हिंदू महिलाओं के विरासत अधिकारों पर SC का निर्णय

प्रिलिम्स के लिये:

मिताक्षरा तथा दयाभाग कानून के बारे में, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, कॉपर्सनर/सहदायक, संपत्ति का अधिकार 

मेन्स के लिये

पैतृक संपत्ति में महिलाओं के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय तथा इसका महत्त्व

चर्चा में क्यों?

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने अपने एक हालिया एक निर्णय में पुरुष उत्तराधिकारियों के समान शर्तों पर हिंदू महिलाओं के पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकारी और सहदायक (संयुक्त कानूनी उत्तराधिकारी) के अधिकार का विस्तार किया है। यह निर्णय हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम (Hindu Succession (Amendment) Act), 2005 से संबंधित है।

प्रमुख बिंदु

  • SC का निर्णय:
    • SC के निर्णय के अनुसार, एक हिंदू महिला को पैतृक संपत्ति में संयुक्त उत्तराधिकारी होने का अधिकार जन्म से प्राप्त है, यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि उसका पिता जीवित हैं या नहीं।
    • SC ने अपने इस निर्णय में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में वर्ष 2005 में किये गए संशोधनों का विस्तार किया, इन संशोधनों के माध्यम से बेटियों को संपत्ति में समान अधिकार देकर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 में निहित भेदभाव को दूर किया गया था ।
    • इसने उच्च न्यायालयों को छह माह के भीतर इस मामले से जुड़े मामलों को निपटाने का भी निर्देश दिया।
  • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act), 1956:
    • हिंदू कानून की मिताक्षरा धारा को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के रूप में संहिताबद्ध किया गया, संपत्ति के वारिस एवं उत्तराधिकार को इसी अधिनियम के तहत प्रबंधित किया गया, जिसने कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में केवल पुरुषों को मान्यता दी।
    • यह उन सभी पर लागू होता है जो धर्म से मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं। बौद्ध, सिख, जैन और आर्य समाज, ब्रह्म समाज के अनुयायियों को भी इस कानून के तहत हिंदू माना गया हैं।

    • एक अविभाजित हिंदू परिवार में, कई पीढ़ियों के संयुक्त रूप से कई कानूनी उत्तराधिकारी मौजूद हो सकते हैं। कानूनी उत्तराधिकारी परिवार की संपत्ति की संयुक्त रूप से देख-रेख करते हैं।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम [Hindu Succession (Amendment) Act], 2005:
    • 1956 के अधिनियम को सितंबर 2005 में संशोधित किया गया और वर्ष 2005 से संपत्ति विभाजन के मामले में महिलाओं को सह्दायक/कॉपर्सेंनर के रूप में मान्यता दी गई।
      • अधिनियम की धारा 6 में संशोधन करते हुए एक कॉपर्सेंनर की पुत्री को भी जन्म से ही पुत्र के समान कॉपर्सेंनर माना गया।
      • इस संशोधन के तहत पुत्री को भी पुत्र के समान अधिकार और देनदारियाँ दी गई।
    • यह कानून पैतृक संपत्ति और व्यक्तिगत संपत्ति में उत्तराधिकार के नियम को लागू करता है, जहाँ उत्तराधिकार को कानून के अनुसार लागू किया जाता है, न कि एक इच्छा-पत्र के माध्यम से।
    • संशोधन का आधार:
      • विधि आयोग की 174वीं रिपोर्ट में हिंदू उत्तराधिकार कानून में सुधार की सिफारिश की गई थी।
      • वर्ष 2005 के संशोधन से पहले आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु ने कानून में यह बदलाव कर दिया था। केरल ने वर्ष 1975 में ही हिंदू संयुक्त परिवार प्रणाली को समाप्त कर दिया था।
  • सरकार का पक्ष:
    • भारत के महान्यायवादी/सॉलिसिटर जनरल ने महिलाओं को समान अधिकारों की अनुमति देने के लिये कानून का व्यापक संदर्भ में अध्ययन किये जाने का तर्क प्रस्तुत किया। 
    • सॉलिसिटर जनरल ने मिताक्षरा कॉपर्सनरी (Mitakshara coparcenary 1956) कानून की आलोचना की क्योंकि यह कानून लैंगिक आधार पर भेदभाव करता है और भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18) के लिये दमनकारी और नकारात्मक भी है।

हिंदू कानून से संबंधित विधियाँ/नियम

मिताक्षरा कानून

दयाभाग कानून 

मिताक्षरा पद की उत्पत्ति याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित एक टीका के नाम से हुई है।

दयाभाग पद जिमुतवाहन द्वारा लिखी गई, समान नाम की पुस्तक से लिया गया है।

भारत के सभी भागों में इसका प्रभाव देखने को मिलता है और यह बनारस, मिथिला, महाराष्ट्र एवं द्रविड़ शैली में उप-विभाजित है।

बंगाल और असम में इसका प्रभाव देखने को मिलता है। 

जन्म से ही संयुक्त परिवार की पैतृक संपत्ति में पुत्र की हिस्सेदारी होती है।

पुत्र का संपत्ति पर जन्म से कोई स्वत: स्वामित्व/अधिकार नहीं होता है, परंतु वह अपने पिता की मृत्यु के बाद स्वतः ही इस अधिकार को प्राप्त कर लेता है।

एक पिता के संपूर्ण जीवनकाल के दौरान परिवार के सभी सदस्य को कॉपर्सनरी का अधिकार प्राप्त होता है।



पिता के जीवनकाल में पुत्र को कॉपर्सनर का अधिकार प्राप्त नहीं होता है।

इसमें कॉपर्सनर का भाग परिभाषित नहीं है और इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है।

प्रत्येक कॉपर्सनर के हिस्से को परिभाषित किया गया है और इसे समाप्त किया जा सकता है।

पत्नी बँटवारे की मांग नहीं कर सकती है लेकिन उसे अपने पति और पुत्रों के बीच किसी भी बँटवारे में हिस्सेदारी का अधिकार प्राप्त है।

यहाँ महिलाओं के लिये समान अधिकार मौजूद नहीं है क्योंकि पुत्र बँटवारे की मांग नहीं कर सकता हैं और यहाँ पिता ही पूर्ण मालिक होता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस