत्री भी ऐसी ही शपथ लेता है।
संविधान के कार्यकरण की समीक्षा करने के लिये राष्ट्रीय आयोग (एन.सी.आर.डब्ल्यू.सी) का, सूचना के अधिकार की जाँच करते समय निम्नलिखित कथन है: ‘‘वस्तुत: हमें गुप्तता की शपथ की बजाय पारदर्शिता की शपथ लेनी चाहिये।’’
1. सार्वजनिक मामलों में परादर्शिता के महत्त्व की पुष्टि के रूप में मंत्रिगण, पदभार सँभालने के समय पद की शपथ लेने के साथ पारदर्शिता की शपथ लें तथा गुप्तता की शपथ लेने की आवश्यकता का परित्याग किया जाना चाहिये। अनुच्छेद 75(4) और 164(3) तथा तृतीय अनुसूची में उपयुक्त रूप में संशोधन किया जाना चाहिये।
2. राष्ट्रीय हित के विरुद्ध जानकारी के प्रकटन के विरुद्ध सुरक्षोपाय की व्यवस्था, अधिकारिक गुप्तता के साथ डील करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में एक धारा जोड़कर लिखित वचन के माध्यम से की जा सकती है।
अधिनियम की धारा 24 के अनुसार इस अधिनियम में दी गई कोई बात, केंद्रीय सरकार द्वारा स्थापित संगठन होने के नाते अथवा ऐसे संगठनों द्वारा सरकार को प्रस्तुत कोई सूचना द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट आसूचना और सुरक्षा संगठनों पर लागू नहीं होगी।
1. सशस्त्र सेनाओं को अधिनियम की द्वितीय अनुसूची में सम्मिलित किया जाना चाहिये।
2. अधिनियम की द्वितीय सूची की समय-समय पर समीक्षा की जानी चाहिये।
3. द्वितीय अनुसूची में सूचीबद्ध सभी संगठनों को PIO नियुक्त करने हैं। PIO के आदेशों के विरुद्ध अपील CIC/SIC के पास फाइल की जानी चाहिये (धारा 30 के अंतर्गत कठिनाइयों को दूर करके यह व्यवस्था की जा सकती है)।
अधिनियम के अंतर्गत अधिकारों के प्रवर्तन और दायित्वों की पूर्ति के उद्देश्य से संस्थानों का निर्माण सूचना का आयोजन और एक समर्थनकारी परिवेश कायम करना महत्त्वपूर्ण है। इसलिये आयोग ने पहले कदम के रूप में अधिनियम के कार्यान्वयन के संबंध में अभी तक किये गए उपायों की समीक्षा की है, जो निम्न प्रकार है:
a. सूचना आयोग
b. सूचना अधिकारी तथा अपीलीय प्राधिकरण
a. धारा 4 के अंतर्गत स्वमेव घोषणा
b. सार्वजनिक हित प्रकटन
c. अभिलेख पालन को आधुनिक बनाना
धारा 7(3)(ख) के साथ पठित धारा 19(1) का अर्थ प्रत्येक लोक सूचना अधिकारी (Public Information Officer-PIO) के लिये एक अपीलीय प्राधिकारी का पद नामित करना होता है, तथापि कानून में अपीलीय प्राधिकारियों के मनोनयन के लिये विशिष्ट रूप से कोई व्यवस्था नहीं है, जैसा कि PIO के मामले में है। परिणामस्वरूप अपीलीय प्राधिकारियों के निर्धारण के बारे में परिहार्य भ्रम है। इस त्रुटि को सुधारे जाने की ज़रूरत है।
1. एक से अधिक PIO वाली मंत्रालयों/विभागों/एजेंसियों/कार्यालयों को एक नोडल सहायक लोक सूचना अधिकारी नियुक्त करना चाहिये, जिसे सभी PIO की ओर से सूचना के लिये अनुरोध प्राप्त करने का अधिकार हो। समुचित सरकारों द्वार नियमों में ऐसा प्रावधान शामिल किया जा सकता है।
2. केंद्रीय सचिवालयों मे PIO कम-से-कम उप सचिव/निदेशक स्तर का होना चाहिये। राज्य सचिवालयों में ऐसे ही रैंक के अधिकारियों को PIO के रूप में अधिसूचित किया जा सकता है। सभी अधीनस्थ एजेंसियों और विभागों में रैंक में पर्याप्त रूप से वरिष्ठ अधिकारियों को, किंतु जो जनता के लिये सुलभ हों, PIO के रूप में पदनामित किया जा सकता है।
3. सभी सरकारी प्राधिकारियों को भारत सरकार द्वारा सलाह दी जा सकती है कि लोक सूचना अधिकारियों के साथ-साथ अपलीय प्राधिकारी पदनामित किये जा सकते हैं।
4. प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकारी के लिये अपीलीय प्राधिकारियों का मनोनयन और अधिसूचना या तो नियमों के तहत अथवा अधिनियम की धारा 30 का इस्तेमाल करके की जा सकती है।
a. राजभाषा में मुद्रित और समूल्य प्रकाशन के रूप में भी स्वमेव प्रकटन उपलब्ध होने चाहिये, जिन्हें समय-समय पर संशोधित किया जाए (वर्ष में कम-से-कम एक बार)। संदर्भ हेतु ऐसे प्रकाशन नि:शुल्क उपलब्ध होने चाहिये। जहाँ तक इलेक्ट्रॉनिक प्रकटनों (Electronic Disclosure) का संबंध है, NIC को एकल पोर्टल की व्यवस्था करनी चाहिये, जिसके माध्यम से समुचित सरकारों के अधीन सभी सरकारी प्राधिकरणों के प्रकटन सुलभ हो सकें, ताकि सूचना की सहज उपलब्धता सुनिश्चित हो सके।
b. सरकारी अभिलेख कार्यालयों (Public Records Offices) की स्थापना, इस समय अभिलेख पालन में लगी अनेक एजेंसियों का एकीकरण और पुनर्गठन छ: महीनों के अंदर भारत सरकार तथा सभी राज्यों के अंदर एक स्वतंत्र प्राधिकरण के रूप में किया जाना चाहिये। यह कार्यालय सरकारी अभिलेखों के प्रबंधन में तकनीकी तथा व्यावसायिक विशेषज्ञता का एक संग्रह स्थल होगा। यह सभी सरकारी कार्यालयों में अभिलेख पालन के पर्यवेक्षक, मॉनीटरन, नियंत्रण और निरीक्षण के लिये ज़िम्मेदार होगा।
c. एक बार के उपाय के रूप में भारत सरकार सभी भू अभिलेखों के सर्वेक्षण और उन्नयन हेतु एक भू अभिलेख आधुनिकीकरण कोष (Land Records Modernisation Fund) की स्थापना कर सकती है। प्रत्येक राज्य के लिये सहायता की मात्रा क्षेत्र की स्थिति का आकलन करने पर आधारित होगी।
a. प्रशिक्षण कार्यक्रम मात्र PIO और APIO तक सीमित न रखे जाएँ। सभी सरकारी कार्यकर्ताओं को एक वर्ष में ‘सूचना का अधिकार’ के संबंध में कम-से-कम एक दिन का प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये। इन प्रशिक्षण कार्यक्रमों को प्रत्येक ब्लॉक में एक विकेंद्रीकृत ढंग से आयोजित किया जाना चाहिये। प्रत्येक ज़िले में मास्टर प्रशिक्षकों के एक बैंच के साथ प्रपाती मॉडल अपनाया जा सकता है।
b. समुचित सरकारों को निर्धारित समयावधि के दौरान गाइड और व्यापक सूचना सामग्री प्रकाशित करनी चाहिये।
c. CIC और SIC को सरकारी प्राधिकारियों के लाभार्थ और विशेष रूप से सरकारी अधिकारियों के लिये तथा सामान्य रूप से जनता के लिये अधिनियम की मुख्य अवधारणाओं और जानकारी अनुरोधों की प्रतिक्रिया में अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण के संबंध में ऊपर वर्णित ‘जागरूकता मार्गदर्शन शृंखला’’ (Awareness Guidance Series) की तरह ही मार्गनिर्देश जारी करने चाहिये।
