दिवस 21
प्रश्न- 1. हड़प्पाकालीन शिल्पकार त्रि-आयामी आकृतियों को ढालने में काफी अधिक कुशल थे। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
प्रश्न- 2. मथुरा कला शैली की मुख्य विशेषताओं पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
02 Dec 2022 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | संस्कृति
दृष्टिकोण:
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परिचय:
हड़प्पा सभ्यता न केवल अपने उत्कृष्ट नगर-नियोजन के लिये प्रसिद्ध है बल्कि इसे उत्कृष्ट शिल्पकला के रुप में भी जाना जाता था। यहाँ पर सबसे अधिक मुहरें, कांस्य की वस्तुएँ और मिट्टी के बर्तन थे। इस समय की शिल्पकला के कुछ तत्त्व आज भी विश्व प्रसिद्ध हैं जैसे मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांसे की नर्तकी की मूर्ति।
मुख्य भाग:
हड़प्पाकालीन लोगों की मुख्य शिल्पकला:
मुहरें:
पुरातत्वविदों को हड़प्पा के विभिन्न उत्खनन स्थलों पर विभिन्न आकृतियों और आकारों की अनेकों मुहरें मिली हैं। मुहरों को निर्मित करने में इस्तेमाल की जाने वाली सबसे प्रमुख सामग्री सेलखड़ी (नदी के तल में पाया जाने वाला एक मुलायम पत्थर) थी। अधिकांश मुहरों पर एक चित्रात्मक लिपि में अभिलेख हैं जिन्हें अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। इसके साथ ही इन पर जानवरों (आम तौर पर पाँच) के भी चिन्ह थे।
उपयोग: मुख्य रूप से मुहरों का व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये उपयोग किया जाता था और इससे संचार में सहायता मिलती थी। शवों के साथ छेद वाली कुछ मुहरें मिली हैं। इससे पता चलता है कि उन्होंने ताबीज के रूप में इनका उपयोग किया होगा। शायद इनका पहचान के किसी रूप में उपयोग किया जाता रहा होगा। कुछ मुहरों पर गणितीय चिह्न भी पाए गए हैं जिनका उपयोग संभवतः शैक्षिक उद्देश्यों के लिये भी किया गया होगा। उदाहरण: पशुपति मुहर, एकशृंगी मुहर।
कांस्य प्रतिमाएँ:
हड़प्पा सभ्यता में कांस्य ढलाई का व्यापक स्तर पर प्रचलन देखा गया। कांस्य प्रतिमाओं को "लुप्त मोम तकनीक" का उपयोग करके बनाया गया था। इस तकनीक में मोम की मूर्तियों को पहले गीली मिट्टी से लेपित किया जाता था और तब इन्हें सूखने दिया जाता था। इसके बाद मिट्टी की परत चढ़ी मूर्तियों को गर्म किया जाता था जिससे अंदर का मोम पिघल जाता था। फिर मोम को एक छोटे से छेद से बाहर निकाला जाता था और खोखले साँचे के अंदर तरल धातु डाली जाती थी। धातु के ठंडा होने और जमने के बाद, मिट्टी के आवरण को हटा दिया जाता है और फिर मोम की आकृति के समान ही धातु की आकृति प्राप्त की जाती थी। आज भी देश के कई हिस्सों में यह तकनीक प्रचलन में है।
उपयोग: ज्यादातर इनका उपयोग कला और सांस्कृतिक गतिविधियों के लिये किया जाता था। उदाहरण: मोहनजोदड़ो की कांसे की नर्तकी, कालीबंगन का कांसे का बैल आदि।
मृदभाण्ड:
उत्खनन स्थलों पर पाए गए मृदभाण्डो को मोटे तौर पर सादे और चित्रित मृदभाण्डो में वर्गीकृत किया जा सकता है। चित्रित मृदभाण्डो को लाल और काले मृदभाण्डो के रूप में भी जाना जाता है।
उपयोग: सादे मृदभाण्डो का उपयोग घरेलू उद्देश्यों के लिये किया जाता था (मुख्य रूप से अनाज और जल के भंडारण के लिये) । छोटे पात्रों (आमतौर पर आकार में आधे इंच से भी कम) का सजावटी उद्देश्यों के लिये उपयोग किया जाता था। इन्हें इतने अद्भुत ढंग से तैयार किया गया है कि यह अब भी आश्चर्यजनक लगते हैं। तल में बड़ा छेद और किनारों पर छोटे छेदों वाले कुछ छिद्रित मृदभाण्ड भी होते थे। संभवतः इनका उपयोग शराब उलटने के लिये किया जाता था।
आभूषण:
हड़प्पावासी, आभूषण बनाने के लिये कीमती धातुओं और रत्नों से लेकर हड्डियों और यहाँ तक कि पकी हुई मिट्टी जैसी विविधतापूर्ण सामग्रियों का इस्तेमाल करते थे। पुरुषों और महिलाओं दोनों के ही द्वारा कंठहार, पट्टिका, बाजूबंद और अंगूठियों जैसे आभूषण पहने जाते थे। करधनी, झुमके और पायल केवल महिलाओं द्वारा पहने जाते थे। कॉर्नेलियन, नीलम, क्वार्ट्ज, सेलखड़ी आदि से बने मनके काफी लोकप्रिय थे और बड़े पैमाने पर इनका निर्माण किया जाता था। यह बात चन्हुदड़ो और लोथल में मिले कारखानों से स्पष्ट है। कपड़े के लिये हड़प्पावासी, कपास और ऊन का उपयोग करते थे। इन्हें अमीर और गरीब दोनों द्वारा समान रूप से काता जाता था। तकलियाँ और कोड़े महँगे मिट्टी के साथ-साथ सस्ती मिट्टी से भी बनाए जाते थे।
टेराकोटा:
टेराकोटा मूर्तियाँ बनाने के लिये पकी हुई मिट्टी का उपयोग किया जाता है। कांसे की मूर्तियों की तुलना में, टेराकोटा की मूर्तियाँ कम संख्या में होने के साथ आकार और रूप में अपरिष्कृत भी हैं। इन्हें पिंचिंग विधि का उपयोग करके बनाया गया था और ये अधिकांशतः गुजरात और कालीबंगन के स्थलों से मिली हैं।
उपयोग: टेराकोटा का उपयोग आमतौर पर खिलौने, जानवरों की आकृतियाँ, छोटी गाड़ियाँ और पहिये आदि बनाने के लिये किया जाता था। उदाहरण: मातृदेवी की मूर्ति, एक सींग वाले देवता का मुखौटा आदि।
निष्कर्ष:
इस प्रकार हम देखते हैं कि हड़प्पा सभ्यता के शिल्पकारों और मूर्तिकारों ने वास्तुकला और मूर्तिकला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति की। वैज्ञानिक शहरी नियोजन से लेकर कलात्मक आकृतियों तक, इस प्राचीन सभ्यता ने अपने कौशल और शिल्प कौशल के उच्च प्रतिमानों की विरासत स्थापित की है।
दृष्टिकोण:
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परिचय:
मथुरा कला शैली, कुषाण कला की दूसरी महत्त्वपूर्ण शैली (उत्तर पश्चिम में गांधार कला शैली) के समकालीन थी। इसका विकास पहली और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की अवधि में यमुना नदी के किनारे हुआ था। मथुरा शैली की मूर्तियाँ उस समय के सभी तीनों धर्मों (बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और जैन धर्म) की कहानियों और चित्रों से प्रभावित थीं। यह मूर्तियाँ, मौर्यकाल के दौरान मिली यक्ष मूर्तियों के नमूने पर आधारित हैं।
मुख्य भाग:
मथुरा कला शैली की मुख्य विशेषताएँ:
निष्कर्ष:
गांधार और मथुरा दोनों कला शैली, कनिष्क के शासन के दौरान चरम पर थीं। मथुरा की कुषाण कला भारतीय कला के इतिहास में महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह बाद में अपनाए गए प्रतीकात्मक रूपों का पर्याय है।