नैतिकता और राजनीति | 17 Apr 2019

जहाँ राजनीति में नैतिकता की दृष्टि से एक दोषयुक्त वातावरण में पूर्णता की आशा करना अवास्तविक और एकतरफा होगा, वहीं दूसरी ओर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति में जो मानदंड स्थापित किये गए हैं, वे शासन के अन्य पहलुओं पर महत्त्वपूर्ण असर डालते हैं।

राजनीति का अपराधीकरण - ’अपराधियों का चुनाव प्रक्रिया में भाग लेना’ - यह हमारी निर्वाचन व्यवस्था का एक नाज़ुक अंग बन गया है। समाज में अपराध और हिंसा (कई क्षेत्रों में ’माफिया’ को उकसानेे वाले बिंदु तक) में वृद्धि होने के अनेक मूल कारण हैं। कानूनों की अनदेखी, सेवाओं की खराब गुणवत्ता और उनमें विद्यमान भ्रष्टाचार, कानून तोड़ने वालों का राजनीतिक, वर्ग, श्रेणी, संप्रदाय या जाति के आधार पर संरक्षण, अपराधों की जाँच में पक्षपातपूर्ण हस्तक्षेप, मामलों का धीमा अभियोजन, न्यायिक प्रक्रिया में वर्षों का असाधारण विलंब और ऊँची लागत, असंख्य मामलों का वापस लिया जाना पैरोल की अंधाधुंध मंज़ूरी आदि ऐसे कारण हैं जो अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

चुनावों में बड़ी संख्या में गैर-कानूनी और अनुचित धन का व्यय भ्रष्टाचार का एक और मूल कारण है। यद्यपि चुनाव में खर्च करने की औपचारिक सीमा है और उस पर अंकुश लगाने के लिये कुछ कदम उठाए गए हैं, फिर भी वास्तव में यह खर्च बहुत अधिक मात्रा में किये जाने का आरोप है।

साफ-सुथरे ढंग से किये जाने वाले चुनाव राजनीति में नैतिक मूल्यों में वृद्धि करने, भ्रष्टाचार रोकने और प्रशासन को सही ढंग से सुव्यवस्थित करने के लिये एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मार्ग हैं।

हाल ही में किये गए सुधार

  • निर्वाचन नामावलियों की परिशुद्धता में सुधार
  • उम्मीदवारों के पूर्ववृत्तों का ब्योरा देना
  • दंडित अपराध के दोषी लोगों की अयोग्यता
  • आचार संहिता का प्रवर्तन करना
  • स्वतंत्र तथा निर्भीक चुनाव
  • मंत्रिपरिषद के आकार को कम करना [संविधान (91वाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 मंत्रिपरिषद के आकार को संसद के निचले सदन/राज्य विधानमंडल की संख्या के 15% तक प्रतिबंधित करता है। यह संशोधन मंत्रियों की संख्या को कुछ सीमा तक सामान्य रखने हेतु एक कदम है।]

राजनीतिक सुधारों के मुद्दे

  • राजनीतिक कोषों में सुधार: भारत में राजनीतिक दलों को धन उपलब्ध कराने के स्रोतों में निजी दान भी एक स्रोत है। अंतर्राष्ट्रीय रूप से राजनीतिक दलों के लिये राज्य धन के कोष के लिये तीन मुख्य सोपान हैं। पहला है, अत्यन्त ही कम सोपान, जहाँ पर सामान्यतः विशिष्ट अनुदानों या राज्य द्वारा दी गई सेवाओं के माध्यम से चुनावों में आंशिक रूप से आर्थिक सहायता दी जाती है। संयुक्त राष्ट्र, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड और कनाडा इस सोपान के उदाहरण हैं, जबकि संयुक्त राज्य इनसे भिन्न है जहाँ चुनाव के लिये अधिकतर निजी धन का प्रयोग किया जाता है और सख्ती के साथ रिपोर्ट देने तथा किये गए खर्च को दिखाने एवं सीमित अंशदान आवश्यक शर्तों पर होता है।
  • दूसरा सोपान अधिकतम धन का प्रयोग करने से संबंधित है जिसमें सरकारी कोष के धन का उपयोग चुनावों के लिये सार्वजनिक धन के रूप में नहीं होता बल्कि यह दलों की अन्य गतिविधियों पर भी खर्च होता है, जैसे कि स्वीडन और जर्मनी। इस सोपान में अंशदानों और खर्चों के विस्तृत नियमन की कम संलिप्तता रहती है क्योंकि राजनीतिक दल अधिकतर शासन की सहायता पर ही निर्भर रहते हैं और यह स्थानीय आवश्यकताएँ, आंतरिक लोकतंत्र तथा सामान्य पारदर्शिता को प्रभावी बनाता है। इन दोनों के बीच विभिन्न प्रकार के मिश्रित सोपान होते हैंं जिसमें मेल खाते अनुदानों के आधार पर चुनावों की लोक निधि के लिये आंशिक रूप से प्रतिपूर्ति शामिल रहती है जेैसे कि फ्राँस, नीदरलैंड्स और दक्षिण कोरिया में।
  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम चुनावी खर्चों पर अंकुश लगाता है, जबकि राजनीतिक दलों को कंपनियों द्वारा दान दिये जाने पर 1969 में रोक लगा दी गई थी परंतु बाद में 1985 में कंपनी अधिनियम के संशोधन द्वारा इसकी अनुमति दे दी गई थी।
  • संसद ने 2003 में द्वि-दलीय चुनाव की भावना से निर्वाचन और अन्य संबंधित विधि (संशोधन) अधिनियम को सर्वसम्मति से अधिनियमित कर दिया। इस अधिनियम ने निर्वाचन सुधार समिति (दिनेश गोस्वामी समिति, 1990) चुनावी सरकारी कोष समिति (इन्द्रजीत गुप्ता समिति, 1999) और भारत के विधि आयोग (निर्वाचन सुधार अधिनियम, 1999 पर 170वीं रिपोर्ट) की सिफारिशों पर विचार किया।

सिफारिश:

  • चुनावों में खर्च किये जाने वाले धन के अनुचित और अनावश्यक कोष की गुजांइश को कम करने के लिये आंशिक राज्य कोष की व्यवस्था को लागू किया जाना चाहिये।

दल-बदल विरोधी कानून का कड़ाई से पालन किया जाना

  • इसमें निजी हितों में और वृद्धि करने के लिये राजनीतिक प्रणाली के साथ छल-कपट किया जाता है तथा यह राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक शक्तिशाली स्रोत है। इस पर नियंत्रण के लिये जिस दल-बदल कानून को अधिनियमित किया गया था, उसमें इसके लिये कुछ संख्या नियत की गई थी, जिसके ऊपर किसी दल में दल बदलने की अनुमति थी। तथापि, ऐसे चयनित दल परिवर्तन को कानूनी रूप से दिये जाने से राजनीतिक नैतिकता के अतिक्रमण के साथ ही अवसरवादिता को भी बढ़ावा मिला।
  • 1985 में अधिनियमित दसवीं अनुसूची के दल-बदल प्रावधानों को कड़ा बनाने के लिये 2003 में संविधान में 91वाँ संशोधन लाया गया। यह संशोधन उन सभी राजनीतिक दलों के सदस्यों (चाहे व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक तौर पर) यह अनिवार्य बना देता है कि वे वैधानिक सदस्यता से त्याग-पत्र दे दें।
  • अब यदि वे दल बदलते हैं तो उन्हें पुनः चुनाव लड़ना पडेगा और ऐसे दलों के सदस्यों की ⅓ संख्या द्वारा दल-बदल अथवा लगातार दल बदलने के कारण वे पद पर बने नहीं रह सकते।
  • यह संंशोधन विधायकों द्वारा दल-बदल के बाद भी लाभ के पद पर बने रहने पर रोक लगाता है। इस प्रकार से यह संशोधन दल बदल को स्पष्टतः असंभव बना देता है और राजनीति की छवि को साफ बनाए रखने में एक महत्त्वपूर्ण अगला कदम है।

सिफारिश:

  • दल-बदल  के आधार  पर सदस्यों  को अयोग्य ठहराए  जाने के मामले पर राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा निर्वाचन आयोग की सलाह पर निर्णय लिया जाना चाहिये।

अयोग्यता:

  • जघन्य अपराधों की सूची में  हत्या, अपहरण, बलात्कार, डकैती, भारत के विरुद्ध युद्ध कराने, संगठित अपराध और नारकोटिक्स अपराध को शामिल किया गया है। भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे लोगों को भी अयोग्य करार दिया जाना युक्तिसंगत प्रतीत होता है, बशर्ते कि ये आरोप किसी न्यायाधीश/मजिस्ट्रेट द्वारा आरंभिक साक्ष्यों के बाद लगाए गए हों।
  • निर्वाचन आयोग ने यह सुझाव दिया है कि भ्रष्टाचार से प्रेरित मामलों में सावधानी के तौर पर, यह उपबंध किया जाए कि केवल ऐसे मामलों को अयोग्य करार दिया जाए, जिन्हें चुनाव से छह महीने पहले फाइल किया गया हो।

सिफारिश:

  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 में निर्वाचन आयोग द्वारा सुझाए गए संशोधनों के साथ गंभीर और जघन्य अपराधों से संबंधित आरोपों का सामना कर रहे सभी लोगोंं को अयोग्य ठहराए जाने के लिये संशोधन किये जाने की आवश्यकता है।

मिथ्या घोषणाएँ

  • निर्वाचन आयोग ने यह सिफारिश की है कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 31 के अंतर्गत (जो अब निर्वाचन नामावलियों को तैयार करने/संशोधन करने, उन्हें शामिल करने/शामिल न करने से संबंधित विवरणों तक ही सीमित है) पीठासीन अधिकारी, निर्वाचन अधिकारी, मुख्य निर्वाचन अधिकारी या निर्वाचन आयोग के समक्ष की गई सभी मिथ्या घोषणाओं को निर्वाचन हेतु अपराध माना जाना चाहिये।

राजनीतिक दलों द्वारा खातों का प्रकाशन करना

  • राजनीतिक दलों का यह उत्तरदायित्व है कि वे अपनी आय और व्यय के उचित खाते रखें और हर वर्ष उनकी लेखा-परीक्षा करवाएँ।
  • निर्वाचन आयोग ने इस प्रस्ताव का एक बार फिर उल्लेख किया है। इसे जल्दी ही लागू किये जाने की आवश्यकता है। अंकेक्षित खातों को जनता की सूचना के लिये उपलब्ध कराया जाना चाहिये।

गठबंधन और नैतिकता

  • गठबंधन की राजनीति प्रायः इस तथ्य के कारण भी आवश्यक हो जाती है कि बहुदलीय व्यवस्था में, जैसा कि हमारे देश में है, आज किसी एक दल के लिये यह मुश्किल है कि वह विधानमंडल या संसद में स्पष्ट बहुमत प्राप्त कर सके। गठबंधन सरकार को उचित ठहराए जाने के लिये गठबंधन करने वाले दलों हेतु यह आवश्यक है कि वे यह सुनिश्चित करने के लिये व्यापक रूप से बनाए गए कार्यक्रमों पर आधारित एक सोच बना लें कि सामाजिक-आर्थिक विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। ऐसी सोच को साझा न्यूनतम कार्यक्रम के रूप में बदलने की आवश्यकता है और इसेे या तो चुनाव से पहले घोषित कर दिया जाना चाहिये और/या मिली-जुली सरकार बनाने से पहले घोषित कर दिया जाना चाहिये।
  • तथापि गठबंधन सरकार की नैतिकता तब गंभीर रूप से धूमिल हो जाती है, जब ये मिले-जुले दल बीच में ही अपने साझेदारों को बदल लेते हैं और सामाजिक-आर्थिक विकास के लक्ष्य को पाने के लिये उनकी सहमति से बनाए गए साझा न्यूनतम कार्यक्रम की अवहेलना करते हुए मुख्य रूप से अवसरवादिता का लाभ उठाने और सत्ता पाने की लालसा से नए दल से गठबंधन कर लेते हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा यह साझा कार्यक्रम, जिसे चुनाव से पूर्व स्पष्ट रूप से अथवा चुनाव के बाद और सरकार बनाने से पहले जनमत आदेश के रूप में मान्यता दी जाती है, का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है और जनता द्वारा प्रदत्त शक्ति का दुरुपयोग किया जाता है।
  • लोगों की अपेक्षाओं को बनाए रखने के लिये आवश्यक है कि यह सुनिश्चित करने के लिये एक नैतिकता का ढाँचा बनाया जाए जिससे कि चुनावों के बीच पुनः गठबंधन जैसे अवसरवादिता को रोका जा सके।

सिफारिश:

  • यह सुनिश्चित करने के लिये संविधान में संशोधन किया जाना चाहिये कि यदि एक या अधिक दल निर्वाचन मंडल द्वारा आदेशित सामान्य कार्यक्रम के गठबंधन में चुनाव से पूर्व स्पष्ट रूप से अथवा सरकार बनाते समय निहित रूप में, बीच में ही गठबंधन से बाहर किसी एक या अधिक दलों में पुनः शामिल हो जाते है तो उस दल या दलों के सदस्यों को निर्वाचन मंडल से नया आदेश लेना होगा।

मुख्य निर्वाचन आयुक्त/आयुक्तों की नियुक्तियाँ

  • मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्तियों की वर्तमान कार्य प्रणाली को संविधान के अनुच्छेद 324 में दिया गया है जिसमें यह अनुबंध किया गया है कि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधा मंत्री की सलाह पर की जाएगी।
  • हमारे लोकतंत्र के संचालन में निर्वाचन आयोग का दूरगामी महत्त्व और उसकी नाजुक भूमिका को देखते हुए यह अवश्य ही उचित होगा यदि मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के चयन के लिये इसी प्रकार की समिति का गठन किया जा सके।

सिफारिश:

  • प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष का नेता, कानून मंत्री और राज्यसभा के उपाध्यक्ष को सदस्यों के रूप में शामिल कर बनी परिषद को मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के लिये राष्ट्रपति के विचारार्थ सिफारिशें करनी चाहिये।

चुनावी याचिकाओं का शीघ्र निपटान

  • चुनावी याचिकाओं को इस समय उच्च न्यायालय में फाइल किया जाता है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत, ऐसी याचिकाओं का छह महीनों की अवधि में निपटारा किया जाना होता है।
  • तथापि वास्तव में ऐसी याचिकाएँ वर्षों तक लंबित रहती हैं और तब तक संसद की पूरी अवधि भी समाप्त हो जाती है जिससे चुनाव याचिका निष्फल हो जाती है।

सिफारिशः

  • संविधान  के अनुच्छेद  323 ख के अंतर्गत  क्षेत्रीय स्तर पर विशेष  निर्वाचन न्यायाधिकरण बनाए जाने चाहिये ताकि चुनाव याचिकाओं और विवादों का छह महीनों की विर्निदिष्ट अवधि के भीतर गति से निपटान किया जा सके।
  • प्रत्येक न्यायाधिकरण में उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश और एक वरिष्ठ सिविल सेवक जिसे चुनावों के आयोजन में कम-से-कम 5 वर्ष का अनुभव हो (भारत सरकार के अपर सचिव/राज्य सरकार के प्रधान सचिव के स्तर से नीचे के पद का नहीं होना चाहिये)। इस शासनादेश में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि सभी चुनाव याचिकाओं पर छह महीनों के भीतर निर्णय ले लिया जाए जैसा कि कानून में प्रावधान है।

सदस्यता के लिये अयोग्यता के आधार

  • संविधान के अनुच्छेद 102 में संसद के किसी सदन की सदस्यता के किंचित् विशेष स्थितियों में अयोग्य करार दिये जाने का उपबंध है, जो निम्न प्रकार से है-

a. यदि वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद धारण करता हो, सिवाय उस पद के जिसके बारे में संसद ने विधि द्वारा छूट दी हो।

b. विकृतचित्त हो और उसके बारे में सक्षम न्यायालय की घोषणा विद्यमान हो।

c. वह भारत का नागरिक नहीं हो अथवा उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता को स्वैच्छिक रूप से प्राप्त कर लिया हो अथवा किसी विदेशी राज्य के प्रति उसकी निष्ठा हो साथ ही भ्रष्टाचार और मिथ्याचार, लोकतंत्र के ऐसे अपरिहार्य गुणक नहीं होने चाहिये जैसे कि निस्संदेह आज हैं।

d. संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून के अधीन या कानून के द्वारा अयोग्य करार दे दिया गया हो।

e. सरकार अथवा किसी राज्य सरकार के अंतर्गत किसी लाभ के पद को धारण किया हुआ नहीं समझा जाना चाहिये कि वह केंद्र में या किसी राज्य में मंत्री के पद पर है।

f. कोई भी व्यक्ति संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनने के अयोग्य होगा यदि उसे दसवीं अनुसूची के अधीन अयोग्य करार दे दिया गया हो।

सिफारिश:

  • संविधान के अनुच्छेद 102 (e) के अंतर्गत समुचित विधान अधिनियमित किया जाए जिसमें किसी संसद सदस्य की अयोग्यता की शर्तों का संपूर्ण ढंग से उल्लेख किया जाना चाहिये। इसी प्रकार, राज्यों को भी अनुच्छेद 198 (e) के अंतर्गत विधान बनाना चाहिये।