a. CIC और SIC को सभी सरकारी प्राधिकरणों में ‘सूचना का अधिकार’ के प्रभावी कार्यान्वयन की निगरानी का कार्य सौंपा जा सकता है। (कठिनाइयों को दूर करने के उपाय के रूप में धारा 30 के अंतर्गत समुचित प्रावधान किये जा सकते हैं।)
b. क्योंकि क्षेत्रीय, राज्य, ज़िला और उप ज़िला स्तर पर बड़ी संख्या में सरकारी प्राधिकरण मौजूद हैं। इसलिये जहाँ कहीं आवश्यक हो, अधिनियम के कार्यान्वयन की निगरानी करने के लिये समुचित निगरानी प्राधिकरण (Appropriate Monitoring Authority-CIC/SIC) द्वारा एक नोडल अधिकारी विनिर्धारित किया जाना चाहिये।
c. मूख्य सूचना आयुक्त की अध्यक्षता में, नोडल केंद्रीय मंत्रालय, SIC तथा राज्यों के प्रतिनिधियों के साथ, सदस्यों के रूप में ‘राष्ट्रीय समन्वय समिति (NCC)’ गठित की जा सकती है। कठिनाइयों को दूर करने के उपाय के रूप में धारा 30 के अंतर्गत इस संबंध एक प्रावधान किया जा सकता है। राष्ट्रीय समन्वय समिति के निम्नलिखित कार्य होंगे:-
1. अधिनियम के प्रभावी कार्यान्वयन के लिये एक राष्ट्रीय मंच के रूप में कार्य करना।
2. भारत में व अन्यत्र उत्तम प्रथाओं को प्रलेखबद्ध व प्रसारित करना।
3. ‘सूचना के अधिकार’ के लिये एक राष्ट्रीय पोर्टल के सृजन और कार्यकरण की निगरानी करना।
4. अधिनियम के अंतर्गत समुचित सरकारों द्वारा जारी नियमों और कार्यकारी आदेशों की समीक्षा करना।
5. अधिनियम के कार्यान्वयन का प्रभाव मूल्यांकन आयोजित करना।
6. ऐसे अन्य संगत कार्य निष्पादित करना, जो आवश्यक समझे जाएँ।
RTI अधिनियम का कार्यान्वयन एक प्रशासनिक चुनौती है, जिसने अनेक संरचनात्मक क्रियाविधिक और संभारतंत्रीय मुद्दे तथा समस्याएँ पैदा की हैं, जिनका प्रारंभ में ही समाधान किये जाने की ज़रूरत है। आयोग ने कार्यान्वयन में कुछ समस्या वाले क्षेत्रों का विनिर्धारण किया है और इन पर चर्चा तथा सिफारिशें की गई है।
1. अनुरोध स्वीकार किये जाने की जटिल पद्धति
2. डिमांड-ड्राफ्टों पर ज़ोर दिया जाना
3. डाक द्वारा आवेदन-पत्र भेजने में कठिनाइयाँ
4. आवेदन फीस की भिन्न-भिन्न और प्राय: ऊँची दर
5. PIO की अधिक संख्या
a. अदायगी की विद्यमान विधियों के अतिरिक्त समुचित सरकारों को नियमों में संशोधन करना चाहिये, ताकि पोस्टल ऑर्डरों के माध्यम से अदायगी को शामिल किया जा सके।
b. राज्यों से आवेदन फीस के संबंध में ऐसे नियम तैयार करने के लिये कहा जाए, जो केंद्रीय नियमों के साथ सामंजस्यपूर्ण हों। यह सुनिश्चित किये जाने की ज़रूरत है कि फीस एक हतोस्साहन न बन जाए।
c. समुचित सरकारें फीस की संरचना (अतिरिक्त फीस सहित) 5/- रुपए के गुणकों में निर्धारित कर सकती है (उदाहरणार्थ, 2/- रुपए प्रति अतिरिक्त फीस निर्धारित करने की बजाय प्रत्येक 3 पृष्ठों अथवा उसके भाग के लिये 5/- रुपए की फीस निर्धारित करना वांछनीय हो सकता है)।