सार्वजनिक जीवन में नैतिकता

  • नैतिकता की नींव उत्तरदायित्व और जवाबदेही की धारणा के साथ रखी जाती है। लोकतंत्र में सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति को  अंततोगत्वा जनता को जवाब देना होता है। ऐसी जवाबदेही को कानून और नियमों की व्यवस्था से प्रभावी किया जाता है जिसे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि अपने कानूनों द्वारा अधिनियमित करते हैं।
  • नैतिकता ऐसे कानून और नियमों के निर्माण का एक आधार प्रदान करती है। यह लोगों के आदर्श विचार ही होते हैं जो कानून और नियम बनाकर उनका चरित्र निर्माण करते हैं। हमारी कानूनी व्यवस्था अच्छाई और न्याय की साझा दृष्टि से निःसृत होती है।
  • लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत यह है कि सत्ता धारण करने वाले सभी व्यक्ति इसे लोगों से प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में सभी सार्वजनिक पदों पर आसीन व्यक्ति जनता की धरोहर हैं। सरकारी भूमिका में वृद्धि से सार्वजनिक पद पर बने लोग जन-जीवन पर पर्याप्त प्रभाव डालते हैं। जनता और पदाधिकारी के बीच में धरोहर का संबंध यह अपेक्षा करता है कि अधिकारियों को सौंपे गए अधिकारों का प्रयोग लोगों की सर्वोत्तम भलाई या ’जन हित’ में किया जाना चाहिये।
  • आम जीवन में नैतिकता की भूमिका के अनेक पक्ष हैं। एक तरफ उच्च आचार के मूल्यों की अभिव्यक्ति है और दूसरी ओर कार्रवाई की सुनिश्चितता से है जिसके लिये सार्वजनिक अधिकारी को वैधानिक रूप से जवाबदेह ठहराया जा सकता है।
  • सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों के लिये नैतिक मानदंड क्या होने चाहिये, इस पर अत्यधिक वृहत् वक्तव्यों में से एक, संयुक्त राज्य में लोक जीवन में प्रतिमानकों पर समिति से आया था, जो नोलन समिति के नाम से लोकप्रिय थी, जिसमें सार्वजनिक जीवन के निम्नलिखित सिद्धांतों का उल्लेख किया गया-
  1. निःस्वार्थता: सार्वजनिक पद पर बैठे लोगों को जन हित से संबंधित निर्णय स्वयं ही लेने चाहिये। उन्हें अपने, अपने परिवार और मित्रों के लिये वित्तीय या अन्य भोैतिक लाभ प्राप्त करने के लिये ऐसा निर्णय नहीं लेना चाहिये।
  2. सत्यनिष्ठाः- सार्वजनिक पद पर बैठे लोगों को बाहर ऐसे व्यक्तियों या संगठनों के साथ वित्तीय या अन्य बाध्यतावश अपने को लिप्त नहीं करना चाहिये जो कि उनके सरकारी कार्य-निष्पादन को प्रभावित करे।
  3. विषयनिष्ठताः- सरकारी काम करते हुए, जिसमें सार्वजनिक नियुक्तियाँ करना, संविदाओं को स्वीकृति देना या किसी व्यक्ति विशेष को पुरस्कार या लाभों की सिफारिश करना शामिल है, सरकारी पदधारी को अपने चयन को योग्यता के आधार पर करना चाहिये।
  4. जवाबदेहीः- सरकारी पद पर आसीन लोग अपने निर्णयों और कार्रवाई के लिये जनता के प्रति जवाबदेही के लिये ज़िम्मेदार होंगे और उनके पद के लिये जो उचित छानबीन आवश्यक हो, की जानी चाहिये।
  5. निष्कपटता:- सरकारी पदधारी को अपने सभी निणर्यों और कार्रवाइयों के संबंध में निष्कपट होना चाहिये। उन्हें अपने निर्णयों के लिये कारणों का उल्लेख करना चाहिये और किसी सूचना को जारी करने  पर तभी रोक लगानी चाहिये जब व्यापक जन हित में ऐसा करना आवश्यक हो।
  6. ईमानदारी:- सरकारी पदधारी का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने सरकारी काम से संबंधित निजी हितों की घोषणा करे और ऐसे किसी विरोध के समाधान के लिये कदम उठाएं जो उन हितों की रक्षा करने में आड़े आते हों।
  7. नेतृत्व:- सरकारी पदाधिकारियों को अपने नेतृत्व द्वारा एक मिसाल पेश करते हुए इन सिद्धांतों को विकसित और इनका समर्थन करना चाहिये।

अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि

  • विविध देशों ने समय समय पर अपने मंत्रियों, विधायकों और सिविल सेवकों के लिये आचार/नैतिक संहिता को निर्धारित करने जैसे मुद्दे का समाधान किया है।
  • संयुक्त राज्य में यह मंत्री संहिता, संयुक्त राष्ट्र सीनेट में आचार संहिता और कनाडा में ’मंत्रियों के लिये मार्गदर्शन’ है। बेलीज में सरकारी पदाधिकारियों के लिये आचार संहिता संविधान में ही निर्धारित की गई है।

भारत में मंत्रियों के लिये नैतिक ढाँचा

भारत सरकार ने एक ऐसी आचार संहिता को निर्धारित किया हुआ है जो संघ और राज्य सरकारों दोनों के ही मंत्रियों पर लागू होती है। इस आचार संहिता को यहाँ पर पुनः उद्धृत करना समीचीन होगा:

  • मंत्री के रूप में किसी व्यक्ति द्वारा पद संभालने से पहले संविधान के प्रावधानों, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और ऐसे किसी अन्य कानून, जो फिलहाल लागू हों, के अतिरिक्त वह व्यक्ति:-

♦ यथास्थिति प्रधानमंत्री या मुख्य मंत्री अपने और अपने परिवार के सदस्यों की संपत्तियों और दायित्वों तथा व्यापार में रुचियों के ब्योरे को प्रकट करेगा। प्रकट किये जाने वाले ब्योरों में सभी प्रकार की अचल संपत्ति के विवरण और (i) शेयर और डिबेंचरों, (ii) नकदी तथा (iii) गहनों का कुल मूल्य शामिल होना चाहिये।

♦ मंत्री के रूप में उसकी नियुक्ति से पहले किसी वस्तु के स्वामित्व, किसी भी व्यवसाय को चलाने और उसके प्रबंधन में भाग लेने, जिसमें इससे पहले वह रुचि रखता था, से संबंध विच्छेद कर लेगा

  • पद पर आसीन हो जाने और पद पर रहने तक, मंत्री:-

♦ यथास्थिति प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को हर वर्ष 31 मार्च तक अपनी संपत्ति और दायित्वों के संबंध में घोषणा भेजेगा।

♦ सरकार से किसी भी प्रकार की अचल संपत्ति को खरीदने या बेचने से अपने को अलग रखेगा, सिवाय इसके कि जहाँ ऐसी संपत्ति सरकार द्वारा अनिवार्य रूप से अपने सामान्य ढंग में अधिगृहीत की जानी हो।

♦ किसी व्यवसाय को शुरू करने या उसमें भाग लेने से अपने को अलग रखेगा।

♦ प्रधानमंत्री या मुख्य मंत्री को उस मामले में सूचित करेगा, जिसमें उसके परिवार का कोई सदस्य अन्य किसी व्यवसाय को स्थापित कर लेता है या उसके संचालन और प्रबंधन में भाग लेना शुरू कर देता है।

  • कोई भी मंत्रीः-

♦ अपने निकट संबंंधियों को छोड़कर किसी से भी मूल्यवान उपहारों को स्वीकार नहीं करेगा और वह या उसके परिवार के सदस्य किसी भी ऐसे व्यक्ति से उपहार बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करेंगे जिनके साथ उसका सरकारी व्यवहार हो।

♦ अपने परिवार के किसी सदस्य को किसी प्रकार के ऐसे संविदा ऋण देने की अनुमति नहीं देगा जिससे उसके सरकारी कर्त्तव्यों के निष्पादन में अड़चन पैदा होने या उस पर प्रभाव डालने की संभावना हो।

आयोग ने दूसरे देशों की आचार संहिताओं की जाँच की है और आयोग का विचार है कि मंत्रियों की आचार संहिता और नैतिक संहिता में निम्नलिखित को शामिल किया जाना चाहिये:

  • मंत्रियों को उच्चतम नैतिक प्रतिमानकों को बनाए रखना चाहिये।
  • मंत्रियों को सामूहिक ज़िम्मेदारी के सिद्धांत को बनाए रखना चाहिये।
  • संसद के प्रति जवाबदेही मंत्रियों का कर्त्तव्य है और उन्हें अपने विभागों तथा एजेंसियों की नीतियों, निणर्यों और कार्यवाइयों के लिये जवाबदेह बनना होगा।
  • मंत्रियों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि उनके सार्वजनिक कार्यों और निजी रुचियों का विरोध न हो  या ऐसा प्रतीत हो कि यह विरोध हो सकता है तो लोकसभा में मंत्रियों को अपनी भूमिका को मंत्री और निर्वाचन क्षेत्र के रूप में अलग-अलग रखना चाहिये
  • मंत्रियों को चाहिये कि वे अपने दल के लिये या राजनीतिक प्रयोजनों के लिये सरकारी संसाधनों का प्रयोग न करें, उनके द्वारा लिये गए निणर्यों के लिये उन्हें स्वयं का उत्तरदायित्व स्वीकार करना चाहिये, न कि किसी की सलाह पर केवल दूसरों पर दोष मड़ना चाहिये।
  • मंत्रियों को चाहिये कि वे सिविल सेवा की राजनीतिक निष्पक्षता को बनाए रखें और सिविल सेवकों को ऐसा कोई काम करने के लिये न कहें, जिससे सिविल सेवकों के कर्त्तव्यों और ज़िम्मेदारियों का विरोध हो
  • मंत्रियों को उन अपेक्षाओं का पालन करना चाहिये जिन्हें संसद के दोनों सदन समय-समय पर निर्धारित करें।
  • मंत्रियों को यह मानना चाहिये कि सरकारी पद या सूचना का दुरुपयोग उस विश्वास का हनन है जो उनमें सार्वजनिक पदाधिकारियों के रूप में जताया गया है।
  • मंत्रियों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि जनता के पैसे का उपयोग अत्यन्त मितव्ययिता और सावधानी से हो
  • मंत्रियों को अपना काम इस प्रकार से करना चाहिये जिससे वे अच्छे शासन के अस्त्र के रूप में सेवा कर सकें और जनता की अधिकतम भलाई के लिये सेवाएँ प्रदान कर सकें तथा सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकें।
  • मंत्रियों को चाहिये कि वे उद्देश्यपूर्ण, निष्पक्ष, सत्यनिष्ठा न्यायसंगत तरीके से, मेहनत तथा उचित और न्यायपूर्ण तरीके से काम करें।

वर्तमान आचार संहिता

  • वर्तमान आचार संहिता का पालन सुनिश्चित कराने के प्राधिकारी, केंद्रीय मंत्रियों के मामले में प्रधानमंत्री, मुख्य मंत्रियों के मामले में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री तथा राज्य सरकार के मंत्रियों के मामले में संबंधित मुख्य मंत्री हैं।
  • आयोग का विचार है कि आचार संहिता के अनुपालन पर निगरानी रखने के लिये प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्य मंत्रियों के कार्यालयों में समर्पित यूनिटों का गठन किया जाना चाहिये।

सिफारिशें:

  • मंत्रियों के लिये वर्तमान आचार संहिता के अतिरिक्त एक नैतिक संहिता होनी चाहिये जिसमें ये दिशा-निर्देश होने चाहिये कि किस प्रकार मंत्री अपने कर्त्तव्यों के निष्पादन में संवैधानिक और नैतिक आचरणों के उच्चतम मानदंडों को बनाए रख सकते हैं।
  • प्रधानमंत्री और मुख्य मंत्रियों के कार्यालयों में नैतिक संहिता और आचार संहिता के अनुपालन के अनुवीक्षण के लिये समर्पित एककों का गठन किया जाना चाहिये।  इस एकक को आचार संहिता के उल्लंघन से संबंधित जनता की शिकायतों को प्राप्त करने का भी अधिकार दिया जाना चाहिये।
  • प्रधानमंत्री अथवा मुख्य मंत्री को इस कर्त्तव्य द्वारा आबद्ध होना चाहिये कि मंत्रियों द्वारा नैतिक संहिता और आचार संहिता का अनुपालन सुनिश्चित किया जाए।  ऐसा गठबंधन सरकारों के मामले में भी लागू होगा, जहाँ मंत्री विभिन्न दलों से हो सकते हैं।
  • इन संहिताओं के अनुपालन से संबंधित एक वार्षिक रिपोर्ट समुचित विधानमंडल को प्रस्तुत की जानी चाहिये। इस रिपोर्ट में अतिक्रमण के विशिष्ट मामलों यदि कोई हों और उन पर की गई कार्रवाई को शामिल किया जाना चाहिये।
  • नैतिक संहिता में, अन्य बातों के अलावा, मंत्री-सिविल सेवक संबंधों पर व्यापक सिद्धांतों को शामिल किया जाना चाहिये।
  • नैतिक संहिता आचार संहिता और वार्षिक रिपोर्ट को जनता की पहुँच में रखा जाना चाहिये।

विधि-निर्माताओं के लिये नैतिक ढाँचा

राज्य सभा की नैतिकता समिति:

  • राज्यसभा में प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमों के अध्याय XXIV में सदस्यों के आचार और नैतिक संहिता पर निगरानी रखने के लिये नैतिकता समिति के गठन की व्यवस्था है।

राज्यसभा के सदस्यों के लिये आचार संहिता का वर्तमान ढाँचा इस प्रकार  है:-

I. सदस्यों को ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये, जिससे संसद की अवमानना हो और उनके विश्वास पर प्रभाव पडे।

II. सदस्यों को आम लोगों की भलाई हेतु विकास करने के लिये संसद सदस्य के रूप में अपनी हैसियत का सदुपयोग करना चाहिये।

III. अपना काम करते हुए यदि सदस्यों को यह पता चलता है कि उनके व्यक्तिगत हित और उनके द्वारा प्राप्त लोक विश्वास के बीच कोई संघर्ष है तो इस संघर्ष का इस प्रकार से समाधान कर लेना चाहिये कि उनके निजी हित, उनके सार्वजनिक पद के प्रति कर्त्तव्यों के बाद ही गौण समझें जाएँ।

IV. सदस्यों को हमेशा यह देखना चाहिये कि उनकी वित्तीय रुचियाँ और उनके नज़दीकी परिवार के हित जनहित में आड़े न आएँ और यदि ये हित आड़े आ रहे हों तो उन्हें ऐसे संघर्ष का इस प्रकार से समाधान करना चाहिये कि उससे जनहित को कोई खतरा न हो।

V. सदस्यों को सदन के पटल पर उनके द्वारा किये गए किसी मतदान के लिये या मतदान न किये जाने पर, बिल पेश किये जाने पर, किसी संकल्प को प्रस्तुत किये जाने पर, किसी प्रश्न के पूछे जाने पर अथवा प्रश्न पूछने से रोके जाने पर, सदन अथवा संसदीय समिति की बैठक में चल रहे विचार-विमर्श में भाग लेने के लिये किसी प्रकार के शुल्क, पारिश्रमिक अथवा लाभ की अपेक्षा अथवा उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये।

VI. सदस्यों को ऐसा कोई उपहार नहीं लेना चाहिये जिससे उनके सरकारी कर्त्तव्यों  का सत्यनिष्ठा और निष्पक्ष रूप से निष्पादन करने में कोई हस्तक्षेप होता हो। तथापि, वे आकस्मिक उपहार या मूल्यहीन यादगार उपहार और रिवाज़ी आतिथ्य स्वीकार कर सकते हैं।

VII. सार्वजनिक पद पर रहते हुए सदस्यों को लोक संसाधनों का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिये कि जिससे जनता की भलाई हो सके।

VIII. संसद सदस्य होने के नाते या संसदीय समिति के सदस्य होने के नाते यदि इन सदस्यों के पास कोई गोपनीय सूचना हो तो ऐसी सूचना को उन्हें अपने निजी स्वार्थ के लिये प्रकट नहीं करना चाहिये।

IX. सदस्यों को किसी व्यक्ति या संस्थानों को ऐसा कोई प्रमाण-पत्र देने से बचना चाहिये, जिसकी उन्हें कोई व्यक्तिगत जानकारी न हो और जो तथ्यपरक न हो।

X. सदस्यों को ऐसे किसी मामले में तुरंत समर्थन नहीं देना चाहिये जिसके बारे में उन्हें कोई जानकारी न हो या नाममात्र जानकारी हो।

XI. सदस्योंं को उन्हें उपलब्ध कराई जा रही सुविधाओं और सुख सुविधाओं का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये।

XII. सदस्यों को किसी धर्म के प्रति असम्मान व्यक्त नहीं करना चाहिये और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देने के लिये काम करना चाहिये।

XIII. सदस्यों को संविधान के भाग IV A में सूचीबद्ध किये गए मूल कर्त्तव्यों को अपने मन में सर्वाेपरि रखना चाहिये।

XIV. सदस्यों से लोक जीवन में नैतिकता, गरिमा और शालीनता के उच्च मानदंडों को बनाए रखना अपेक्षित है।

लोकसभा की नैतिकता समिति

लोकसभा के सदस्यों को निम्नलिखित सामान्य नैतिक सिद्धांतों  का पालन करना चाहियेः-

I. सदस्यों को अपने पद का प्रयोग लोगों के सामान्य कल्याण को बढ़ावा देने के लिये करना चाहिये।

II. सदस्यों की व्यक्तिगत रुचि और लोक हित के बीच यदि कोई संघर्ष हो तो उसे संघर्ष का समाधान इस प्रकार करना चाहिये कि जिससे लोक पद के कर्त्तव्य के प्रति व्यक्तिगत रुचियाँ गौण समझीं जाएँ।

III. निजी वित्तीय/पारिवारिक रुचियों के बीच संघर्ष को इस प्रकार से सुलझाना चाहिये कि जो लोक हित को खतरा न बन सके।

IV. सार्वजनिक पद पर रहते हुए सदस्यों को लोेक संसाधनों का प्रयोग इस प्रकार से करना चाहिये कि जिससे जनता की भलाई हो सके।

V. सदस्यों को संविधान के भाग 4 में सूचीबद्ध किये गए मूल कर्त्तव्यों  को अपने मन में सर्वोपरि रखना चाहिये।

VI. सदस्यों को लोक जीवन में नैतिकता, गरिमा और शालीनता के उच्च मानदंडों को बनाए रखना चाहिये।

संपत्तियों और दायित्वों के ब्योरे देना

  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में लोक प्रतिनिधित्व (तीसरा संशोधन) अधिनियम 2002 द्वारा संशोधन किया गया है। इसमें एक नई धारा, 75 A शामिल की गई है जिसमें अनुबंध किया गया है कि संसद के किसी सदन या राज्य के विधानमंडल के लिये निर्वाचित प्रत्येक प्रत्याशी को अभिज्ञान की तारीख से 90 दिनों के भीतर अपनी संपत्तियों और दायित्वों के ब्योरे को यथा-स्थिति राज्यों की परिषद अथवा विधानपरिषद के अध्यक्ष के पास अथवा लोकसभा या विधानसभाओं के अध्यक्ष के पास जमा कराना होगा।

सिफारिशें:

  1. संसद के प्रत्येक सदन द्वारा ’नैतिक आयुक्त’ पद का गठन किया जाना चाहिये। यह पद अध्यक्ष/उपसभापति के अंतर्गत कार्य करते हुए नैतिकता पर समिति के कामों का निष्पादन करने में सहायता करेगा और सदस्यों को आवश्यकता पड़ने पर सलाह देगा और आवश्यक अभिलेखों को रखेगा।
  2. राज्यों के बारे में आयोग निम्नलिखित सिफ़ारिश करता है:

I. सभी राज्य विधानमंडलों को अपने सदस्यों के लिये नैतिक संहिता और आचार संहिता को अपना लेना चाहिये।

II. विधायकों द्वारा नैतिक आचार को सुनिश्चित करने के लिये अतिक्रमण के मामले में मंज़ूरियों की कार्यप्रणालियों की उत्तम परिभाषा बनाकर नैतिकता समितियों का गठन किया जाना चाहिये।

III. राज्यों के विधायकों द्वारा अभिरुचियों की घोषणा के साथ ’सदस्यों की अभिरुचि के रजिस्टर’ को बनाया रखा जाना चाहिये।

IV. संबंधित सदनों के पटल पर वार्षिक रिपोर्टों को, विवरण देते हुए, जिनमें अतिक्रमण शामिल हों, रखा जाना चाहिये।

V. राज्य विधानमंडलों के प्रत्येक सदन द्वारा ’नैतिकता आयुक्त’ के पद का गठन किया जाए। यह पद अध्यक्ष/सभापति के तहत उस आधार पर काम करेगा जैसा कि संसद के लिये सुझाया गया है।

सिविल सेवकों के लिये नैतिक संहिता

एक ड्राफ्ट ’लोक सेवा बिल’ जो अब कार्मिक, लोक शिकायत तथा पेंशन मंत्रालय के विचाराधीन है, में सिविल सेवकों से अनेक सामान्य अपेक्षाओं का निर्धारण करने के लिये प्रस्ताव किया गया है, जिन्हें ’’मूल्यों’’ के रूप में उल्लिखित किया गया है। बिल में रखे गए प्रमुख ’मूल्य’ इस प्रकार हैं:-

  • संविधान की उद्देशिका में स्थापित विविध आदर्शों के प्रति निष्ठा।
  • राजनीति से परे रहकर कृत्य करना।
  • लोगों की उन्नति के लिये अच्छा शासन देना सिविल सेवा का प्राथमिक लक्ष्य।
  • उद्देश्यपूर्ण और निष्पक्षता से काम करने का कर्त्तव्य।
  • निर्णय निर्माण में जवाबदेही और पारदर्शिता।
  • उच्चतम नैतिक प्रतिमान बनाए रखना।
  • राष्ट्र की संस्कृति, मानवीय और अन्य विभिन्नताओं से मेल खाते हुए, सिविल सेवकों के चयन में योग्यता को ही कसौटी मानना।
  • खर्चों में मितव्ययिता और अपव्यय को सुनिश्चित करना।
  • स्वस्थ और अनुकूल कार्य का वातावरण प्रदान करना।
  • कृत्यों के निष्पादन में संचार, परामर्श और सहयोग अर्थात् प्रबंधन में सभी स्तरों के कार्मिकों का भाग लेना।

सात सामाजिक पाप

महात्मा गांधी द्वारा 1925 में ’’यंग इंडिया’’ में बताए गए सात सामाजिक पाप हैं:

  1. बिना सिद्धांतों के राजनीति
  2. बिना काम के धन
  3. बिना अंतःकरण के आराम
  4. बिना चरित्र  के ज्ञान
  5. बिना नैतिकता के व्यापार
  6. बिना मानवता के विज्ञान
  7. बिना बलिदान के पूजा


सिफारिशें:

  • ‘लोकसेवा मूल्यों’ जिन्हें सभी सार्वजनिक कर्मचारियों को ऊँचा उठाना चाहिये, को परिभाषित  किया जाना चाहिये और सरकार तथा अर्द्ध-सरकारी संगठनों की सभी श्रेणियों पर लागू किया जाना चाहिये। इन मूल्यों का उल्लंघन किये जाने पर इसे कदाचार और दंडनीय समझा जाना चाहिये।
  • अभिरुचियों के संघर्ष को अधिकारियों के लिये नैतिक संहिता और आचार संहिता में विस्तृत रूप से शामिल समझा जाना चाहिये। सेवारत अधिकारियों को भी सरकारी उपक्रमों के मंडलों में नामांकित नहीं किया जाना चाहिये। तथापि, यह गैरलाभकारी सरकारी संस्थानों और परामर्शी निकायों पर लागू नहीं होगा।

न्यायपालिका के लिये नैतिक ढाँचा

  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायिक नैतिकता के साथ महत्त्वपूर्ण  रूप से जुड़ी हुई है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने 7 मई, 1997 को हुई अपनी पूर्ण न्यायालय बैठक में ’’न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन’’ नामक एक चार्टर को पारित किया जिसे सामान्यतः न्यायाधीशों के लिये आचार संहिता के नाम से जाना जाता है।
  • उसके परिवार के किसी भी सदस्य को, जो विधिज्ञ संघ का सदस्य हो, न्यायाधीश के वास्तविक आवास में रहने या उसके व्यावसायिक काम के लिये अन्य सुविधाएँ दिये जाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
  • न्यायाधीश को अपनी मर्यादा के अनुरूप अपनी जीवन पद्धति में अंतर  रखना होगा।
  • न्यायाधीश ऐसे किसी मामले को नहीं सुनेगा और न ही अपना निर्णय देगा जिससे उसके परिवार का कोई सदस्य, नज़दीकी संबंधी या मित्र संबंधित हो।
  • न्यायाधीश किसी सार्वजनिक वाद-विवाद या बहस में भाग नहीं लेगा या राजनीतिक मामलों अथवा उन मामलों में जो लंबित हों और जिनका न्यायिक निर्णय आने की संभावना हो, पर जनता के समक्ष अपने विचार व्यक्त नहीं करेगा।
  • एक न्यायाधीश से यह अपेक्षित है कि वह निर्णय स्वयं लेने की क्षमता रखता हो। वह मीडिया के समक्ष कोई साक्षात्कार नहीं देगा।
  • न्यायाधीश अपने परिवार, नज़दीकी संबंधी और मित्रों को छोड़कर किसी से उपहार या आतिथ्य सत्कार स्वीकार नहीं करेगा।
  • न्यायाधीश ऐसी किसी कंपनी से संबंधित मामले की सुनवाई तब तक नहीं करेगा और न ही उस पर निर्णय नहीं लेगा, जिसमें उसके शेयर लगे हों, जब तक कि उसने उसमें अपने हित को प्रकट न कर दिया हो और उस मामले की सुनवाई और निर्णय देने के लिये ’कोई आपत्ति नहीं’ जैसी सहमति न ले ली हो।
  • न्यायाधीश शेयरों, स्टाॅकों और ऐसी ही अन्य चीज़ों में सट्टा नहीं लगाएगा।

सिफारिशें:

एकरूपता से स्वीकृत सिद्धांतों की तर्ज पर एक ऐसी न्यायिक परिषद का गठन किया जाना चाहिये, यहाँ न्यायपालिका के सदस्यों की नियुक्ति एक मंडल के रूप में की जानी चाहिये, जिसमें कार्यपालक, विधानमंडल और न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व हो। इस परिषद में निम्नलिखित शामिल होंगे:-

  • परिषद् के अध्यक्ष के रूप में उपराष्ट्रपति
  • प्रधानमंत्री
  • लोकसभा अध्यक्ष
  • भारत के मुख्य न्यायमूर्ति
  • कानून मंत्री
  • लोकसभा में विपक्ष का नेता
  • राज्यसभा में विपक्ष का नेता

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और निरीक्षण से संबंधित मामलों में परिषद में निम्नलिखित सदस्य भी शामिल होंगेः

♦ संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्री
♦ संबंधित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायमूर्ति

  • राष्ट्रीय न्यायिक परिषद को अधीनस्थ न्यायपालिका सहित न्यायाधीशों के लिये आचार संहिता बनाए जाने के लिये अधिकृत किया जाना चाहिये।
  • राष्ट्रीय न्यायिक परिषद को उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियों की सिफारिश करने का काम सौंपा जाना चाहिये। इस परिषद् को न्यायाधीशों के निरीक्षण का काम को भी सौंपा जाना चाहिये और उन्हें अभिकथित कदाचार की छानबीन करने और लघु दंड देने का भी अधिकार दिया जाना चाहिये। यदि आवश्यक हो तो यह न्यायाधीश को हटाए जाने की भी सिफारिश कर सकती है।
  • राष्ट्रीय न्यायिक परिषद की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रपति को उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने का अधिकार होना चाहिये।
  • राष्ट्रीय न्यायिक परिषद का प्रावधान करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 124 को संशोधित किया जाना चाहिये। इसी प्रकार का संशोधन अनुच्छेद 217 में भी करना होगा। क्योंकि परिषद् को न्यायाधीशों का निरीक्षण करने और उन्हें अनुशासन में रखने का भी अधिकार होगा, अतः अनुच्छेद 217 (खंड 4) में और आगे परिवर्तन करने आवश्यक होंगे।
  • उच्चतम न्यायालय के किसी एक न्यायाधीश को न्यायिक मूल्य आयुक्त पद पर आसीन किया जाना चाहिये। उसे आचार संहिता को प्रभावी करने का काम दिया जाना चाहिये। इसी प्रकार के प्रबंध उच्च न्यायालय में भी किये जाने चाहिये।

भ्रष्टाचार से लड़ने के लिये वैधानिक ढाँचा

भारत में भ्रष्टाचार निवारण कानूनों का विकास

  • स्वतंत्रता से पूर्व की अवधि के दौरान जनजीवन में भ्रष्टाचार का सामना करने के लिये भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) ही मुख्य साधन थी। इस संहिता में ’लोक सेवकों के अपराध’ का एक अध्याय था।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947: इस कानून ने एक नए अपराध की परिभाषा बनाई - ’पदीय कर्त्तव्य के निर्वहन में आपराधिक अवचार’ जिसके लिये सज़ा बढ़ाने का (न्यूनतम एक वर्ष से अधिकतम 7 वर्ष तक) अनुबंध किया गया था। इस अधिनियम में यह भी उपबंध किया गया था कि रिश्वत देने वाले व्यक्ति के द्वारा रिश्वत देना मान लिये जाने के वक्तव्य पर कोई अभियोजन नहीं हो सकेगा।
  • दंड विधि संशोधन अधिनियम 1952 : भारतीय दंड संहिता की धारा 165 के अधीन उल्लिखित सज़ा को विद्यमान दो वर्षों की बजाय तीन वर्षों तक कर दिया गया। इसके साथ ही भारतीय दंड संहिता में एक नई धारा 165 A  दी गई जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 161 और 165 में परिभाषित अपराधों को दुष्प्रेरित करना भी अपराध बना दिया गया।
  • 1964 में संशोधन: भारतीय दंड संहिता के अधीन ’लोकसेवक’ की परिभाषा का विस्तार किया गया (संथानम समिति ने भी ’लोक सेवक’ नाम की परिभाषा का विस्तार करने की सिफारिश की थी।  ’आपराधिक अवचार’ की परिभाषा का विस्तार किया गया और लोकसेवक के लिये आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्तियाँ रखना अपराध माना गया।
  • धारा 5(A) में संशोधन किया गया ताकि पुलिस निरीक्षक स्तर के अधिकारियों को अधिनियम के अधीन मामलों की जाँच हेतु अधिकृत करने के लिये राज्य सरकारों को सशक्त किया जा सके।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988: ’लोकसेवक’ शब्द की परिभाषा अधिनियम में दी गई है। यह परिभाषा भारतीय दंड संहिता मेंं विद्यमान परिभाषा से बड़ी है।
  • अधिनियम में एक नई धारणा - ’लोक कर्त्तव्य’ को रखा गया है।
  • अधिनियम के अधीन सभी मामलों की सुनवाई विशेष न्यायाधीशों द्वारा ही होगी।
  • न्यायालय की कार्यवाही दिन-प्रतिदिन के आधार पर  होगी।
  • रिश्वत देने वाले व्यक्ति को उपधारणा, उन्मुक्ति, उप पुलिस अधीक्षक के स्तर के अधिकारी द्वारा, बैंकों के रिकार्डों तक पहुँच आदि प्रावधानों को पहले जैसा ही रखा गया है।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988

  • प्रत्येक राज्य दल भ्रष्टाचार निवारण पर किये गए लक्ष्यों के स्थापन और उनकी प्रभावकारी पद्धतियों को विकसित करने का प्रयत्न करेगा।
  • प्रत्येक राज्य दल संगत वैधानिक प्रपत्र और प्रशासनिक उपायों द्वारा भ्रष्टाचार को रोकने या उससे लड़ने हेतु उनकी पर्याप्तता का निर्धारण करने के लिये समय-समय पर इनका मूल्यांकन करने का प्रयत्न करेगा।

सिफारिशः

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित को अपराधों के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिये :

  • संविधान और लोकतांत्रिक संस्थानों का दुरुपयोग शपथ और पद का जानबूझ कर किया गया अतिक्रमण होगा।
  • किसी व्यक्ति को अनुचित पक्षपात  या हानि पहुँचाकर अधिकार का दुरुपयोग करना।
  • न्याय में बाधा
  • सार्वजनिक पैसे का अपव्यय

दुस्संधिपूर्ण रिश्वतखोरी

  • किसी भी भ्रष्टाचार हेतु लेन-देन में दो पक्षकार होते हैं - एक रिश्वत देने वाला और दूसरा रिश्वत लेने वाला। रिश्वतखोरी के अपराध को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है। पहली श्रेणी में रिश्वत देने वाला ज़बरदस्ती उससे पैसें ऐंठे जाने का शिकार होता है, उसे एक मामूली सी सेवा के लिये पैसे देने पड़ते हैंं क्योंकि यदि वह पैसे ऐंठने वाले लोकसेवक की मांग पूरी नहीं करता  है तो उसे रिश्वत की राशि से कहीं अधिक नुकसान सहना पड़ेगा। दुस्संधि वाले भ्रष्टाचार के मामलों में सबूत का भार दोषी पर डाल दिया जाना चाहिये।
  • अतः भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 में ’दुस्संधि रिश्वत’ को विशेष अपराध के रूप में लाए जाने का उपबंध करने के लिये उसमें संशोधन की आवश्यकता है। कोई अपराध ’दुस्संधि रिश्वत’ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है यदि किसी लेनदेन का नतीजा या ऐच्छिक नतीजा सरकार, जनता या जनहित को हानि पहुँचाना हो।
  • इन सभी मामलों में यदि यह स्थापित कर दिया जाता है कि सरकार या जनता के हित को लोकसेवक के किसी कृत्य के कारण हानि पहुँची है तो न्यायालय यह मान लेगा कि लोकसेवक और निर्णय के लाभार्थी ने ’दुस्संधि रिश्वत’ का अपराध किया है।

अभियोजन के लिये स्वीकृति

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 में यह उपबंध है कि न्यायालय को अधिनियम की धारा 7, 10, 11,13 और 15 के अंतर्गत परिभाषित अपराधों का संज्ञान लेने से पहले सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति लेनी आवश्यक होगी। इस उपबंध का उद्देश्य ईमानदार लोकसेवकों का विद्वेषपूर्ण और कष्टकारी शिकायतों द्वारा होने वाले उत्पीड़न से बचाव करना है।
  • यद्यपि इस प्रावधान की मंशा स्पष्ट है, फिर भी यह दलील दी जाती है कि इस खंड का प्रयोग कभी कभी स्वीकृति प्राधिकारी द्वारा बेईमान अधिकारियों को बचाने के लिये किया जाता है।
  • ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहाँ स्वीकृति प्रदान करने में असाधारण विलंब हुआ है। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जहाँ स्वीकृति प्रदान करने में त्रुटियों के चलते अभियुक्त द्वारा स्वीकृति को चुनौती देने और इसे रद्द कराए जाने के लिये अज्ञानतावश ऐसा किया जाता है। इससे संपूर्ण कार्यवाही अकृत हो जाती है।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत दिये गए बहुप्रयोजी संरक्षण कभी-कभी भ्रष्ट लोकसेवकों को न्याय दिलाने में सहायक हो जाते हैं क्योंकि इससे प्रायः स्वीकृति में विलंब कर दिया जाता है या उसे अस्वीकार कर दिया जाता है। इससे विधान की यह मंशा प्रतीत होती है कि लोकसेवक को उसके उचित सरकारी काम का निष्पादन करने में वह पर्याप्त संरक्षण दे। ऐसे संरक्षण की आवश्यकता उन अपराधों के लिये नहीं है जो मूल रूप से निम्नलिखित के प्रत्यक्ष साक्ष्य पर आधारित हों:-

I. रिश्वत मांगना या/और स्वीकार करना

II. बिना प्रतिफल के या अपर्याप्त प्रतिफल के मूल्यवान वस्तुएँ प्राप्त करना

III. आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्तियोंं को रखने के मामले।

सिफारिशें:

  • ऐसे किसी लोकसेवक के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई के लिये पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये, जिसे रंगे-हाथों पकड़ा गया हो अथवा आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक की संपत्ति का मामला हो।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में यह सुनिश्चित करने के लिये संशोधन किया जाना चाहिये कि स्वीकृति देने वाले प्राधिकारियों को बुलाना न पड़े और इसके बजाय समुचित प्राधिकारी द्वारा कागजात प्राप्त करके न्यायालयों के समक्ष पेश कर दिये जाएँ।
  • संसद अथवा विधानमंडल के पीठासीन अधिकारी को क्रमशः संसद सदस्य और विधायकों की स्वीकृति दिये जाने के लिये पदासीन किया जाना चाहिये।
  • सेवारत लोकसेवकों पर अब तक लागू कानूनी कार्रवाई के लिये पूर्व अनुमति की आवश्यकता अवकाश प्राप्त लोकसेवकों पर भी उनके द्वारा सेवा के दौरान निष्पादित किये गए काम के लिये लागू होगी।
  • ऐसे सभी मामलों में जहाँ भारत सरकार कानूनी कार्रवाई करने की स्वीकृति प्रदान करने के लिये अधिकृत हो, वहाँ इस अधिकार को केंद्रीय सतर्कता आयुक्त और सरकार के विभागीय सचिव की आधिकारिक समिति को प्रत्यायोजित कर दिया जाना चाहिये।

भ्रष्ट लोकसेवकों द्वारा क्षतिपूर्ति करने का दायित्व

  • जहाँ एक ओर लोकसेवकों द्वारा किये जाने वाले भ्रष्ट कृत्य के कारण वे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत सज़ा के पात्र हैं, वहीं दूसरी ओर गलत काम करने वाले के लिये कोई सिविल दायित्व नहीं है और न ही किसी ऐसे व्यक्ति/संगठन को प्रतिपूर्ति के लिये प्रावधान है, जिसके प्रति गलत काम हुआ है या जो लोकसेवक के कदाचार के कारण पीडि़त हुआ है।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में एक अध्याय को जोड़कर यह प्रावधान किया जा सकता है जिससे ऐसी क्षतिपूर्ति का भुगतान देय होगा। क्षतिपूर्ति को आँके जाने का सिंद्धांत और उन लोगों को क्षतिपूर्ति के लिये मानदंड, जिनके साथ गलत व्यवहार किया गया है। ऐसे मामलों के हालातों को स्पष्ट रूप से लेेखबद्ध किया जाना चाहिये।

सिफारिशः

  • आपराधिक मामलों में दंड के अतिरिक्त, कानून में प्रावधान होना चाहिये कि ऐसे लोकसेवकों को, जो अपने भ्रष्ट क्रियाकलापों से राज्य या नागरिकों को हानि पहुँचाते हैं, वे इस हानि को पूरा करने के लिये ज़िम्मेदार हों और इसके अतिरिक्त हर्जाने के लिये ज़िम्मेदार हों। इस बात को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में एक अध्याय को जोड़कर किया जा सकता है।

भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत सुनवाई में तेजी लाना:

  • मामलों के विचारण मेंं विलंब का एक प्रमुख कारण अभियुक्त द्वारा कभी एक दलील तो कभी दूसरी दलील देकर बार बार स्थगन की तारीखें लिये जाने की प्रवृत्ति है।
  • अभियुक्त की यह भी प्रवृत्ति रहती है कि वह लगभग प्रत्येक अंतरिम आदेश को, चाहे वह किसी विचारण न्यायालय द्वारा विविध आवेदन-पत्र पर ही क्यों न जारी किया गया हो, उच्च न्यायालय और बाद में उच्चतम न्यायालय में चुनौती देकर विचारण पर रोक आदेश प्राप्त कर लेता है।

सिफारिशें:

  • सुनवाई के विविध चरणों के लिये समय-सीमा नियत करने के लिये एक कानूनी प्रावधान लाने की आवश्यकता है। ऐसा आपराधिक दंड संहिता में संशोधन करके किया जा सकता है।
  • इस बात को सुनिश्चित करने के लिये कदम उठाए जाने चाहिये कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत जिन न्यायाधीशों को विशेष न्यायाधीशों के रूप में घोषित किया गया हो, वे अधिनियम के अंतर्गत मामलों के निपटारे की ओर प्राथमिकता से ध्यान दें।
  • जब अधिनियम के अंतर्गत अपर्याप्त काम हों, केवल तभी विशेष न्यायाधीशों को अन्य उत्तरदायित्व सौंपे जाने चाहिये।
  • यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत मामलों की सुनवाई करने वाले न्यायालयों की कार्यवाही को दैनिक आधार पर किया जाए और किसी विचलन की स्वीकृति न दी जाए।
  • उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय अवांछित स्थगनों और परिहार्य विलंबों को रोकने के लिये दिशा-निर्देश अधिकथित कर सकता है।

निजी क्षेत्र में लिप्त भ्रष्टाचार

  • निजी क्षेत्रों का भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता  है। तथापि, यदि कोई निजी क्षेत्र (या उसके द्वारा काम पर लगाए गए किसी व्यक्ति) किसी लोक प्राधिकारी को रिश्वत देने में लिप्त पाया जाता है तो वह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत रिश्वत की दुष्प्रेरणा के अपराध के लिये सज़ा का पात्र हो सकता है। सार्वजनिक सेवाओं की बहुत बड़ी संख्या जिन्हें पहले परंपरागत ढंग से सरकारी एजेंसियों द्वारा हाथ में लिया जाता था, अब गैर सरकारी एजेंसियों को दी जा रही है। अतः ऐसी एजेंसियों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन लाना आवश्यक हो गया है।
  • भारत में कंपनी अधिनियम, 1956 ऐसा संविधिक ढाँचा प्रदान करता है जो कंपनी की आंतरिक प्रक्रियाओं पर नियंत्रण करता है।

सिफारिशें :

  • सार्वजनिक उपयोगिता जैसी सेवाओं को प्रदान करने वाले निजी क्षेत्र को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधिकार क्षेत्र में लाने के लिये इस अधिनियम में अनुकूल संशोधन किये जाने चाहिये।
  • ऐसी गैर-सरकारी एजेंसियों को जिन्हें कोष की पर्याप्त राशि प्राप्त होती हो, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत शामिल किया जाना चाहिये। ऐसे मानदंड अधिकथित किये जाने चाहिये कि यदि किसी संस्थान या निकाय को पिछले किन्हीं तीन वर्षों के दौरान अपनी वार्षिक प्रचालन लागतों से 50 प्रतिशत अधिक राशि मिली हो या एक करोड़ के बराबर या उससे अधिक राशि प्राप्त हुई हो तो उसे उस अवधि के दौरान ’पर्याप्त कोष’ प्राप्त करने वाला समझा जाना चाहिये और ऐसे कोष का उद्देश्य भी बताया जाना चाहिये।

भ्रष्ट तरीकों से प्राप्त की गई गैर-कानूनी संपत्तियों को ज़ब्त करना

  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में लोकसेवक की आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक की संपत्तियों को ज़ब्त करने का उपबंध है। तथापि, यह उपबंध अपर्याप्त साबित हुआ है क्योंकि ऐसी जब्ती संगत अपराधों के लिये केवल दोषसिद्ध हो जाने पर ही संभव है।
  • इस समय लोकसेवकों की असंवैधानिक रूप से अधिग्रहीत संपत्ति को ज़ब्त और कुर्क करने के लिये दंड विधि संशोधन अध्यादेश, 1944 के प्रावधानों का अवलंब लिया जाता है।
  • इस अध्यादेश के अधीन असंवैधानिक रूप से अधिग्रहीत संपत्ति की अंतरिम कुर्की का प्रावधान है। विशेष न्यायाधीश किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा दिये गए आवेदन दिये जाने के आधार पर ऐसा करने के लिये सशक्त है। अपराध मामले के नतीजे पर निर्भर करते हुए, कुर्क की गई संपत्ति को या तो ज़ब्त कर लिया जाता है या विमुक्त कर दिया जाता है।

सिफारिश:

  • विधि आयोग द्वारा दिये गए सुझाव के अनुसार, भ्रष्ट लोकसेवक (संपत्ति का समपहरण) बिल को बिना किसी विलंब के अधिनियमित किया जाना चाहिये।

बेनामी’45  लेनदेन का निषेध

  • विधि आयोग ने अपनी 57वीं और 130वीं रिपोर्टों में बेनामी लेनदेनों और बेनामी संपत्तियों को अधिग्रहण करने का निषेध करते हुए एक कानून के अधिनियमन की सिफारिश की थी।
  • बेनामी लेनदेन (निषेध) अधिनियम 1988 शीर्षक से एक कानून 1988 में पारित किया गया था। अधिनियम उस व्यक्ति पर प्रतिबंध लगाता है जिसने संपत्ति को किसी दूसरे व्यक्ति के नाम पर लेकर उसपर अपना दावा पेश करने के लिये अधिग्रहीत की हो।

सिफारिश:

  • बेनामी लेनदेन (प्रतिषेध) अधिनियम, 1988 के तत्काल कार्यान्वयन के लिये कदम उठाए जाने चाहिये।

भ्रष्टाचार या घोटाले की सूचना देने वाले (whistleblowers) की सुरक्षा

  • किसी विभाग/एजेंसी में काम करने वाले लोकसेवक अपने संगठन में अन्य लोगों के पूर्ववृत्तों और गतिविधियों से परिचित होते हैं। तथापि, प्रायः वे बदले की भावना के डर से सूचना देने के इच्छुक नहीं होते। लोक सेवक द्वारा अपने संगठन में भ्रष्टाचार की सूचना देने की तत्परता और उसे तथा उसकी पहचान को संरक्षण दिये जाने में बहुत ही नज़दीकी संबंध होता है।

सिफारिशः

  • भष्टाचार या घोटाले की सूचना देने वाले को  संरक्षण प्रदान करने के लिये विधि आयोग द्वारा सुझाई गई निम्नलिखित बातों पर तत्काल ही विधान को अधिनियमित किया जाना चाहियेः
  • भष्टाचार  या घोटाले  की सूचना, झूठे  दावों, धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार की सूचना देने वाले को शारीरिक हानि पहुँचाए जाने से रोकने के लिये उसकी पहचान को  गोपनीय रखने, व्यवसाय में सताए जाने से रक्षा करना और अन्य प्रशासकीय उपायों को सुनिश्चित करते हुए उसका बचाव किया जाना चाहिये।
  • विधान में किसी निगम के भ्रष्टाचार या घोटाले की सूचना देने, धोखाधड़ी या जानबूझ कर चूक करने या गलत कार्य करने से जनहित को गंभीर क्षति पहुँचाने की बात का पर्दाफाश करने वाले को भी शामिल किया जाना चाहिये।
  • भ्रष्टाचार या घोटाले की सूचना देने वाले को कष्ट पहुँचाने, सताए जाने या बदला लेने के काम को पर्याप्त ज़ुर्माने और सज़ा के साथ दंडनीय अपराध माना जाएगा।

गंभीर आर्थिक अपराध

  • आर्थिक अपराध, जिन्हें आम बोलचाल में कपट या धोखाधड़ी कहा जाता है (इस शब्द की परिभाषा ही भारतीय संविदा अधिनियम47 में दी गई है)। आज आकार और जटिलता दोनों की बढ़ती हुई प्रवृत्ति चिंता का विषय बन गए हैं।
  • आर्थिक अपराधों पर नियंत्रण के लिये अनेक कानून बनाए गए हैं। इनमें शामिल हैं- भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), बैंकिंग विनियमन अधिनियम 1949, कंपनी अधिनियम 1956, सीमा शुल्क अधिनियम 1962, आयकर अधिनियम, 1961, आवश्यक वस्तु अधिनियम, विदशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी निवारण अधिनियम, खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम और भारतीय पेटेंट अधिनियम आदि।

सिफारिशः

I. ‘गंभीर आर्थिक अपराध’ पर एक नया कानून लाया जाना चाहिये।

II. गंभीर आर्थिक अपराध को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता हैः

  • वह अपराध जिसमें 10 करोड़ रुपयों से अधिक की राशि संलिप्त हो।
  • वह अपराध जिससे जनता में व्यापक चिंता की संभावना हो: या
  • वह अपराध जिसकी जाँच और कानूनी कार्रवाई में वित्तीय बाज़ार की उच्च स्तर की विशिष्ट जानकारी अथवा बैंकों या अन्य वित्तीय संस्थानों के व्यवहार को जानने की आवश्यकता पड़े।
  • वह अपराध जिसमें महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय आयाम संलिप्त हों।
  • वह अपराध कानूनी, वित्तीय तथा निवेश संबंधी जाँच को एक साथ किये जाने की आवश्यकता हो: या
  • जो  केंद्रीय  सरकार, नियंत्रकों,  बैंकों या किसी अन्य  वित्तीय संस्थानों को पेचीदा लगे।

III. एक गंभीर अपराध कार्यालय (एसएफओ) का गठन किया जाना चाहिये (नए कानून के अंतर्गत),  जो ऐसे अपराधों की जाँच और उन पर कानूनी कार्यवाही करे। यह कार्यालय मंत्रिमंडल सचिवालय के अधीनस्थ होगा। इस कार्यालय को इस उद्देश्य से गठित, विशेष अदालतों में सभी ऐसे मामलों की जाँच करने और कानूनी कार्यवाई करने का अधिकार होगा। गंभीर अपराध कार्यालय को अपने कर्मचारियों का चयन शिक्षा के विविध विषय क्षेत्रों के विशेषज्ञों से करना चाहिये, जैसे कि वित्तीय क्षेत्र, पूंजी और भविष्य बाज़ार, वस्तु बाज़ार, लेखा-प्रणाली, प्रत्यक्ष और परोक्ष कर, न्यायालयीय, अन्वेषण, अपराध और कंपनी कानून तथा सूचना प्राद्यौगिकी। गंभीर अपराध कार्यालय को मित्रा समिति की सिफारिशों में उल्लिखित अन्वेषण के सभी अधिकार प्राप्त होने चाहिये। वर्तमान गंभीर अपराध अन्वेषण कार्यालय को इसमें शामिल कर लिया जाना चाहिये।

IV. ऐसे अपराधों के अन्वेषण और कानूनी कार्यवाही पर नज़र रखने के लिये एक गंभीर अपराध अनुवीक्षण समिति का गठन किया जाना चाहिये। इस समिति में जिसके अध्यक्ष मंत्रिमंडल सचिव होंगे, मुख्य सतर्कता आयुक्त, गृह मंत्री, वित्त सचिव, सचिव, बैंकिंग / वित्तीय क्षेत्र, रिज़र्व बैंक आफ इंडिया के एक उप गवर्नर, सचिव, कंपनी कार्य विभाग, विधि सचिव, अध्यक्ष, सेबी आदि सदस्यों के रूप में होंगे।

V. गंभीर अपराध में किसी सरकारी पदाधिकारी के संलिप्त होने के मामले में गंभीर अपराध कार्यालय एक रिपोर्ट राष्ट्रीय लोकायुक्त को भेजेगा और राष्ट्रीय लोकायुक्त द्वारा दिये गए निर्देशों का पालन करेगा।

VI. गंभीर अपराधों के सभी मामलों में न्यायालय अभियुक्त में आपराधिक मनःस्थिति को मान कर चलेगा और ऐसा न होने से संबंधी प्रमाण सिद्ध करने का दायित्व अभियुक्त का होगा।

विधिकर्त्ताओं द्वारा उन्मुक्ति का उपयोग

  • संविधान के कार्यकरण की समीक्षा के लिये राष्ट्रीय आयोग ने सिफारिश की है कि अनुच्छेद 105 (2) में यह स्पष्ट करने के लिये संशोधन किया जाए कि संसद सदस्यों द्वारा संसदीय विशेषाधिकारों के अंतर्गत उपयोग की जाने वाली उन्मुक्ति में सदन में या अन्यथा अपने कृत्यों का पालन करने के संबंध में उनके द्वारा किये गए भ्रष्ट कृत्य शामिल नहीं होंगे।
  • ऐसी सिफारिश इसलिये की गई थी क्योंकि भ्रष्ट कृत्यों में किसी विशेष ढंग से बोलने और/या मतदान करने के लिये धन या अन्य मूल्यवान प्रतिफलों को स्वीकार करना शामिल होता है और ऐसे कृत्यों के लिये वे देश के साधारण कानून के अंतर्गत कार्यवाही किये जाने के पात्र होंगे।

सिफारिशें:

  • यह आयोग, राष्ट्रीय संविधान कार्य समीक्षा आयोग द्वारा दिये गए सुझाव का पालन करते हुए यह सिफारिश करता है कि संविधान के अनुच्छेद 105 (2) में ऐसे समुचित संशोधन किये जाएँ जिससे यह प्रावधान किया जा सके कि संसद सदस्यों द्वारा उपभोग की जा रही उन्मक्ति में उनके द्वारा सदन में या अन्यथा अपने कर्तव्यों के संबंध में किये गए भ्रष्ट कार्यों को शामिल न किया जा सके।
  • आयोग यह भी सिफारिश करता है कि राज्य विधानमंडलों के सदस्यों के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 194 (2) में ऐसे ही संशोधन किये जाएँ।

संस्थागत ढाँचा

कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग का प्रशासनिक सतर्कता खंड, सतर्कता और भ्रष्टाचार-निवारण के काम के लिये एक नोडल एजेंसी है। केंद्र के स्तर पर अन्य संस्थान और एजेंसियां हैं -

I. केंद्रीय सतर्कता आयोग (Central Vigilance Commission)

II. भारत सरकार के मंत्रालयों/विभागों, केंद्रीय लोक उद्यमों और अन्य स्वयंसेवी संगठनों में सतर्कता यूनिट और

III. केंद्रीय जाँच ब्यूरो (Central Bureau of Investigation)

केंद्रीय सतर्कता आयोग
Central Vigilance Commission (CVC)

  • भ्रष्टाचार निवारण समिति, जो संथानम कमेटी के नाम से लोकप्रिय है, द्वारा की गई सिफारिशों के अनुसरण में, भारत सरकार द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग का गठन किया गया था। विनीत नारायण बनाम भारतीय संघ वाद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के फलस्वरूप इसे केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 द्वारा सांविधिक दर्जा दिया गया था।
  • केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) भारतीय संघ को प्रशासन में सत्यनिष्ठा बनाए रखने से संबंधित सभी मामलों पर परामर्श देता है।
  • यह केंद्रीय जाँच ब्यूरो के काम-काज की और संघ सरकार के विविध मंत्रालयों और अन्य संगठनों के सतर्कता प्रशासन पर निगरानी करता है।

भारत सरकार में सतर्कता यूनिटें

  • भारत सरकार के सभी मंत्रालयों/विभागों में एक मुख्य सतर्कता अधिकारी (सीवीओ) होता है जो संबंधित संगठन के सतर्कता खंड के अध्यक्ष के रूप में सचिव या कार्यालय अध्यक्ष को सतर्कता से संबंधित सभी मामलों पर सहायता और सलाह देता है।
  • वह एक ओर अपने संगठन और केंद्रीय सतर्कता आयोग के बीच तथा दूसरी ओर संगठन और केंद्रीय जाँच ब्यूरो के बीच संपर्क प्रदान करता है।
  • मुख्य सतर्कता अधिकारी द्वारा निष्पादित सतर्कता संबंधी कृत्यों में अपने संगठन के कर्मचारियों की भ्रष्टाचार के व्यवहारों के संबंध में सूचना एकत्र करना, सूचित किये गए आरोपों की सत्यापित जाँच करना, संबंधित अनुशासनिक प्राधिकारी के आगे विचार के लिये जाँच रिपोर्टों की प्रक्रिया करना और आवश्यक परामर्श के लिये केंद्रीय सतर्कता आयोग के पास मामले को भेजना शामिल है।

केंद्रीय जाँच ब्यूरो
Central Bureau of investigation (CBI)

  • केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) संघीय सरकार की भ्रष्टाचार निवारण मामलों की प्रधान जाँच एजेंसी है। यह भ्रष्टाचार से संबंधित कुछ विशिष्ट अपराधों अथवा अपराध के वर्गों और अन्य प्रकार के अनाचारों की, जिसमें लोकसेवक लिप्त हों, जाँच करने के लिये अपनी शक्तियों को दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम, 1946 (डीएसपीई अधिनियम) से प्राप्त करता है।
  • भ्रष्टाचार निवारण खंड भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के अंतर्गत पंजीकृत सभी मामलों और भारतीय दंड संहिता की अन्य धाराओं अथवा अन्य कानूनों के अंतर्गत अपराधों, यदि उन्हें घूसखोरी तथा भ्रष्टाचार के अपराधों के साथ किया गया हो, के मामलों की भी जाँच करता है।
  • विशेष अपराध खंड आर्थिक अपराधों और परंपरागत अपराधों के सभी मामलों की जाँच करता है जैसे कि आतंरिक सुरक्षा, जासूसी, तोड़-फोड़, नारकोटिक्स और मनोत्तेजक पदार्थ, पुरातन अवशेष, हत्या, डकैती/लूट, धोखाधड़ी, विश्वासघात, जालसाज़ी, दहेज के कारण मौतें, संदेहास्पद मौतें तथा अन्य अपराध और भारतीय दंड सहिता के अंतर्गत अन्य अपराध और डीएसपीई अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत अधिसूचित अन्य कानून।

राज्य सरकारों में सतर्कता प्रणालियाँ

  • राज्य सरकारों के स्तर पर इसी प्रकार के सतर्कता और भ्रष्टाचार निवारण संगठन विद्यमान हैं, यद्यपि राज्य सरकारों के बीच इन संगठनों की प्रकृति और कर्मचारी वर्ग में अंतर होता है। जहाँ एक ओर कुछ राज्यों में सतर्कता आयोग और भ्रष्टाचार निवारण ब्यूरो हैं, वहीं दूसरे राज्यों में लोकायुक्त हैं।
  • आंध्र प्रदेश में एक भ्रष्टाचार निवारण ब्यूरो, एक सतर्कता आयोग और एक लोकायुक्त हैं।
  • तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में सतर्कता कृत्यों पर निरीक्षण रखने के लिये सतर्कता आयोग है। तमिलनाडु का सतर्कता आयुक्त सरकार में सेवारत सचिव होता है जो कि इसके सचिव के रूप में कार्य करता है, यद्यपि वह सतर्कता आयुक्त की हैसियत से वार्षिक रिपोर्ट पेश करता है।
  • महाराष्ट्र में लोकायुक्त नाम से जाना जाने वाला ओम्बड्समैन (प्रशासन के विरुद्ध शिकायतों की जाँच करने वाला अधिकारी) और सतर्कता आयुक्त का एक संयुक्त बहु-सदस्यीय निकाय है, जिसका अध्यक्ष के रूप में उच्चतर न्यायपालिका का अवकाश प्राप्त सिविल सेवक उपाध्यक्ष के रूप में होता है।
  • असम, बिहार, गुजरात, जम्मू और कश्मीर, मेघालय और सिक्किम में सतर्कता आयुक्त हैं। संघ शासित क्षेत्रों में मुख्य सचिव सतर्कता आयुक्त होता है।
  • कुछ राज्यों ने संघ सरकार का प्रतिरूप अपनाया है और आतंरिक सतर्कता संगठनों का दो तरफा रिपोर्ट के उत्तरदायित्व के साथ गठन किया गया है जिसमें सतर्कता आयुक्त और विभागाध्यक्षों के कार्यालयों से संबद्ध यूनिटों के साथ विभागीय अध्यक्ष को रिपोर्ट देना तथा ज़िले की रिपोर्ट उच्चतर संघटकों और सतर्कता आयुक्त को देनी होती है।

लोकपाल

  • पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने लोकपाल व्यवस्था के गठन के लिये सिफारिश की थी। लोकपाल मंत्रियों और संसद सदस्यों की सत्यनिष्ठा पर निगरानी रखेगा।
  • लोकपाल बिल में लोक पदाधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने के लिये एक स्वतंत्र निकाय के रूप में लोकपाल के गठन का उपबंध किया गया है, जिसमें शिकायतों को फाइल करने और जाँच आदि की व्यवस्था की गई है।
  • सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप विभागीय तौर पर और केंद्रीय सतर्कता आयोग के अधीन केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा भी निपटाए जाते हैं।

प्रधानमंत्री एवं लोकपाल

  • वास्तव में संसदीय कार्यपालिका माॅडल, जो मंत्रिमंडल को विधानमंडल से लेते हैं, को अपनाने वाले सभी देशों में, प्रधानमंत्री देेश और सरकार का नेता होता है।
  • सरकार के प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित कार्यपालिका माॅडल में, संसद राष्ट्रपति को नहीं हटा सकती जो कि मुख्य कार्यपालक होता है और इसलिये महाभियोग की जटिल प्रक्रिया तथा ऐसे महाभियोग से पूर्व विशेष अभियोजकों द्वारा जाँच कराया जाना अनिवार्य होता है।
  • सरकार की जाँच एजेंसियों पर नियंत्रण और दबाव मंत्रियों का होता है और इसलिये प्रधानमंत्री के लिये मंत्रियों के पद के आचरण का प्रयोजनमूलक मूल्यांकन कर पाना कठिन होता है। अतः मंत्रियों में नैतिक आचार के उच्च मानदंडों को लागू करने में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त स्वतंत्र और निष्पक्ष निकाय मूल्यवान सिद्ध होंगे।
  • इसी प्रकार के कारण संसद सदस्यों पर भी लागू होते हैं क्योंकि संसद के समय और उसकी ताकत को किसी सदस्य के आचरण की विस्तृत जाँच करने में नहीं लगाया जा सकता। परंतु, सदस्यों को हटाए जाने का अंतिम निर्णय का अधिकार संसद में ही निहित है और मंत्री को हटाए जाने का काम प्रधानमंत्री की सलाह से ही होना चाहिये।
  • ठीक ऐसे ही सिद्धांत और तर्क राज्य के मुख्यमंत्री के संबंध में उचित बैठते हैं। मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार में शामिल करना नासमझी होगी।

सिफारिशें:

  • राष्ट्रीय लोकायुक्त के नाम से जाना जाने वाला एक राष्ट्रीय विधि प्रतिनिधि का प्रावधान करने के लिये संविधान में संशोधन किया जाना चाहिये। राष्ट्रीय लोकायुक्त की भूमिका और उसका कार्य क्षेत्र संविधान में परिभाषित किया जाना चाहिये जब कि रचना, नियुक्ति के प्रकार और अन्य ब्योरों का निर्णय संसद द्वारा कानून के माध्यम से लिया जा सकता है।
  • राष्ट्रीय लोकायुक्त का कार्य क्षेत्र केंद्र के सभी मंत्रियों (प्रधानमंत्री को छोड़कर), सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों, वे सभी लोग, जो केंद्रीय मंत्री के पद के समकक्ष सार्वजनिक पद पर आसीन हों और संसद सदस्य तक बढ़ा देना चाहिये।
  • राष्ट्रीय लोकायुक्त में अध्यक्ष के रूप में सर्वोच्च न्यायालय का एक सेवारत या अवकाश-प्राप्त न्यायाधीश, सदस्य के रूप में एक विशिष्ट विधिक और पदेन सदस्य के रूप में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त।
  • राष्ट्रीय लोकायुक्त के अध्यक्ष का चयन, भारत के उप राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, विपक्ष के नेता, लोक सभा के अध्यक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के उन आसीन न्यायाधीशों के पैनल में से किया जाएगा, जिनकी तीन वर्ष से अधिक की सेवा अवधि हो गई हो।
  • यदि किसी आसीन न्यायाधीश की नियुक्ति करना संभव न हो सके तो समिति सर्वोच्च न्यायालय के किसी अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की नियुक्ति कर सकती है। यही समिति राष्ट्रीय लोकायुक्त के सदस्य (अर्थात् किसी विशिष्ट विधिक) का चयन कर सकती है।
  • राष्ट्रीय लोकायुक्त के अध्यक्ष और सदस्य को तीन वर्ष की केवल एक ही अवधि के लिये नियुक्त किया जाना चाहिये और उसके बाद वे सरकार के किसी सार्वजनिक पद पर आसीन न हों। लेकिन अपवाद के रूप में यदि उनकी सेवाओं की आवश्यकता हो, तो वे भारत के मुख्य न्यायाधीश बनाए जा सकते हैं।

लोकायुक्त

  • लोकायुक्त सामान्यतः उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय का अवकाश प्राप्त न्यायाधीश होता है और सामान्य रूप से 5 वर्ष की अवधि के लिये मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, सदन का अध्यक्ष और विपक्ष के नेता के संयुक्त निर्णय के आधार पर नियुक्त किया जाता है।
  • तथापि, कई राज्यों में लोकायुक्त के पास अपना कोई स्वतंत्र जाँच प्राधिकार नहीं होता और इसलिये उसे जाँच करने के लिये सरकारी एजेंसियों पर निर्भर रहना पड़ता है।
  • महाराष्ट्र और ओडिशा के लोकायुक्तों के पास भ्रष्टाचार के मामलों के लिये ओम्बड्समैन के बजाय शिकायत निवारण संगठन अधिक हैं।
  • जहाँ एक ओर सभी राज्यों में लोकायुक्त भ्रष्टाचार के मुद्दों को देखते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ में वे अन्य शिकायतों को भी देखते हैं। कुछेक राज्यों में पदाधिकारियों की व्यापक संख्या को लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार में ला दिया गया है, जिनमें मुख्यमंत्री, उप कुलपति और सहकारिताओं के पदाधिकारी शामिल हैं। दूसरे राज्यों में बिल्कुल इसे प्रतिबंधित रूप में शामिल किया गया है।

सिफारिशें:

  • एक ऐसा प्रावधान लाने के लिये संविधान में संशोधन किया जाना चाहिये, जिसमें राज्य सरकारों के लिये लोकायुक्त का स्थापन करना अनिवार्य हो और इसकी संरचना, अधिकार तथा कार्यों के बारे में सामान्य सिद्धांतों का नियतन करे।
  • लोकायुक्त में एक बहु-सदस्यीय निकाय होना चाहिये, जिसमें अध्यक्ष पद पर न्यायिक सदस्य, सदस्य के रूप में एक निर्दोष प्रत्यय-पत्र वाला एक विशिष्ट विधिक या प्रशासक और पदेन-सदस्य के रूप में राज्य सतर्कता आयोग का अध्यक्ष।
  • लोकायुक्त के अध्यक्ष का चयन मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विधानसभा में विपक्ष के नेता की एक समिति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों अथवा उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीशों के पैनल से किया जाना चाहिये।  यही समिति, दूसरे सदस्य का चयन विशिष्ट विधिकों/प्रशासकों में से करेगी।
  • लोकायुक्त का कार्य क्षेत्र केवल भ्रष्टाचार में संलिप्त मामलों तक ही रहेगा। उन्हें सामान्य लोक शिकायतों की जाँच नहीं करनी चाहिये।
  • लोकायुक्त को मंत्रियों और विधायकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों को निपटाना चाहिये।
  • प्रत्येक राज्य में राज्य सरकार के अधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने के लिये एक राज्य सतर्कता आयोग का गठन किया जाना चाहिये। इस आयोग में तीन सदस्य होने चाहिये और इसके कार्य केंद्रीय सतर्कता आयोग के समान ही होने चाहिये।
  • भ्रष्टाचार निवारण ब्यूरो को राज्य सतर्कता आयोग के नियंत्रण में ले आना चाहिये।
  • लोकायुक्त का अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति सख्ती के साथ केवल एक ही अवधि के लिये होनी चाहिये और उसके बाद उन्हें सरकार के अधीन किसी सार्वजनिक पद को ग्रहण नहीं करना चाहिये।
  • लोकायुक्त के पास जाँच के लिये अपनी ही एक व्यवस्था होनी चाहिये। आरंभ में ये राज्य सरकार से अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर ले सकते हैं परंतु पाँच वर्षों की अवधि के बाद इसे अपना एक संवर्ग भर्ती करने के लिये कदम उठाना चाहिये और उन्हें उचित रूप से प्रशिक्षण देना चाहिये।
  • भ्रष्टाचार के सभी मामले राष्ट्रीय लोकायुक्त या लोकायुक्त को भेजे जाने चाहिये और इन्हें किसी जाँच आयोग को नहीं भेजा जाना चाहिये।

स्थानीय स्तर पर ओम्बड्समैन

  • संविधान के 73वें और 74वें संशोधनों में सरकार की तीसरी पालिका की शक्तियों और कृत्यों के विकेंद्रीयकरण को सरकार को लोगों के नज़दीक लाने और स्थानीय प्रशासन की जवाबदेही को बढ़ाने के लिये एक लोकतांत्रिक उपाय के रूप में सांविधिक आधार पर दृढ़ता के साथ स्थापित किया गया है।
  • आयोग का मत है कि स्थानीय निकायों (निर्वाचित सदस्य और अधिकारी) के विरुद्ध भ्रष्टाचार की शिकायतों को सुनने के लिये स्थानीय निकाय ओम्बड्समैन की व्यवस्था की जानी चाहिये। ऐसे ओम्बड्समैन का गठन ज़िलों के वर्ग के लिये किया जाना चाहिये।
  • स्थानीय निकाय ओम्बड्समैन को स्थानीय निकायों में लोक पदाधिकारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करने की शक्ति दी जानी चाहिये। उन्हें निर्वाचित सदस्यों के विरुद्ध कार्रवाई करने के अधिकार दिये जाने चाहिये यदि वे कदाचार के दोषी पाए जाते हैं।
  • इसके लिये राज्य पंचायती राज अधिनियमों और नगरपालिका अधिनियमों में ब्योरों का निर्धारण करने के लिये संशोधन करना होगा। स्थानीय निकाय ओम्बडस्मैन पर संपूर्ण रूप से निगरानी रखने का काम राज्य के लोकायुक्त में निहित होगा जिसे स्थानीय निकाय ओम्बड्समैन पर पुनरीक्षण की शक्तियाँ दी जानी चाहिये।

सिफारिशें:

  • स्थानीय निकायों के पदाधिकारियों के विरुद्ध मामलों की जाँच करने के लिये ज़िलों के समूह के लिये एक स्थानीय निकायों के कानूनी प्रतिनिधि का गठन किया जाना चाहिये। इस प्रावधान को शामिल करने के लिये राज्यों के पंचायत राज अधिनियमों और शहरी स्थानीय निकायों के अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिये।
  • स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि को स्थानीय स्वायत्तशासी सरकारों के पदाधिकारियों द्वारा भ्रष्टाचार और कुप्रशासन के मामलों की जाँच करने के लिये सशक्त किया जाना चाहिये और रिपोर्टों  को सक्षम प्राधिकारियों के पास कार्रवाई के लिये प्रस्तुत किया जाना चाहिये। सक्षम प्राधिकारियों को सामान्यतः वही कार्रवाई करनी चाहिये जिसकी सिफारिश की गई हो। यदि वे सिफारिशों से सहमत न हों तो उन्हें इनके कारणों को लिखित रूप में बताना चाहिये और इन कारणों को सार्वजनिक कर देना चाहिये।

जाँच और अभियोजन को सुदृढ़ करना

  • अभियोजन प्रायः भ्रष्टाचार निरोध कानून प्रवर्तन श्रृंखला की एक कमज़ोर कड़ी होता है और ऐसे उदाहरण हैं जहाँ अभियोजकों ने दोषी अधिकारी के निष्पादन को सुविधाजनक बनाया है। अतः यह आवश्यक है कि भ्रष्टाचार के मामले ऐसे कुशल अभियोजकों द्वारा निपटाए जाएँ जिनकी सत्यनिष्ठा और व्यावसायिक सक्षमता स्पष्ट हो।
  • आज के आधुनिक भ्रष्टाचार में लिप्त जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए जाँच एजेंसियों को आर्थिक, लेखा और लेखा परीक्षा, कानूनी, तकनीकी तथा वैज्ञानिक जानकारी, कौशल और जाँच के उपकरण के साधन उपलब्ध कराए जाने चाहिये। 
  • प्रवर्तन निदेशालय, आर्थिक आसूचना एजेंसियाँ  जैसी विविध प्रवर्तन और जाँच एजेंसियों के बीच, जिनमें प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर से संबंधित और राज्य की जाँच एजेंसियाँ शामिल हैं, अंतर-एजेंसी सूचना का विनिमय और परस्पर सहायता कपट और आर्थिक अपराधों के गंभीर मामलों का पर्दाफाश करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।

सिफारिशें:

  • राज्य सतर्कता आयोगों/लोकायुक्तों  को भ्रष्टाचार संबंधी मामलों की  कानूनी कार्रवाई पर निगरानी रखने के लिये सशक्त किया जाना चाहिये।
  • जाँच संबंधी एजेंसियों को विविध विषयों में दक्षता प्राप्त होनी चाहिये और वे विविध कार्यालयों/विभागों के कार्य संचालन से पूरी तरह से अवगत हों। उन्हें सरकार के विभिन्न स्कंधों से अधिकारियों को लेना चाहिये।
  • जाँच-पड़ताल की आधुनिक तकनीकों, जैसे कि इलेक्ट्रॉनिक निगरानी, अचानक निरीक्षण, घेरा डालना, तलाशी लेना और ज़ब्ती की आडियो और वीडियो रिकार्डिंग का प्रयोग किया जाना चाहिये।
  • विभिन्न प्रकार के मामलों की जाँच करने हेतु जाँच एजेंसियों के लिये एक यथोचित समय-सीमा नियत की जानी चाहिये।
  • पता लगाए गए और जाँच किये गए मामलों की संख्या में निरंतर वृद्धि होनी चाहिये। भ्रष्टाचार के ’बड़े’ मामलों पर केंद्रित रहते हुए प्राथमिकताओं को पुनः चुनने की आवश्यकता है।
  • भ्रष्टाचार के मामलों का अभियोजन यथास्थिति राष्ट्रीय लोकायुक्त या लोकायुक्त के परामर्श से महान्यायवादी अथवा महा अधिवक्ता द्वारा तैयार किये गए अधिवक्ताओं के पैनल द्वारा किया जाना चाहिये।
  • भ्रष्टाचार निवारण एजेंसियों को बहुत बडे भ्रष्टाचार में लिप्त होने का विशेष संदर्भ देते हुए विभागों के व्यवस्थित सर्वेक्षण का आयोजन करना चाहिये ताकि आसूचना को एकत्र करके संदेहास्पद छवि वाले अधिकारियों पर नज़र रखी जा सके।
  • राज्यों के आर्थिक अपराध यूनिट को मामलों की प्रभावशाली जाँच को मज़बूत करने की आवश्यकता है और वर्तमान एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय होना चाहिये।

सामाजिक ढाँचा
नागरिकों की पहल

  • नागरिकों की आवाज़ को भ्रष्टाचार की कलाई खोलने, उसे खत्म करने और उस पर रोक लगाने के लिये प्रभावकारी ढंग से प्रयोग किया जा सकता है।
  • इसमें नागरिकों को भ्रष्टाचार की बुराइयों के बारे में शिक्षा देने, उनके जागरूकता के स्तर को बढ़ाने और उन्हें ’आवाज़’ देकर उनकी भागीदारी प्राप्त करने में सिविल सोसाइटी और मीडिया को काम में लगाने की आवश्यकता है।
  • सिविल सोसाइटी से आशय यहाँ औपचारिक और अनौपचारिक अस्तित्वों से है और इसमें निजी क्षेत्र, मीडिया, गैर-सरकारी संगठन, व्यावसायिक संस्थाएँ और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों के अनौपचारिक वर्ग शामिल हैं।
  • हॉन्ग-कॉन्ग के इंडिपेंडेंट कमीशन एगेंंस्ट करप्शन (Independent Commission against Corruption-ICAC) ने पिछली एक-चैथाई शताब्दी से भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये सिविल सोसाइटी की योग्यता को सुदृढ़ करने के लिये अनुकरणीय परिणाम दिये हैं।
  • हॉन्ग-कॉन्ग में भ्रष्टाचार से लड़ने के बारे में समाज की चेतना को जगाने का श्रेय अधिकतर आईसीएसी द्वारा चलाए गए शक्तिशाली लोक शिक्षा अभियानों को जाता है।
  • राजस्थान में एक प्रख्यात गैर-सरकारी संगठन मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने नियोजन नामावलियों, वाउचरों, लाभार्थी सूचियों और पूर्ण तथा उपयोग किये गए प्रमाण पत्रों तक अपनी पहुँच द्वारा और फिर उसे ’जन सुनवाई’ नामक लोक सुनवाई में छानबीन के लिये संबंधित ग्रामवासियों को सौंप कर, स्थानीय लोक निर्माण में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करना शुरू किया।
  • दिल्ली में स्थित एक गैर-सरकारी संगठन ’परिवर्तन’ ने उचित मूल्य की दुकानों द्वारा रखे गए स्टाॅक रजिस्टरों पर पहुँच के लिये बार-बार ज़ोर देकर लोक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने के लिये सूचना अधिकार कानून का प्रयोग किया और यह पता लगाया कि चावल, गेहूँ तथा तेल जो जनता के लिये थे, उन्हें खुले बाज़ार में भेज दिया गया था।
  • सिविल सोसाइटी वर्गों की सफलतापूर्वक पहलों ने भ्रष्टाचार के साथ लड़ने में लोगों को शिक्षित करने और उनकी जागरूकता बढ़ाने में नाजुकता को रेखांकित किया है। यद्यपि, ऐसी पहलें सोसाइटी की ओर से की जाती हैं, फिर भी सरकार एक ऐसा वातावरण बना सकती है जिसमें नागरिकों के वर्ग भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने के प्रयासों में प्रभावकारी ढंग से भागीदार बन सकते हैं। इसे आसान करने के लिये कुछ उपाय इस प्रकार के हो सकते हैं:-