d. फीस की अदायगी की एक विधि के रूप में राज्य सरकारें उपयुक्त मूल्यवर्ग के उचित स्टांप जारी कर सकती हैं। ऐसे स्टांपों का उपयोग, राज्य सरकारों के क्षेत्राधिकार के अंदर सरकारी प्राधिकारियों के समक्ष आवेदन प्रस्तुत करने के लिये किया जा सकता है।
e. चूँकि देश में डाकघरों को केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों की ओर से APIO के रूप में कार्य करने के लिये प्राधिकृत कर दिया गया है। इसलिये उन्हें भी फीस नकद रूप में स्वीकार करने और आवेदन-पत्र के साथ रसीद भेजने के लिये प्राधिकृत किया जा सकता है।
अधिनियम में सार्वजनिक प्राधिकारियों की परिभाषा दी गई है, जिनमें बड़ी संख्या में संस्थान और एजेंसियाँ सम्मिलित हैं। सूचना प्राप्त करने के सभी सार्वजनिक प्राधिकारियों की एक सूचीबद्ध और अनुक्रमणित सूची उपलब्ध कराना आवश्यक है। संघीय पद्धति वाले विशाल तथा विविधतापूर्ण देश में सभी सार्वजनिक प्राधिकारियों की सूची तैयार करना एक असामान्य कार्य है। इसलियें, सभी सार्वजनिक प्राधिकारियों की एक तालिका तैयार करने के लिये एक प्रतिलोमित वृक्ष अवधारणा का पालन किया जा सकता है।
a. भारत सरकार के स्तर पर कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग को RTI अधिनियम के कार्यान्वयन हेतु नोडल विभाग के रूप में विनिश्चित किया गया है। इस नोडल विभाग में उन सभी केंद्रीय मंत्रालयाें/विभागों की एक पूर्ण सूची होनी चाहिये, जो सार्वजनिक प्राधिकरणों के रूप में कार्य करते हैं।
b. प्रत्येक मंत्रालय/विभाग में सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों की एक विस्तृत सूची होनी चाहिये, जो उसके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आते हैं। प्रत्येक मंत्रालय/विभाग के अधीन आने वाले सार्वजनिक प्राधिकरणों को वर्गीकृत किया जाना चाहिये:
(i) संवैधानिक निकाय
(ii) एक समान एजेंसियाँ
(iii) सांविधिक निकाय
(iv) सरकारी क्षेत्र के उपक्रम
(v) कार्यकारी आदेशों के तहत कायम निकाय
(vi) स्वामित्व, नियंत्रित अथवा पर्याप्त रूप से वित्त पोषित निकाय
(vii) सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्त पोषित NGO
प्रत्येक श्रेणी के अंतर्गत सभी सार्वजनिक प्राधिकारियों की अद्यतन सूची रखी जानी चाहिये।
c. प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण में तत्काल अगले स्तर पर इसके अधीन सभी सरकारी प्राधिकरणों का विवरण होना चाहिये। इन सभी विवरणों को क्रमानुसार रूप में संबंधित सार्वजनिक प्राधिकरणों की वेबसाइट पर उपलब्ध कराया जाना चाहिये।
d. राज्यों द्वारा भी ऐसी ही पद्धति अपनाई जानी चाहिये।
अधिनियम के अंतर्गत एक सार्वजनिक प्राधिकरण के रूप में श्रेणीकृत किये जाने के लिये किसी गैर-सरकारी निकाय को सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्त पोषित किया जाना ज़रूरी है, किंतु ‘पर्याप्त रूप से वित्त पोषित’ (Substaintially Financed) की कोई परिभाषा नहीं है।