I. सरकारी कार्यक्रमों पर निगरानी रखने के लिये सिविल सोसाइटियों को आमंत्रित करना ;

II. सूचना तक पहुँच को लागू करके ;

III. भ्रष्टाचार के घटनाक्रमों पर सोसाइटी को शिक्षित करना और सत्यनिष्ठा में नैतिक वचनबद्धता को जगाना;

IV. राष्ट्रीय और स्थानीय स्तरों पर नियमित अंतरालों पर समस्याओं पर विचार करने और सभी भागीदारों को लिप्त करते हुए परिवर्तन के सुझाव देने के लिये सत्यनिष्ठा की कार्यशालाएँ और लोक सुनवाई का आयोजन करना ;

V. समय समय पर सार्वजनिक सेवा सुपुर्दगी का सर्वेक्षण करना और निर्धारण करना ;

VI. सरकारी संचालन के सामान्य या विशिष्ट क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की अवधारणाओं का सर्वेक्षण करना;

VII. शिक्षा के पाठ्यक्रमोंं में भ्रष्टाचार को एक विषय के रूप में लाना ;

नागरिकों का चार्टर

  • चार्टर एक घोषणा पत्र होता है जिसमें लोक सेवा संगठन नागरिकों को आश्वासन देता है कि वह घोषणा में निहित मानदंडों को पूरा करते हुए सेवा का उच्च स्तर प्रदान करेगा।
  • नागरिकों के चार्टर में लोक सेवाओं के लिये विशिष्ट उपबंधों और निर्धारित विशिष्ट दायित्वों का समावेश होना चाहिये तथा निर्धारित समय होना चाहिये जिसके भीतर विभाग किसी सेवा को प्रदान करने या किसी प्रश्न या शिकायत का उत्तर देने के लिये बाध्य होगा।

सरकारी कार्यालयों की रेटिंग

  • मुख्य सरकारी कार्यालयों और संस्थानों में जहाँ बड़ी संख्या में जनसंपर्क होता हो, वहाँ पर नैतिकता का मूल्यांकन करने और उनका रखरखाव करने में नागरिकों को लिप्त किया जा सकता है। यह मूल्यांकन राज्य, ज़िला और उप-ज़िले के स्तरों पर किया जा सकता है।
  • यह मूल्यांकन उन नागरिकों की अवधारणा से पेशेवर एजेंसियों की सहायता से किया जाए जो ऐसे कार्यालयों के संपर्क में रहे हों। सरकारी कार्यालयों में ऐसी व्यवस्था किये जाने की आवश्यकता है जिससे सभी आगंतुकों के डेटा बेस को रखा जा सके। पेशेवर एजेंसी को इन लोगों से संपर्क रखना चाहिये और उनका फीडबैक लेना चाहिये। इस फीडबैक के आधार पर लोक कार्यालय को एक रेटिंग दी जानी चाहिये।

नागरिकों की भागीदारी को प्रोत्साहन देने की नीति

  • नागरिकों की भागीदारी को प्रोत्साहन देने की नीति का सक्रिय रूप से अनुसरण किया जाना चाहिये।
  • मिथ्या दावा कानून का अधिनियमन करना नागरिकोें की भागीदारी को प्रोत्साहन दिये जाने का एक साधन है।
  • समाज में अभिवृत्तीय परिवर्तन लाने के बारे में स्कूल जागरूकता कार्यक्रम बहुत प्रभावी हो सकते हैं। ऐसे कार्यक्रम उच्च विद्यालयों में आदर्शतः लिये जाते हैं और इन्हें लोकतंत्र में नागरिकों की भूमिका के संबंध में, सिविल सोसाइटी की भूमिका, भ्रष्टाचार के हानिकारक प्रभाव, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में सामूहिक कथनों के सिद्धांत, लोक संस्थानों के संचालन को सामने लाने आदि के संबंध में छात्रों को शिक्षित किया जाना चाहिये।
  • नए प्रोत्साहन शुरू किये जाने की आवश्यकता है ताकि लोग भ्रष्ट लोक अधिकारियों के गलत कामों को सामने लाने को प्रेरित हो सकें।

सिफारिशें:

  • नागरिकों के चार्टर को सेवा स्तरों का निर्धारण करके असरदार बनाया जाना चाहिये और यदि ये सेवा स्तर पर खरे नहीं उतरते हैं तो उसका उपचार किया जाना चाहिये।
  • महत्त्वपूर्ण सरकारी संस्थानों और कार्यालयों में नैतिकता का आकलन और उसे बनाए रखने हेतु नागरिकों को शामिल करना चाहिये।
  • नागरिकों की पहल को बढ़ावा देने के लिये पारितोषिक योजनाओं को लाना चाहिये।
  • स्कूल जागरूकता कार्यक्रमों को अमल में लाया जाना चाहिये, जिसमें नैतिकता के महत्त्व और भ्रष्टाचार कैसे खत्म किया जा सकता है, पर प्रकाश डाला जाना चाहिये।

मिथ्या दावा अधिनियम

  • संयुक्त राज्य की ओर से नागरिकों को संघीय न्यायालयों में सिविल मुकदमा फाइल करने का अधिकार है। संयुक्त राज्य सरकार को ऐसी घटना की सूचना दी जाती है और सरकार को ऐसे मामलों में एक वादी की तरह से स्वयं मुकदमा लड़ना चाहिये।

सिफारिशें:

  • संयुक्त राष्ट्र मिथ्या दावा अधिनियम की तर्ज पर कानून लाया जाना चाहिये जिसमें नागरिकों और नागरिक-सामाजिक वर्गों के लिये सरकार के विरुद्ध कपटपूर्ण दावों के लिये कानूनी राहत का प्रावधान हो। इस कानून में निम्नलिखित घटक होने चाहिये:

I. किसी भी नागरिक को सरकार के विरुद्ध झूठे दावे के लिये किसी व्यक्ति या एजेंसी के विरुद्ध मुकदमा करने के योग्य होना चाहिये।

II. यदि झूठे दावे को कानूनी अदालत में सिद्ध कर लिया जाता है तो उत्तरदायी व्यक्ति/एजेंसी, राजस्व या समाज की हुई हानि के पाँच गुना के बराबर जुर्माना देने के लिये ज़िम्मेदार होगा।

III. यह हानि आर्थिक भी हो सकती है अथवा प्रदूषण के रूप में अनार्थिक अथवा अन्य सामाजिक लागतों में हो सकती है। अनार्थिक हानि के मामले में न्यायालय को अधिकार होगा कि वह इस हानि का आर्थिक रूप में आकलन करे।

IV. मुकदमा करने वाला व्यक्ति वसूल की गई क्षति में से उपयुक्त प्रतिपूर्ति पा सकता है।

मीडिया की भूमिका

  • एक स्वतंत्र मीडिया की भ्रष्टाचार रोकने, अनुवीक्षण करने और नियंत्रण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसा मीडिया जनता को भ्रष्टाचार पर सूचना और शिक्षा दे सकता है जो सरकार में निजी क्षेत्र और सिविल सोसाइटी संगठनों में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करता है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपने को नीतिबद्ध करते हुए आचार संहिता पर निगरानी में सहायता करता है।
  • भारत में समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों के मानकों को सुधारने और रखरखाव के लिये प्रेस परिषद को पुनर्गठित किया गया था। भारतीय प्रैस परिषद ने प्रिंट मीडिया के लिये आचार संहिता निर्धारित की है। तथापि, ऐसी कोई संहिता इलेक्ट्राॅनिक मीडिया के लिये अस्तित्व में नहीं है।
  • सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक ड्राफ्ट प्रसारण सेवाएँ विनियामक बिल तैयार किया है, जिसमें भारतीय प्रसारण विनियामक प्राधिकरण के गठन का प्रस्ताव है जिसमें इलेक्ट्राॅनिक मीडिया सहित लाइसेंस और निगरानी दोनों कार्यों को शामिल किया जाएगा।

सिफारिशें:

  • मीडिया द्वारा सभी आरोपों/शिकायतों के लिये आवश्यक समुचित जाँच के लिये मानदंड और प्रणाली को अपनाया जाना और उन्हें जनता के सामने लाने के लिये कार्रवाई करना आवश्यक है।
  • इलेक्ट्राॅनिक मीडिया को एक आचार संहिता और स्वयं नियंत्रण व्यवस्था अपनानी चाहिये ताकि आचार संहिता का दुर्भावनापूर्ण कार्रवाई के विरुद्ध एक सुरक्षण के रूप में पालन किया जा सके।
  • मीडिया को भ्रष्टाचार मामलों के बारे में नियमित रूप से ब्योरे देकर सरकारी एजेंंसियाँ भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई में सहायता कर सकती हैं।

सामाजिक लेखा-जोखा

  • सामाजिक लेखा-जोखा गलत काम की रोकथाम और उस पर सूचना को प्रकाश में लाने का एक और साधन है।

सिफारिशें:

  • सभी विकासशील स्कीमों के प्रचालन के दिशा-निर्देश और नागरिक केंद्रस्थ कार्यक्रमों में सामाजिक लेखापरीक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिये।

सामाजिक सर्वसम्मति बनाना

  • भ्रष्टाचार से लड़ते समय समाज को भ्रष्टाचार-मुक्त बनाने के महत्त्व पर व्यापक सर्वसम्मति बनाना आवश्यक होता है। उस दृष्टि से यह आवश्यक है कि राजनीतिक दल जिनकी शासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका और उत्तरदायित्व है, भ्रष्टाचार-निरोधी एजेंडों को तैयार करें।

सर्वांगी सुधार

  • भ्रष्टाचार का मुकाबला करने के लिये दंडात्मक और रोकथाम उपायों के अनुकूलतम मिले-जुले रूप की आवश्यकता है। दंडात्मक उपाय निवारण भ्रष्टाचार का काम करते हैं, जबकि रोकथाम के उपाय व्यवस्था में पारदर्शिता लाकर, जवाबदेही बढ़ाकर, विवेक को कम करके, कार्य-पद्धतियों को तर्कसंगत करने आदि से भ्रष्टाचार के अवसर कम कर देते हैं।
  • बेहतर रोकथाम उपाय ’सर्वांगी सुधारों’ का काम करते हैं क्योंकि वे प्रणालियों और प्रक्रियाओं में सुधार लाते हैं। इस दिशा में हाल ही के वर्षों में उठाए गए कुछ कदमों की सूची नीचे दी गई है:

♦ रेलवे यात्री आरक्षण (भारतीय रेलवे): रेलवे यात्री आरक्षण, जिसमें ’ऑनलाइन’ आरक्षण और ई-टिकटिंग शामिल है, के कंप्युटरीकरण ने मध्यस्थों को हटा दिया है, आरक्षण कार्यालयों को कम भीड़भाड. वाला कर दिया है और रेलवे आरक्षण प्रक्रिया में पर्याप्त पारदर्शिता ला दी है।

♦ ई-पुलिस (पंजाब): इसमें शिकायतों के ऑनलाइन पंजीकरण और उनका व्यवस्थित रूप से अनुवर्तन सुनिश्चित किया जाना है जिससे शिकायतकर्त्ताओं को शिकायत के नतीजे का और उनकी शिकायतोंं का ऊँचे स्तर के पुलिस अधिकारी किस प्रकार से निपटान करते हैं, इस पर ’वास्तविक समय’ में निगरानी रखने के लिये उच्च पुलिस स्तरों का पता चल सके।

♦ आंध्र प्रदेश में ई-गवर्नेंस (ई-सेवा), और केरल (फ्रेंड्स अर्थात् फास्ट, रिलाएबल, इन्स्टैंट, इफेक्टिव नेटवर्क फार डिस्ट्रीब्यूशन आफ सर्विसेज़): इनके द्वारा सरकार और नागरिकों के बीच लेनदेन को सरलीकृत करते हुए, बिलों के भुगतान अथवा विभिन्न सेवाओं की सुविधा एक ही प्लेटफार्म पर प्रदान करने हेतु सूचना तकनीक का प्रयोग सुधरी हुई सेवा प्रदान की जाती है। किसानों को अपने उत्पादन को बेचने के लिये मध्य प्रदेश में ’ई-चैपाल’ की पहल भी उल्लेखनीय है।

प्रतिस्पर्द्धा विकसित करना:

  • भारत में अधिकतर सार्वजनिक सेवाएँ सरकार द्वारा एकाधिकारिक वातावरण में प्रदान की जाती हैं। भ्रष्टाचार को रोकने के लिये सार्वजनिक सेवाओं की व्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा के घटक का आरंभ कर देना एक बहुत ही लाभदायक हथियार है।
  • इस संबंध में सफलतापूर्वक आरंभ की गई दो सेवाओं का उल्लेख किया जा सकता है: पहला, दूरसंचार क्षेत्र का धीरे धीरे एकाधिकार से मुक्त होना और दूसरा, मध्य प्रदेश में सरकारी नियंत्रण की मंडियों के बाहर किसानों को प्रत्यक्ष बाज़ार की सेवाएँ प्रदान करने में निजी क्षेत्रों की बढ़ती हुई भूमिका।

सिफारिशें:

  • प्रत्येक मंत्रालय/विभाग को उन इलाकों का पता लगाने के लिये तत्काल प्रयोग करना चाहिये, जहाँ वर्तमान ’कार्यों के एकाधिकार’ को प्रतिस्पर्द्धा के साथ संयोजित किया जा सके। इसी प्रकार का प्रयोग राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों के स्तर पर किया जा सकता है।

♦ इस प्रयोग को एक समय-सीमा में बांध कर जैसे कि एक वर्ष की अवधि के लिये और कार्यों पर  एकाधिकार को कम करने हेतु एक नक्शा बनाया जाना चाहिये।

♦ कार्य निष्पादन को निर्धारित मानकों के अनुसार सुनिश्चित करने के लिये नियंत्रण की व्यवस्था के साथ-साथ प्रतिस्पर्द्धा को भी लाना चाहिये ताकि जनहित के साथ कोई समझौता न किया जा सके।

  • कुछ केंद्रीय प्रायोजित स्कीमों का पुनर्गठन किया जा सकता है ताकि उन राज्यों को प्रोत्साहन दिया जा सके जो सेवा सुपुर्दगी में प्रतिस्पर्द्धा को विकसित करने के लिये कदम उठाते हों।
  • उन विषयों पर सभी नई राष्ट्रीय नीतियाँ, जिनमें जनता के साथ बड़े स्तर पर समन्वय होता हो, (और ऐसे विषयों पर वर्तमान नीतियों में संशोधन से), स्पष्ट रूप से प्रतिस्पर्द्धा को जन्म देने के मुद्देे को निपटाएंगी।

लेन-देनों को सरलीकृत करना

  • भ्रष्टाचार के शुरू होने और उसमें बढ़ोतरी होने के बीच संबंध और कार्य के तौर-तरीकों की जटिल प्रकृति को विस्तार से बताने की आवश्यकता नहीं है।

सिफारिशें:

  • प्रशासनिक सुधार के केंद्रबिंदु में कार्य-प्रणालियों को आसान बनाने की आवश्यकता है। विशिष्ट क्षेत्रीय आवश्यकताओं को छोड़कर ऐसे सुधारों के मुख्य सिद्धांत होने चाहिये: ’एकल खिड़की’ व्यवस्था को अपनाना, राजतंत्र की कतार को कम करना, निपटान के लिये समय सीमा निर्धारित करना आदि।
  • विभागाध्यक्षों द्वारा उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान विभागीय नियम पुस्तकों और कोडों की और उन्हें सरलीकृत किया जाना, ऐसे कागजातों को समय-समय पर अद्यतन करना और सॉफ्ट प्रतियों को ऑनलाइन तथा हार्ड प्रतियों को बिक्री के लिये उपलब्ध कराना। इन नियम पुस्तकों को बहुत ही संक्षेप में लिखा जाना चाहिये और ’के विवेक पर छोड़ा गया’ ’यथासंभव’ ’उपयुक्त निर्णय ले लिया जाए’ आदि जैसे उप-वाक्यों को लिखने से बचें। इस बात को अनुमतियोें, लाइसेंसों आदि जारी करने के सभी नियमों और विनियमों के लिये अपनाया जाना चाहिये।
  • प्रत्येक सरकारी संगठन में कार्य-प्रणालियों के सरलीकरण और उन्हें निरंतर उपयोग में लाने के लिये पुरस्कार और मानदेयों की व्यवस्था को आरंभ किया जाना चाहिये।
  • ’सकारात्मक चुप्पी’ के सिद्धांत का सामान्यतः प्रयोग किया जाना चाहिये, यद्यपि यह सिद्धांत सभी मामलों में नहीं अपनाया जा सकता। जहाँ कहीं भी अनुमतियों/लाइसेंसों आदि को जारी किया जाना हो, उनकी प्रक्रिया के लिये एक समय सीमा होनी चाहिये जिसके पश्चात् अनुमति को प्रदान की गई समझी जानी चाहिये, यदि यह अनुमति पहले से न दी गई हो। तथापि, नियमों मेें यह व्यवस्था होनी चाहिये कि ऐसे किसी मामले में विलंब किये जाने हेतु ज़िम्मेदार अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाई हो।

सूचना तकनीक का प्रयोग किया जाना

  • सरकार का अपने संघटकों, नागरिकों और व्यवसायियों के साथ संबंधों और इसके अपने वर्गों के बीच संबंधों को आधुनिक तकनीकों जैसे कि सूचना और संचार तकनीक (ICT) का प्रयोग करके देखा जा सकता है।
  • डिजिटल क्रांति में शासन में परिवर्तन लाने और प्रक्रियाओं तथा व्यवस्थाओं को पुनः अर्थपूर्ण बनाने की शक्ति है। इसका सबसे बड़ा प्रभाव सूचना और डेटा तक इसकी पहुँच में, प्रबंध सूचना प्रणालियों का निर्माण करने और इलेक्ट्राॅनिक सेवा सुपुर्दगी के क्षेत्र में है।
  • मध्य प्रदेश में ज्ञानदूत परियोजना इसका एक उदाहरण है। इसमें नीलामी केंद्रों पर विद्यमान कृषि उपज मूल्यों के बारे में सूचना और भूमि अभिलेखों की प्राप्तियाँ प्राप्त करने के लिये सरल प्रक्रियाएँ प्रदान की जाती हैं। इसमें विविध बाज़ार केंद्रों और ग्रामों से निम्न लागत पर इंटरनेट संपर्क स्थापित करना शामिल है।
  • ज्ञानदूत का एक रोचक पहलू यह है कि परियोजना का सारा खर्च पंचायतों और स्थानीय समुदाय द्वारा उठाया गया है।
  • दूसरा उदाहरण, कर्नाटक में भूमि परियोजना है जिसके अंतर्गत राज्य में 6.7 मिलियन किसानों के भू-स्वामित्व के 20 मिलियन अभिलेखों का कंप्यूटरीकरण किया गया था। इससे पहले किसानों को अधिकारों, किराएदारी और फसलों (आरटीसी) के अभिलेखों की प्रति लेने के लिये ग्राम राजस्व अधिकारी के पास जाना पड़ता था।
  • उत्कृष्ट आधार संरचना का अभाव और कर्मचारियों की अपर्याप्त क्षमता ई-गवर्नेंस के प्रचार में मुख्य बाधा सिद्ध हुई है। विभागीय अधिकारियों को संगत प्रक्रियाओं से परिचित कराने और उनकी क्षमताओं की ओर बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

सिफारिशें:

I. सरकार के प्रत्येक मंत्रालय/विभाग/संगठन को शासन में सुधार लाने हेतु सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग के लिये एक योजना बनानी चाहिये। किसी भी सरकारी प्रक्रिया में सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग वर्तमान कार्यप्रणालियों को पूरी तरह से पुनः अभियंत्रीकृत करने के बाद ही किया जाना चाहिये।

II. सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को कुछ सरकारी प्रक्रियाओं का पता लगाकर उन्हें राष्ट्रीय पैमाने पर कंप्यूटरीकृत करने की परियोजना को हाथ में लेने की आवश्यकता है।

III. कंप्यूटरीकरण को सफल बनाने के लिये विभागीय अधिकारियों की कंप्यूटर के संबंध में जानकारी बढ़ाने की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार, राष्ट्रीय सूचना केंद्र को भी विभाग विशिष्ट गतिविधियों में प्रशिक्षित होने की आवश्यकता होती है, ताकि वे एक-दूसरे के विचारों को समझ सकें और यह भी सुनिश्चित कर सकें कि प्रौद्योगिकी प्रदान करने वाले प्रत्येक विभाग की रचना को समझ सकें।

पारदर्शिता को बढ़ावा देना

  • भारत ने सूचना अधिकार अधिनियम 2005 के अधिनियमन के साथ प्रशासन में पारदर्शिता की ओर एक मुख्य कदम उठाया।

सत्यनिष्ठा के लिये करार

  • ‘सत्यनिष्ठा के लिये समझौता’ एक ऐसी व्यवस्था है जो पारदर्शिता बढ़ाने और जनता के साथ अनुबंध में विश्वास पैदा करने में सहायता प्रदान कर सकती है। इन शब्दों का प्रयोग सामान और सेवाओं की वसूली में लिप्त सार्वजनिक एजेंसियों और सार्वजनिक संविदा के लिये बोली लगाने वाले के बीच में इस बात का करार करने में किया जाता है कि बोली देने वालों ने विचाराधीन संविदा को प्राप्त करने में किसी गैर-कानूनी पारितोषिक का भुगतान नहीं किया है और न ही वह यह भुगतान करेगा।

सिफारिश:

  • आयोग ’सत्यनिष्ठ समझौते’ की व्यवस्था को प्रोत्साहन देने की सिफारिश करता है।
  • वित्त मंत्रालय को विधि और कार्मिक मंत्रालयों के प्रतिनिधियों के साथ एक कार्यदल का गठन करना चाहिये जो ऐसे समझौतों के लिये अपेक्षित व्यवहार का पता लगाकर ऐसे समझौते के लिये एक नवाचार का प्रावधान करे।
  • विशेष रूप से यह कार्यदल सिफारिश कर सकता है कि क्या ऐसे समझौतों को लागू करने के लिये वर्तमान कानूनी ढाँचे जैसे कि भारतीय संविदा अधिनियम और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम में कोई संशोधन करने की ज़रूरत है।

विवेकशीलता को कम करना

  • विवेकशीलता को घटाकर और व्यवस्था में अधिकतम पारदर्शिता लाकर किये गए कृत्यों के लिये कड़ी जवाबदेही सुनिश्चित कर ऐसे अवसरों को न्यूनतम किया जा सकता है। सबसे अधिक सफल भ्रष्टाचार निरोध सुधार वे हैं जो ऐसे विवेकशीलता के लाभों को कम कर देते हैं जो कि लोक अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किये जाते हों।

पर्यवेक्षण

  • अधिकतर सरकारों और उनकी एजेंसियों के पास धर्माधिकारी तंत्र का ढाँचा होता है। ऐसे ढाँचे में प्रत्येक पदाधिकारी के महत्त्वपूर्ण कामों में से एक काम यह होता है कि वह ठीक अपने नीचे के अधीनस्थ अधिकारी के कार्य पर नज़र रखे, जो कि उसे रिपोर्ट करता हो/करती हो।
  • किसी कार्यालय या संगठन में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करना कार्यालय के अध्यक्ष की प्राथमिक ज़िम्मेदारी होनी चाहिये। फिर, सभी सरकारी कार्यालयों/एजेंसियों में अधिकारी वर्गीय ढाँचा होता है, प्रत्येक को अपने नीचे के स्तर पर विद्यमान भ्रष्टाचार को न्यूनतम करने, रोकथाम हेतु कदम उठाने के लिये उत्तरदायी होना चाहिये।

सिफारिशें:

  1. अधिकारियों की निगरानी संबंधी भूमिका पर पुनः ज़ोर दिये जाने की आवश्यकता है। यह पुनः उल्लेख कर देना आवश्यक होगा कि पर्यवेक्षी अधिकारी अपने संबद्ध कर्मचारियों के बीच भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये मुख्य तौर पर ज़िम्मेदार हैं और इस प्रयोजन के लिये उन्हें सभी रोकथाम के उपाय करने चाहिये।
  2. प्रत्येक पर्यवेक्षी अधिकारी को अपने संगठन/कार्यालय में गतिविधियों का विश्लेषण सावधानी से करना चाहिये, ऐसी गतिविधियों का पता लगाना चाहिये जिनसे भ्रष्टाचार फैलता हो और फिर रोकथाम और सतर्कता के उचित उपाय करने चाहिये। सरकार अथवा जनता को अधिकारियों के कृताकृत कामों के द्वारा हुए नुकसान के सभी प्रमुख मामलों की जाँच की जानी चाहिये और एक निश्चित समयबद्ध अवधि में त्रुटिपूर्ण अधिकारी पर उत्तरदायित्व नियत किया जाना चाहिये।
  3. प्रत्येक अधिकारी की वार्षिक निष्पादन रिपोर्ट में एक स्तंभ होना चाहिये जहाँ अधिकारी को यह प्रकट करना चाहिये कि उसने अपने कार्यालय और अपने अधीनस्थ लोगों के बीच भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने के लिये क्या-क्या उपाय किये। रिपोर्ट अधिकारी को फिर उस पर अपनी विशेष टिप्पणी देनी चाहिये।
  4. उन पर्यवेक्षी अधिकारियों को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिये कहा जाना चाहिये जो अपने अधीनस्थ भ्रष्ट अधिकारियों को उनकी वार्षिक निष्पादन रिपोर्टों में साफ छवि का प्रमाण पत्र दे देते हैं, यदि उस अधिकारी पर, जिसकी रिपोर्ट लिखी जा रही हो, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत अपराध का आरोप है। इसके अतिरिक्त, उनकी रिपोर्टों में यह तथ्य दर्ज किया जाना चाहिये कि उन्होंने अपने अधीनस्थ भ्रष्ट अधिकारियों की सत्यनिष्ठा के बारे में कोई विपरीत टिप्पणी नहीं दी है।
  5. पर्यवेक्षी अधिकारियों को सुनिश्चित करना चाहिये कि उनके अधीन सभी कार्यालय सूचना अधिकार अधिनियम के अधीन सूचना के ब्योरे स्वप्रेरणा से दे देने की नीति का अनुसरण करते हैं।

पहुँच और दायित्व सुनिश्चित करना

  • प्रशासनिक सुधार पर रूस्तमजी समिति ने विभिन्न विभागों में नागरिकों द्वारा अपेक्षित 187 सेवाओं का पता लगाया था और उनके निपटान के लिये समय सीमा-नियत की थी।

सिफारिशें:

  • सेवा प्रदानकर्त्ताओं को अपनी गतिविधियों को केंद्रीकृत करना चाहिये ताकि सभी सेवाओं की एक ही बिंदु पर सुपुर्दगी की जा सके। ऐसे सामान्य सेवा बिंदुओं के लिये किसी एजेंसी को आउटसोर्स भी किया जा सकता है, जिसे नागरिकों के अनुरोध को संबंधित एजेंसियों के साथ उठाए जाने का काम दिया जा सकता है।
  • ऐसे कार्यों को जिनसे भ्रष्टाचार फैलता हो, विभिन्न गतिविधियों में विभाजित किया जाना चाहिये, जिन्हें विभिन्न लोगों को सौंपा जा सकता है।
  • सार्वजनिक संपर्क को अभिहित अधिकारियों तक ही सीमित रखा जाना चाहिये। नागरिकों को फाइल निगरानी व्यवस्था के साथ सूचना और सेवाएँ प्रदान करने के लिये ’एकल खिड़की का मुख्य कार्यालय’ सभी विभागों में गठित किया जाना चाहिये।

शिकायतों की निगरानी रखना

  • शिकायत का विकल्प, एक नागरिक के लिये में अपनी परेशानी का निवारण कराने में एक महत्त्वपूर्ण साधन होता है। अक्सर इन शिकायतों पर बाकायदा ध्यान नहींं दिया जाता।

सिफारिशें:

  • ऐसे सभी कार्यालयों में जहाँ बड़ी संख्या में सार्वजनिक संपर्क होता हो, वहाँ ऑनलाइन शिकायत निगरानी व्यवस्था होनी चाहिये। यदि संभव हो, तो शिकायत निगरानी का काम आउटसोर्स द्वारा किया जाना चाहिये।
  • ऐसे कार्यालयों में जहाँ बड़ी संख्या में सार्वजनिक संपर्क होता हो, वहाँ शिकायतों के लेखा परीक्षण का बाहरी, सावधिक तंत्र होना चाहिये।
  • प्रत्येक शिकायत की जाँच और यदि कोई त्रुटियाँ हों तो उसका उत्तरदायित्व नियत करने के अतिरिक्त, शिकायत का प्रयोग व्यवस्थित त्रुटियों का विश्लेषण करने के लिये भी किया जाना चाहिये ताकि उपचारी उपाय किये जा सकें।

सिविल सेवाओं में सुधार करना

  • प्रशासनिक व्यवस्था का रूप बदला जाना चाहिये ताकि सिविल सेवा के प्रत्येक स्तर पर ढाँचाबद्ध और अंतः कीलित जवाबदेही के साथ कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों का स्पष्ट आबंटन हो सके जिसमें सरकारी सेवक उस ढंग से जवाबदेह ठहराया जा सके, जिस ढंग से वह अपना कर्त्तव्य निभाता/निभाती हो।
  • ऐसा आवंटन विशिष्ट और स्पष्टता पूर्वक होना चाहिये और इसमें ठोस रूप में नियंत्रण अधिकारियों का निरीक्षण और निगरानी के उत्तरदायित्व शामिल होने चाहिये।
  • इनामों और दंडों की एक अन्तःनिर्मित व्यवस्था होनी चाहिये जिसमें एक ऐसा मानदंड अधिकथित होना चाहिये जो इनामों को प्रदान करने और दंड दिये जाने में मनमाने ढंग और व्यक्तिनिष्ठता को दूर कर सके। इस समय मेहनत और कार्यकुशलता से काम करने के लिये कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता और काम से जी चुराने, भ्रष्टाचार में लिप्त होने या कार्यकुशलता के स्वीकार्य स्तर को प्राप्त करने में विफल होने पर भी कोई विपरीत परिणाम नहीं भुगतनना पड़ता।
  • वर्तमान समय में, कार्य का केवल लेखा-जोखा ही नहीं तैयार किया जाता, बल्कि किसी अधिकारी की शक्ति, कमज़ोरियों और उसकी प्रतिष्ठा का पता लगाने की पुरानी व्यवस्था भी अब अतीत की बात हो गई प्रतीत होती है।  यह सही समय है कि अधिकारियों के कार्य निष्पादन का समय-समय पर अनुवीक्षण और उद्देश्यपूर्ण मूल्यांकन करने के लिये काम के लेखा-जोखा की एक यंत्रवत् व्यवस्था सिविल सेवा के हर स्तर के लिये आरंभ की जाए।

रोकथाम के लिये जोखिम प्रबंधन

  • सरकार में विविध पदों को ’भ्रष्टाचार का उच्च जोखिम’, ’भ्रष्टाचार का मध्यम जोखिम’ और ’भ्रष्टाचार का निम्न जोखिम’ में वर्गीकृत करना संभव हो सकता है।
  • भ्रष्टाचार रोकने के लिये एक जोखिम प्रबंध व्यवस्था को यह सुनिश्चित करते हुए जोाखिम को कम करना चाहिये कि ’निम्न जोखिम वाले कार्मिक’ को ’उच्च जोखिम वाले काम’ या इसके विपरीत कार्य दिये जाएँ। यह काम कुशलतापूर्वक तभी हो पाएगा जब जोखिम प्रोफाइल का काम विभिन्न कार्यों के लिये किया जाए और सरकारी सेवकों के बारे में ही किया जाए।
  • पुनः नियोजन नीति को ’निम्न जोखिम वाले कार्मिकों’ को ’उच्च जोखिम वाले कामों’ में लगा कर सुनिश्चित किया जा सकता है।
  • सरकारी अधिकारियों की जोखिम प्रोफाइल इस दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है कि वर्तमान कार्य निष्पादन मूल्यांकन व्यवस्था एक रिपोर्ट लिखने वाले अधिकारी को ’विपरीत टिप्पणी लिखने को हतोत्साहित करती है। फिर, किसी अधिकारी की  रिपोर्ट लिखने वाले अधिकारी द्वारा दी गई विपरीत टिप्पणी के आधार पर उसे ’उच्च’ जोखिम वाला अधिकारी वर्गीकृत करना ठीक नहीं होगा।
  • अतः यह ठीक होगा यदि अधिकारियों की जोखिम प्रोफाइल का काम ’प्रतिष्ठित व्यक्तियों’ की एक समिति द्वारा किया जाए और ऐसा तब किया जाए जब अधिकारी ने सेवा के 10 वर्ष पूरे कर लिये हों और फिर प्रत्येक पाँच वर्षों में एक बार किया जाए।

सिफारिशें:

  • नौकरियों के जोखिम की रूपरेखा को सभी सरकारी संगठनों में अधिक व्यवस्थित ढंग से और संस्थागत तरीके से तैयार करने की आवश्यकता है।
  • अधिकारियों के जोखिम की रूपरेखा, उसके दस वर्ष की सेवा पूरी कर लेने के बाद और तत्पश्चात् प्रत्येक पाँच वर्षों में एक बार ’प्रतिष्ठावान व्यक्तियोंं’ की समिति द्वारा की जानी चाहिये। समिति को किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिये निम्नलिखित इनपुटों का प्रयोग करना चाहिये:-

♦ रिपोर्ट अधिकारी का निष्पादन मूल्यांकन
♦ रिपोर्ट अधिकारी द्वारा किया गया स्व मूल्यांकन, जिसमें उसने अपने व्यवसाय के दौरान भ्रष्टाचार को रोकने के लिये प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया हो।
♦ सतर्कता संगठन की रिपोर्टें
♦ समिति द्वारा किसी मूल्यांकन प्रपत्र के माध्यम से गोपनीय रूप से किया गया किसी समकक्ष व्यक्ति का मूल्यांकन।

लेखा परीक्षा

  • लेखा परीक्षा प्राधिकारी प्रायः भ्रष्टाचार निरोधी निकायों को वह सूचना नहीं देते जो गंभीर अनियमितताओं के संबंध में उनकी जानकारी में आती हैं, जिसमें आपराधिक कदाचार लिप्त होता है। यह सूचना भ्रष्टाचार निरोधी निकायों को तब ज्ञात होती है जब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की लेखा परीक्षा रिपोर्ट यथास्थिति संसद या राज्य विधान के समक्ष रखी जाती है।

सिफारिशें:

  • यह निर्धारित किया जाना चाहिये कि ज्योंही लेखा परीक्षा दल द्वारा किसी बड़ी अनियमितता का पता चले या अंदेशा हो तो सरकार द्वारा उस पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिये। इसके लिये एक समुचित व्यवस्था बनाकर रखी जानी चाहिये। कार्यालय प्रमुख का यह उत्तरदायित्व होगा कि वह किसी ऐसी अनियमितता की जाँच करके कार्रवाई शुरू करे।
  • लेखा परीक्षा दलों को अदालती लेखा परीक्षा में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये।
  • प्रत्येक कार्यालय को लंबित लेखा परीक्षा के प्रश्नों के बारे में वार्षिक लोक विवरण तैयार करना चाहिये।

भ्रष्टाचार पर सक्रिय सतर्कता

  • रोकथाम की सतर्कता का वर्तमान दृष्टिकोण 1964 में संथानम समिति की सिफारिशों पर आधारित है। सक्रिय सतर्कता में मुख्य ज़ोर संदिग्ध भ्रष्ट घटकों का पता लगाने पर होता है और फिर उन्हें समाप्त करने के लिये किसी व्यवस्था को निर्धारित करना होता है या यह सुनिश्चित करना होता है कि वे संवेदनशील पदों को ग्रहण न कर सकें। इस संबंध में निम्नलिखित मुख्य स्रोतों का अपनाया जाता है:

♦ संदिग्ध निष्ठा वाले अधिकारियों की सूची
♦ शंकायुक्त अधिकारियों की सहमत सूची
♦ अनापेक्षित लोगों की सूची
♦ वार्षिक संपत्ति विवरणी
♦ सतर्कता स्वीकृति
♦ आसूचना एकत्र करना

  • अपने ही कर्मचारियों के बारे में आसूचना एकत्र करना एक ऐसी वृत्ति है जो सुरक्षा और जाँच एजेंसियों द्वारा अपनाई जाती है। लोकसेवकों के बारे में आसूचना एकत्र करने के अनेक तरीके हो सकते हैं। इनमें संदिग्ध लोकसेवकों पर निगरानी रखना, उनकी जीवनशैली का अध्ययन करना, उनके द्वारा लिये गए निर्णयों का अध्ययन करना, नागरिकों से उनके बारे में शिकायतों, फीडबैक और समकक्ष व्यक्तियों का विश्लेषण करना शामिल है।