a. ऐसे संगठन, जो सार्वजनिक प्रकृति के कार्य निष्पादित करते हैं, जिन्हें सामान्य रूप से सरकार द्वारा अथवा उसकी एजेंसियों द्वारा निष्पादित किया जाता है और जिन्हें स्वभावत: एकाधिकार प्राप्त है, को इस अधिनियम के अंतर्गत लाया जा सकता है।
b. जिस किसी संस्थान अथवा निकाय को अपने वार्षिक कामकाज लागत का 50% अथवा पिछले तीन वर्षों में पिछले किसी एक वर्ष में एक करोड़ रुपए के बराबर अथवा उससे अधिक राशि प्राप्त हुई हो तो उसे उस अवधि के लिये और ऐसे वित्त पोषण को प्रयोजनार्थ ‘पर्याप्त निधियन’ (Substantial Funding) प्राप्त होना समझा जाएगा।
c. कोई जानकारी, जिसे सरकार द्वारा धारित किया जाए, कानून के तहत ऐसे प्रकटन के अधीन (Subject to) होगी, ऐसे प्रकटन के अध्यधीन (Subject to) रहने चाहिये चाहे उसे किसी गैर-सरकारी निकाय अथवा संस्थान को हस्तांरित किया जाए।
d. इसे अधिनियम की धारा 30 के तहत कठिनाइयों को दूर करने के ज़रिये प्राप्त किया जा सकता है।
बीस वर्ष की एक समान सीमा कुछ अवसरों पर सार्वजनिक अधिकारियों और साथ ही आवेदकों के लिये समस्या खड़ी कर सकती है। पर्याप्त प्रतिशतता में ऐसे अभिलेख होते हैं, जो प्रकृति में स्थायी होते है। इनमें राज्य भू-राजस्व विभाग, भू-रजिस्टर और उप-रजिस्टर महत्त्वपूर्ण न्यायालय निर्णय, विभिन्न सार्वजनिक प्राधिकरणों के नीतिगत निर्णयों से संबंधित महत्त्वपूर्ण फाइलें, जन्म और मृत्यु पंजीकरण आदि शामिल हैं। ऐसे मामलों में ऐसी घटनाओं के संबंध में अनुरोध प्राप्त होते हैं, जो 20 वर्ष से भी ज्यादा पुरानी हो सकती हैं।
a. अनुरोध पर 20 वर्ष पुराने अभिलेख उपलब्ध कराए जाने का निर्धारण केवल उन सार्वजनिक अभिलेखों पर लागू किया जाना चाहिये, जिन्हें ऐसी अवधि के लिये रखा जाना आवश्यक हो। अन्य सभी अभिलेखों के संबंध में उपलब्धता की अवधि सीमित होगी, जिस अवधि के लिये अभिलेख पालन प्रक्रियाओं के तहत उन्हें संरक्षित रखा जाना चाहिये।
b. यदि किसी सार्वजनिक प्राधिकरण का इरादा उस अवधि को कम करने का हो, जिस तक किसी श्रेणी के अभिलेख को रखा जाना है तो वह सार्वजनिक अभिलेख कार्यालय की सहमति प्राप्त करके ऐसा कर सकता है।
c. इन सिफारिशों को अधिनियम की धारा 30 के तहत आने वाली कठिनाइयों को दूर करके कार्यान्वित किया जा सकता है।
a. विधानमंडलों के अभिलेखों की अनुक्रमणिका (Index) और सूची पत्र (Catalog sheet) तैयार करने के लिये एक ऐसी पद्धति कायम की जानी चाहिये, जिससे सहज सुलभता सुनिश्चित हो। यह सभी अभिलेखों को डिजिटलीकृत करके तथा स्पष्ट खोज़ों पर आधारित अभिलेखों की पुन: प्राप्ति की सुविधाओं के साथ नागरिकों को सुलभता प्रदान करके सर्वोत्तम ढंग से प्राप्त किया जा सकता है।
b. एक निगरानी पद्धति विकसित किये जाने की ज़रूरत है, ताकि कार्यपालिका शाखा द्वारा (CAG) जाँच आयोगों और सदन की समितियों जैसी विभिन्न रिपोर्टों के संबंध में की गई कार्रवाई, विधायकों और जनता को ऑनलाइन उपलब्ध हो सके।
c. विधायी समितियों के कामकाज को जनता के लिये खोल दिया जाना चाहिये। समिति का पीठासीन अधिकारी, राज्य अथवा गुप्तता के हित में आवश्यक होने पर गुप्त रूप से कार्यवाही कर सकता है।
d. ज़िला न्यायालयाें और अधीनस्थ न्यायालयों मे अभिलेखों को अनुक्रमणिका और सूचीपत्र तैयार करने के संबंध में एकसमान मानदंड अपनाकर वैज्ञानिक ढंग से भंडारित किया जाना चाहिये।
e. ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में प्रशासनिक प्रक्रियाओं को एक समयबद्ध ढंग से कंप्यूटरीकृत किया जाना चाहिये। ये प्रक्रियाएँ पूर्ण रुप से सार्वजनिक क्षेत्र में होनी चाहिये।
आयोग ने कुछ प्रारंभिक कठिनाइयों को रेखांकित किया गया है, जो अधिनियम के सुचारू कार्यान्वयन में बाधक हो सकती हैं।
(i) दूसरी अनुसूची (Second Schedule) में सूचीबद्ध सभी संगठनों को PIOs की नियुक्ति करनी होगी। PIOs के आदेशों के विरुद्ध CIC/SICs में अपील की जा सकती है।
(ii) RTI अधिनियम के तहत छूटों के अंतर्गत वार्षिक गोपनीय रिपोर्टों, परीक्षा प्रश्न पत्रों और संबद्ध मामलों को सम्मिलित करने के लिये प्रावधान किया जाना चाहिये।
(iii) प्रत्येक सरकारी प्राधिकरण (Public Authority) के संबंध में अपीलीय प्राधिकारी (Appellate Authority) के पदनाम और अधिसूचना के लिये व्यवस्था करनी होगी।
(iv) CIC और SICs को सभी सरकारी प्रधिकारणों में सूचना का अधिकार अधिनियम के कार्यान्वयन की प्रभावी निगरानी का काम सौंपा जाना चाहिये।
(v) नोडल केंद्रीय मंत्रालय, SICs और राज्यों के प्रतिनिधियों के सदस्य के रूप में मुख्य सूचना अधिकारी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समन्वय समिति (National Coordination Commitee-NCC) गठित की जा सकती है। कठिनाइयों को दूर करके इस संबंध में अधिनियम की धारा 30 के अंतर्गत प्रावधान किया जाना चाहिये।
(vi) गैर-सरकारी संगठनों पर अधिनियम के लागू होने के संबंध में निम्नलिखित मानदंडों को अपनाया जा सकता है:
1. वे संगठन जो सामान्यत: सरकार द्वारा निष्पादित किये जाने वाले कार्यों को करते हैं तथा जिन्हें स्वभावत: एकाधिकार प्राप्त है, उन्हें अधिनियम के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत लाया जाना चाहिये।
2. इसके लिये मानदंड निर्धारित किये जाने चाहिये कि कोई भी संस्थान अथवा निकाय, जिसे अपनी वार्षिक प्रचालन लागत का कम से कम 50% अथवा पिछले तीन वर्षों में से किसी एक वर्ष में एक करोड़ रुपए के बराबर अथवा उससे अधिक राशि प्राप्त हुई है, उसे इस निधियन की अवधि और प्रयोजन के लिये सरकार से ‘पर्याप्त निधियन’ (Substantial Funding) प्राप्त हुआ समझा जाना चाहिये।
3. ऐसी कोई सूचना, जो सरकार द्वारा धारित की गई हो, कानून के अंतर्गत प्रकटन के अध्यधीन होगी, ऐसे प्रकटन के अध्यधीन रहनी चाहिये, चाहे उसे किसी गैर-सरकारी निकाय अथवा संस्थान को हस्तांतरित कर दिया जाए।
(vii) अनुरोध पर 20 वर्ष पुराने रिकॉर्ड उपलब्ध कराने की शर्त केवल उन सरकारी रिकॉर्डों पर लागू होगी, जिन्हें ऐसी अवधि के लिये परिरक्षित रखे जाने की ज़रूरत हो। उपलब्धि की अवधि उस अवधि तक सीमित होगी, जिस अवधि के लिये उसे अभिलेख पालन प्रक्रियाओं (Record Keeping Procedures) के तहत परिरक्षित किया जाना चाहिये।