सिफारिशें:

  • पर्यवेक्षी अधिकारियों को अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की निष्ठा का उनके द्वारा मामलों, शिकायतों की देखरेख और विभिन्न स्रोतों से फीडबैक के आधार पर मूल्यांकन किया जाना चाहिये। यह अधिकारियों की जोखिम की रूपरेखा के लिये एक महत्त्वपूर्ण इनपुट बन सकता है।

सतर्कता जाल-तंत्र (नेटवर्क)

  • विविध प्राधिकारियों के पास लंबित भ्रष्टाचार से संबंधित अनेेक अनुशासनिक मामले और आपराधिक मामले हैं। इनके बड़ी संख्या में लंबित रहने का एक कारण यह है कि निरीक्षण अधिकारियों द्वारा इनकी समीक्षा कम की जाती है। ऐसे मामलों के राष्ट्रीय आँकड़े गठित करना और उसे नियमित रूप से अद्यतन करना अपेक्षित होगा जिसे आम जनता के क्षेत्राधिकार में होना चाहिये।
  • इस जालतंत्र (नेटवर्क) में निर्वाचित सदस्यों और लोकसेवक, दोनों के मामले भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम के अंतर्गत मामले और लोकसेवकों द्वारा अन्य सफेद-पोश आर्थिक अपराध, जिनमें सार्वजनिक संपत्ति या संसाधन लिप्त हों तथा भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत लोकाचार के मामले शामिल होंगे।
  • इसके अतिरिक्त, इंटरनेट में सभी वार्षिक संपत्तियों के ब्योरे और अन्य संबंधित सूचनाएँ जिसमें हितों के संघर्ष लिप्त हों, शामिल होंगी।

सिफारिशें:

  • एक ऐसा राष्ट्रीय डेटाबेस तैयार किया जाना चाहिये जिसमें सभी स्तरों के सभी भ्रष्टाचार के मामलों के ब्योरे शामिल होने चाहिये। यह डेटाबेस जनता के अधिकार क्षेत्र में होना चाहिये। डाटाबेस को नियमित रूप से अद्यतन करने के लिये उत्तरदायी प्राधिकारियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिये।

र्ईमानदार लोकसेवकों की रक्षा करना

  • सरकार से भी अधिक, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में निणर्य लेने और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में दिन-प्रतिदिन के व्यापारिक निणर्यों में वास्तविक गलतियाँ करने की पर्याप्त गुंजाइश रहती है जो निर्णय लेने वाले की नेकनीयती पर प्रश्नचिन्ह है। केंद्रीय सतर्कता आयोग ने ऐसे वास्तविक व्यापारिक निर्णयों की संभावना का पता लगाया है जो बिना किसी प्रयोजन के गलत साबित हो जाते हैं।

बैंकिंग क्षेत्र

  • व्यापारिक बैंकों की भूमिका और व्यापारिक कृत्यों में बदलाव को देखते हुए बैंकिंग क्षेत्र से संबंधित शिकायतों/अनुशासनिक मामलों में सतर्कता की दृष्टि से लिप्तता पर निर्णय लेते समय इस पहलु पर उचित ध्यान दिया जा रहा है।
  • इस प्रयोजन के लिये बैंक में प्राप्त होने वाली शिकायतों की छानबीन करने और निरीक्षणों तथा लेखा परीक्षण आदि से सामने आने वाले मामलों में उन लेन-देनों में संलिप्तता या अन्यथा को जानने के लिये प्रत्येक बैंक ने तीन वरिष्ठ अधिकारियों की एक आंतरिक सलाहकार समिति का गठन किया है। समिति ऐसे निर्णयों पर पहुँचने के कारणों को अभिलेखबद्ध करके मुख्य सतर्कता अधिकारी को भेज देती है।
  • मुख्य सतर्कता अधिकारी प्रत्येक मामले में निर्णय लेते समय समिति की सलाह पर विचार करता है। ऐसे रिकार्ड मुख्य सतर्कता अधिकारी द्वारा रखे जाते हैं और केंद्रीय सतर्कता आयोग के किसी अधिकारी या अधिकारियों के दल को तब छानबीन के लिये उपलब्ध करा दिये जाते हैं, जब कभी वे बैंक में सतर्कता के लेखा परीक्षण के लिये आते हैं।
  • ’एक बिंदु निदेश’, जो दिल्ली विशेष पुलिस स्थापन अधिनियम में संशोधनों के परिणामस्वरूप अब एक सांविधिक उपबंध है, के अनुसार भारत सरकार में संयुक्त सचिव और ऊपर के स्तर के अधिकारी या केंद्रीय सार्वजनिक उद्यमों में इसके समतुल्य पद के अधिकारी के विरुद्ध जाँच आरंभ करने के लिये संघ सरकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 19 के तहत और भारतीय दंड संहिता की धारा 197 के अधीन जो अब तक ऐसे अपराधों से संबंधित हों और पद संबंधी आचार का हिस्सा ही के अंतर्गत किसी लोकसेवक के अभियोजन के लिये सरकार या किसी सक्षम प्राधिकारी की अनुमति की आवश्यकता होती है।
  • सीबीआई के मामले में संबंधित पुलिस अधीक्षक के पूर्व अनुमोदन से ही संगठन के भीतर जाँच का काम किया जा सकता है।
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अंतर्गत कोई मामला सीबीआई के विशेष पुलिस स्थापन द्वारा या राज्य की भ्रष्टाचार निवारण एजेंसी द्वारा ही पंजीकृत किया जा सकता है, न कि सिविल पुलिस द्वारा। केवल विशेष न्यायाधीश ही भ्रष्टाचार के अपराध का संज्ञेय लेने के लिये सक्षम हैं।
  • महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कानून की नज़र में समानता और ईमानदार लोकसेवक की रक्षा के बीच संतुलन को सुनिश्चित करना, जिसे अपनी प्रतिष्ठा का सुरक्षण करना होता है। ऐसे संतुलन को किसी निष्पक्ष एजेंसी द्वारा भ्रष्टाचार में लिप्त लोकसेवकों की जाँच के लिये पूर्व अनुमति और अभियोजन की अनुमति के मामलों की छानबीन करके ही प्राप्त किया जा सकता है। आयोग ने पहले ही सिफारिश की है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग को ऐसी अनुमति देने के लिये सशक्त बनाया जाना चाहिये।

सिफारिशें:

  • किसी लोक सेवक के विरुद्ध शिकायतों के द्वारा या जाँच एजेंसी द्वारा अपनाए गए स्रोतों से प्राप्त भष्टाचार के प्रत्येक आरोप की छानबीन करने से पहले प्रारंभिक अवस्था में गहराई से परीक्षण कर लेना चाहिये। ऐसे प्रत्येक आरोप का मूल्यांकन करने के लिये विश्लेषण किया जाना चाहिये कि क्या आरोप विशिष्ट है, क्या यह विश्वसनीय है और क्या इसे सत्यापित किया जा सकता है। जब कोई आरोप इन मानदंडों की आवश्यकताओं को पूरा करता है, तभी उसके सत्यापन के लिये सिफारिश की जानी चाहिये और सत्यापन का काम सक्षम प्राधिकारी का अनुमोदन प्राप्त करने के बाद ही किया जाना चाहिये।
  • सत्यापनों/छानबीनों के कार्य के लिये सक्षम प्राधिकारियों के स्तर का निर्धारण, संदिग्ध अधिकारियों के विभिन्न स्तरों के लिये भ्रष्टाचार निरोध एजेंसियों द्वारा किया जाना चाहिये।
  • भ्रष्टाचार के आरोपों से संबंधित मामलों में शिकायतों/स्रोत से प्राप्त जानकारी के आधार पर खुले तौर पर जाँच-पड़ताल सीधे नहीं की जानी चाहिये। जब सत्यापन/गुप्त छानबीनों को अनुमोदित कर दिया जाए तब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि ऐसे सत्यापनों की गोपनीयता बरकरार रहे और सत्यापन ऐसे ढंग से किया जाए जिससे कि न तो संदिग्ध अधिकारी और न कोई और व्यक्ति को इसके बारे में जानकारी हो पाए।
  • सत्यापन/छानबीनों के नतीजों के मूल्यांकन को सक्षम और न्यायपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिये।
  • जब कभी कोई छानबीन अधिकारी तकनीकी/जटिल मामलों को समझने के लिये किसी विशेषज्ञ से परामर्श करना चाहता हो तो वह ऐसा कर सकता है परंतु प्रत्येक अवस्था में उचित विवेक का प्रयोग करना अनिवार्य आवश्यकता होनी चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निष्ठावान और निर्दोष व्यक्ति के साथ कोई अन्याय न हो।
  • प्रशिक्षण द्वारा और छानबीन/जाँच के दौरान अपेक्षित विशेषज्ञों को संबद्ध करके भ्रष्टाचार निवारण एजेंसियों की शक्ति को सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
  • जाँच एजेंसियों में पर्यवेक्षी अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि केवल उन्हीं लोकसेवकों का अभियोजन किया जा सके जिनके विरुद्ध सुदृढ़ साक्ष्य हों।

अंतर्राष्ट्रीय सहयोग

  • अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक लेन-देनों में भ्रष्टाचार और रिश्वत के विरुद्ध दिसंबर 1996 में महासभा द्वारा अपनाई गई संयुक्त राष्ट्र घोषणा एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसमें सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों का समावेश है।
  • संयुक्त राष्ट्र की एक और पहल दिसंबर 1996 में अपनाई गई, सदस्य देशों के भ्रष्टाचार के खिलाफ मार्गदर्शी सिद्धांतों के एक सेट के माध्यम से लोक अधिकारियों के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय आचार संहिता है। लोकसेवकों को निष्ठा, ईमानदारी, कुशलता, प्रभावशीलता, स्वच्छता, निष्पक्षता, हित संघर्ष की रोकथाम, सूचना देने के प्रतिमानक, उपहार और समर्थन प्राप्त करना, निष्पक्षता और लोक विश्वास जगाने के साथ मेल खाती राजनीतिक गतिविधि की गोपनीयता और विनियमों के रखरखाव से संबंधित कर्त्तव्यों का निष्पादन करते हुए इसका अनुपालन करना चाहिये।
  • अक्तूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन में जारी एक प्रभावकारी अंतर्राष्ट्रीय वैधानिक प्रपत्र में व्यवस्था की गई है कि अपराधियों का प्रत्यर्पण करने के लिये न्यायालय के प्रयोग हेतु साक्ष्य इकट्ठा करने और अंतरित करने में पारस्परिक कानूनी सहायता के विशिष्ट रूपों को उपलब्ध कराए और भ्रष्टाचार से प्राप्त धन को जब्त करने, ट्रेसिंग, फ्रीजिंग, करने में सहायता के उपाय करें।
  • संपत्ति की वसूली इस कन्वेंशन का एक मूलभूत सिद्धांत है, यद्यपि अवैध संपत्तियों को ज़ब्त करने में सहायक देशों के वैधानिक और कार्य-पद्धति की सुरक्षा के साथ इसका हल ढूंढना होगा।
  • प्रशांत एशिया का आर्थिक सहयोग और विकास संगठन भ्रष्टाचार निरोध कार्य योजना, जिस पर भारत सरकार ने हस्ताक्षर किये हैं, एक बाध्य समझौता नहीं है परंतु भ्रष्टाचार की रोकथाम के मामले में अंतर्क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने के लिये यह एक उदात्त सहमति है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सहयोग केवल सरकारों के बीच में ही नहीं किया जाता है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय निजी क्षेत्र के व्यापार और व्यावसायिक निकायों तथा राष्ट्रीय अध्ययनों के बीच भी होता है ; और सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों में भ्रष्टाचार निवारण के काम में सिविल सोसाइटियों के बीच अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क और पारस्परिक सहायता करना भी होता है। निजी और सार्वजनिक क्षेत्र परस्पर साफ-सुथरे या भ्रष्ट संबंध रख सकते हैं।

राजनीतिक कार्यपालक और स्थायी लोकसेवा में संबंध

  • भारतीय संविधान विधायी, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों को पृथक रूप से प्रदान करता हैे जिसमें से प्रत्येक के लिये सुपरिभाषित भूमिकाओं और उत्तरदायित्वों का उल्लेख किया गया है। क्योंकि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है, अतः विधायिका और कार्यपालिका के बीच मंत्रिपरिषद के स्तर पर बातचीत होती है, जो विधायिका के प्रति सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार होते हैं।
  • संविधान कार्यपालिका को दो भागों में विभाजित करता है। अनुच्छेद 53 और अनुच्छेद 154 के अनुसार, संघ और राज्यों की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति या राज्यपाल में अथवा उनके अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा प्रयोग होगी। ये अधिकारी स्थायी लोकसेवा का गठन करते हैं और संविधान के भाग 14 द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं।
  • कार्यपालिका का दूसरा भाग है ’राजनीतिक’। राष्ट्रपति या राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 73 और अनुच्छेद 163 के अधीन अपनी मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करना होता है। क्योंकि सलाह साधारण तौर पर बाध्यकारी होती है, ऐसी सलाह अधिकारियों के लिये एक आदेश बन जाती है जिसका उन्हें क्रमशः अनुच्छेद 77 और 166 के अधीन पालन करना चाहिये।
  • सचिव और मंत्री के बीच का संबंध अंतर्वर्ती होता है। मंत्री को शासन करने का जनादेश प्राप्त होता है परंतु सचिव को भी मंत्री को सलाह देने का एक समकक्ष संवैधानिक अधिदेश प्राप्त होता है। सचिव की सलाह पर उचित रूप से विचार कर मंत्री कोर्ई गैर-कानूनी आदेश जारी नहीं करता, तब तक सचिव इसका कार्यान्वयन करने के लिये बाध्य होगा।
  • एक लोकसेवक के लिये सरकारी आदेशों को बिना किसी पक्षपात के ईमानदारी के साथ और बिना किसी भय या पक्षपात के जारी करना आवश्यक है। संक्षेप में यही एक कारण है जिससे राजनीतिक कार्यपालक और लोक सेवकों के बीच मतभेद सामने आते हैं।
  • उत्पाद या मुख्य परिणाम वे विशिष्ट सेवाएँ होती हैं जो लोकसेवक तैयार करके सुपुर्द करते हैं और इसीलिये लोकसेवक को मुख्य परिणामों की सुपुर्दगी के लिये उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिये जो उनके कार्य निष्पादन के आधार बनते हैं। दूसरी ओर परिणाम सामाजिक लक्ष्यों  की सफलतापूर्वक प्राप्ति होते हैं और राजनीतिक कार्यपालक यह निर्णय लेता है कि कौन से अपेक्षित परिणाम या उत्पादों को शामिल किया जाए ताकि अपेक्षित परिणाम या सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।
  • ऐसे में राजनीतिक कार्यपालक परिणामों के लिये विधानमंडल और निर्वाचन के प्रति जवाबदेह हो जाता है। राजनीतिक कार्यपालक का आकलन इस आधार पर किया जाता है कि क्या उसने सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सही उत्पाद या आउटपुट चुने हैं। यदि ऐसा कर दिया जाए तो राजनीतिक कार्यपालक और स्थायी लोकसेवक के बीच के संबंधों की परिभाषा उद्देश्यपूर्ण कही जा सकती है।
  • पाँचवे वेतन आयोग को ’स्थानांतरण उद्योग’ के बारे में कुछ विपरीत टिप्पणियाँ करनी पड़ीं थी। पाँचवें वेतन आयोग ने विस्तृत, स्पष्ट और पारदर्शी स्थानान्तरण नीति अपनाए जाने के बारे में अनेक सिफारिशें की थीं। प्रथम आयोग ने यह सिफारिश की कि प्रत्येक विभाग द्वारा एक बृहत् स्थानांतरण नीति के भाग के रूप में विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत बनाकर प्रचारित किये जाने चाहिये ताकि स्थानांतरण में मनमानेपन को बिल्कुल समाप्त किया जा सके और स्थानांतरण को जितना संभव हो सके उतना पारदर्शिता के साथ प्रभावी बनाया जाना चाहिये।
  • दूसरी, पदधारियों को प्रशासनिक निरंतरता और अस्थिरता सुनिश्चित करने के लिये बार-बार स्थानांतरण किये जाने को हतोत्साहित करना चाहिये और अधिकारियों की पद पर बने रहने की न्यूनतम अवधि पूर्व-निर्धारित की जानी चाहिये तथा सामान्यतः यह तीन से पाँच वर्ष होनी चाहिये सिवाय उन मामलों के जहाँ कृत्यों के आधार पर लंबी अवधियों को न्यायसंगत ठहराया जाए जैसे कि किसी विशेषज्ञता कौशल का होना। संवेदनशील पदों के मामले में जहाँ निहित स्वार्थों के विकसित होने के अवसर विद्यमान होते हों, वहाँ अवधि को कम समय के लिये ही निर्धारित किया जाना चाहिये जो दो से तीन वर्ष हो सकती है।
  • तीसरी, निर्धारित अवधि के पूरा होने से पहले कोई भी स्थानांतरण ठोस प्रशासनिक कारणों पर आधारित होना चाहिये जिसका उल्लेख स्थानांतरण आदेश में ही कर दिया जाना चाहिये। लोकसेवक को ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील करने का अधिकार दिया जाना चाहिये जिससे वह खुद को व्यथित महसूस करता है और ऐसी स्थिति से निपटने के लिये संक्षिप्त कार्य-पद्धति का प्रत्येक विभाग में प्रावधान होना चाहिये।
  • चौथा, स्थानांतरण के सोपान की न तो नौकरशाहों द्वारा और न ही सत्ता के राजनीतिज्ञों द्वारा दुरुपयोग की अनुमति दी जानी चाहिये। इसका प्रयोग अनुशासनिक कार्यवाही के लिये अधिकथित कार्य-पद्धति में फँसाकर सज़ा के रूप में नही किया जाना चाहिये।
  • ड्राफ्ट लोकसेवा बिल, 2006 में अच्छे शासन के लिये एक केंद्रीय लोकसेवा प्राधिकरण के गठन के विचार का प्रस्ताव किया जा रहा है।

मंत्री और अधिकारियों के बीच एक और संभावित संघर्ष का मुद्दा है अधीनस्थ अधिकारियों के दैनिक प्रकृत्यों में मंत्री द्वारा प्रयोग किये जाने वाला प्रभाव। किसी मंत्रालय या विभाग की गतिविधियों को कुशलतापूर्वक चलाने में नौकरशाही के विविध स्तरों पर शक्तियों और प्रकृत्यों के प्रत्यायोजन की आवश्यकता है। एक बार यह प्रत्यायोजन हो जाने पर, नौकरशाही को अपने कामों का निष्पादन प्रत्यायोजित प्राधिकार के अनुसार करने की अनुमति दे दी जानी चाहिये। यह आवश्यक है कि राजनीतिक कार्यपालक और अधिकारी तंत्र के बीच संबंधों का निर्धारण व्यापक रूप से किया जाना चाहिये।