यदि किसी सरकारी प्राधिकरण का इरादा उस अवधि को कम करने का हो, जिसके लिये रिकॉर्ड को रखा जाना है तो वह ऐसा CIC/SICs की सहमति प्राप्त करने के बाद जैसा भी मामला हो, करेगा।
(viii) सूचना की मनाही करने की व्यवस्था की जा सकती है। यदि अनुरोध पर कार्यवाही करने में अंतर्निहित कार्य के फलस्वरूप पर्याप्त और अनावश्यक रूप से सरकारी प्राधिकरण के संसाधनों का विचलन होगा।
शर्त यह है कि ऐसी मनाही आवेदन-पत्र प्राप्त होने के 15 दिन के अंदर अपीलीय प्राधिकारी के पूर्व अनुमोदन के साथ संप्रेषित की जाएगी।
यह भी शर्त है कि ऐसी सभी मनाही CIC/SICs को हस्तांतरित हो जाएगी, जैसा भी मामला हो और CIC/SICs मामलों का निपटान इस प्रकार करेगा, जैसे कि वह सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 19(3) के अंतर्गत कोई अपील हो।
1. सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 हमारी अधिशासन प्रणाली में आमूल बदलाव का संकेत देता है तथा यह राज्य की सभी एजेंसियों को स्थायी रूप से प्रभावित करता है। इस कानून का प्रभावी कार्यान्वयन तीन मूलभूत बदलावों पर निर्भर करता है: गुप्तता की विद्यमान पद्धति की ओर वैयक्तिक निरंकुशता से जवाबदेही के साथ प्राधिकार की ओर और एकपक्षीय निर्णय निर्माण से भागीदारीपूर्ण अधिशासन की ओर। स्पष्ट है कि कोई एक कानून सभी चीजों को नहीं बदल सकता, किंतु यह अत्युत्तम विधान एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत है। इसे प्रभावी ढंग से लागू करना मुख्य रूप से सृजित संस्थानों, शीघ्रतापूर्ण परंपराओं और प्रथाओं, कानूनों और प्रक्रियाओं में परिणामी परिवर्तनों और लोगों व सहकारी सेवकों की पर्याप्त भागीदारी पर निर्भर करता है। इसलिये आयोग ने मुद्दों की दो स्थूल श्रेणियों पर बल दिया।
a. मुद्दो का पहला सैट अन्य कानूनों और प्रथाओं में परिवर्तन सें संबंधित है, जिनके अंतर्गत राज्य गुप्तताएँ, सिविल सेवा आचरण नियम और दस्तावेज़ों का वर्गीकरण सम्मिलित है। आयोग को यह विश्वास है कि वर्तमान रूप में अधिकारिक गुप्तता अधिनियम, 1923 पुरातन तथा उभरती ज़रूरतों के लिये अनुपयुक्त है।
b. मुद्दों का दूसरा सैट RTI अधिनियम के कार्यान्वयन से संबंधित है, विशेष रूप से प्रक्रिया इंजीनियरिंग, अभिलेख पालन, प्रकटन, सुलभता और निगरानी दूसरी श्रेणी के मुद्दों के संबंध में आयोग की सिफारिशें मुख्यत: वर्तमान कानून की रूपरेखा के अंदर हैं।
2. सूचना का अधिकार अधिशासन सुधारने के लिये आवश्यक है, किंतु पर्याप्त नहीं। अधिशासन में जवाबदेही पैदा करने की ज़रूरत है, जिसमें भेद खोलने वालों को संरक्षण प्रदान करना, शक्ति का विकेंद्रीकरण और सभी स्तरों पर जवाबदेही के साथ प्राधिकार का प्रसार शामिल है। फिर भी इस कानून से हमें अधिशासन की प्रक्रिया पर विशेष रूप से आधारभूत स्तर, जहाँ नागरिकों की अन्योन्य-क्रिया अधिकतम होती है, पर फिर से गौर करने का बहुमूल्य अवसर प्राप्त होता है।