सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग: समाधान या समस्या?

सन्दर्भ

  • 30 नवम्बर 1948 को संविधान सभा में टी. टी कृष्णामाचारी ने खड़े होते हुए कहा था कि “क्या मैं पूछ सकता हूँ कि भारत के किन नागरिकों को पिछड़ा समुदाय कहा जाए”। गौरतलब है कि उस दिन संविधान सभा में इस बात को लेकर बहस चल रही थी कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा वे कौन से ऐसे वर्ग हैं जिन्हें राज्य द्वारा विशेष सुविधाएँ दी जानी चाहिये? 
  • यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज सात दशकों बाद भी हम यह सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं कि पिछड़ा कौन है और कौन नहीं| इस असफलता का ही परिणाम है कि आज सामाजिक तौर पर मज़बूत और समृद्ध वर्ग भी आरक्षण का लाभ लेने के लिये लामबंद दिख रहे हैं।
  • लोक सभा ने पिछड़ा वर्ग के लिये नया राष्ट्रीय आयोग बनाने के लिये 123वाँ संविधान संशोधन विधेयक पारित कर दिया है। “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” के नाम से बनाया जा रहा यह आयोग “पिछड़ा वर्ग आयोग” की जगह लेगा। आरक्षण पर रार का समाधान तलाशता यह आयोग कैसे और अधिक समस्यायों को जन्म दे सकता है, यह देखने से पहले हम इसके उद्देश्यों पर गौर करते हैं। 

"सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” के उद्देश्य

  • उल्लेखनीय है कि इस आयोग को संवैधानिक दर्जा प्राप्त होगा, पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की मांग एक पुरानी मांग थी।
  • इस मांग के पीछे एक बड़ा आधार यह था कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग की तरह पिछड़ा वर्ग आयोग को समस्याएँ सुनने और उनका निपटारा करने का अधिकार नहीं था।
  • शायद इसीलिये तमाम आरक्षित पदों पर नियुक्तियाँ न किये जाने संबंधी शिकायतें दूर होने का नाम नहीं ले रही थीं।
  • राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की तैयारी यह बताती है कि सरकार इस आयोग को वैसा ही स्वरूप देना चाहती है जैसा अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग को प्राप्त है।

आयोग के गठन का आधार

  • इस आयोग से संबंधित समस्याओं को हम तभी समझ सकते हैं जब हम इसके गठन की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझते हों, अतः पहले इसकी सरंचना को समझते हैं।
  • ज़ाहिर है जैसे ही “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” विधेयक, कानून की शक्ल लेगा “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” एक संवैधानिक निकाय बन जाएगा।
  • उल्लेखनीय है कि इस संशोधन के माध्यम से संविधान में की जा रही नई प्रविष्टि (अनुच्छेद 338बी) अनुच्छेद 338 और 338ए के ही समान है।
  • विदित हो कि अनुच्छेद 338 और 338ए में वर्णित प्रावधानों के अनुरूप ही अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिये राष्ट्रीय आयोग का निर्माण किया गया है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गो के लिये आयोग बनाने का उल्लेख किया गया है और इसके आधार पर ही 1953-55 में काका कालेकर आयोग का व 1978-80 में मंडल कमीशन का गठन किया गया था।
  • 123वें संशोधन ने पिछड़े वर्गों के अनुच्छेद 340 से संबंधित सभी पृष्ठों को रद्द कर दिया है और इसे अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति से संबंधित प्रावधानों के करीब ला दिया है।

क्यों यह आयोग समाधान कम समस्या अधिक है?

  • अब जब इस 123वें संविधान संशोधन के माध्यम से पिछड़ा वर्ग आयोग को उन प्रावधानों के सापेक्ष संवैधानिक आयोग का दर्जा दिया जा रहा है जो कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिये बने हुए हैं तो तमाम तरह की समस्याएँ दृष्टिगोचर हो रही हैं। 
  • पिछड़ों और अनुसूचित जाति तथा जनजाति को एक ही तराजू में तौलना जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। भारत के ऐतिहासिक प्रवृत्तियों पर नज़र डालें तो पिछड़े वर्गों के तहत आने वाली जातियों ने भी अनुसूचित जाति और जनजाति से संबध रखने वाले लोगों का शोषण और दमन किया है।
  • जिस तरह से अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग दलितों एवं आदिवासियों पर किये जाने वाले अत्याचारों का संज्ञान लेता है और उचित कार्यवाही का निर्देश देता है ठीक उसी तरह नया पिछड़ा आयोग भी पिछड़ी जातियों के विरुद्ध होने वाले अत्याचार और शोषण करने वाले लोगों की खबर लेगा।
  • अब यदि मान लिया जाए कि दोनों ही पक्ष किसी शोषणकारी घटना में शामिल होते हैं और दोनों ही आयोग इसका संज्ञान लेते हैं तो क्या दो संवैधानिक निकायों में टकराव की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी?
  • हालाँकि, अनुच्छेद 338बी सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को ही मुख्य विषय के तौर पर शामिल करता है, जबकि यह व्यवहार में पिछड़े वर्गों के विकास से संबंधित मुद्दों और अनुसूचित जातियों जनजातियों साथ किये गए भेदभाव और अस्पृश्यता, दोनों ही मुद्दों पर एक तरह से विचार करेगा, जो कि बिलकुल ही तर्कसंगत नहीं है।

क्या हो आगे का रास्ता

  • इसमें कोई दो राय नहीं है कि सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन एक बड़े तबके को विरासत में प्राप्त हुई है और आज भी ये भेदभाव के शिकार हैं, अतः इन वर्गों के लिये एक संवैधानिक आयोग बनाने की मांग वर्षों से होती आ रही है।
  • लेकिन अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा पिछड़ों के कल्याण के लिये एक ही मंच का इस्तेमाल करना उचित नहीं कहा जा सकता क्योंकि दोनों की ही सामाजिक, राजनैतिक यहाँ तक कि आर्थिक स्थिति भी अलग-अलग रही है।
  • अतः अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के तर्ज़ पर ही “सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ा वर्ग आयोग” बनाते समय हमारे नीति निर्माताओं को दोनों ही बिन्दुओं पर अलग-अलग दृष्टिकोण से विचार करने वाली व्यवस्था का निर्माण करना होगा और इसके लिये समुचित प्रावधानों की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष

  • गौरतलब है कि आरक्षण का मूल उद्देश्य समाज के बहिष्कृत तबके को समान नागरिकता की मज़बूत गारंटी देना था, लेकिन आज आरक्षण पर विवाद इसलिये है क्योंकि हम इसे एक कल्याणकारी कार्यक्रम मान बैठे हैं।
  • जहाँ तक समाज के कुछ तबकों द्वारा आर्थिक स्थिति का हवाला देते हुए आरक्षण की मांग किये जाने का सवाल है तो यह जान लेना आवश्यक है कि आरक्षण आर्थिक समानता बहाल करने का नहीं बल्कि मूलतः सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने का यन्त्र है।
  • हालाँकि, सभी जाति समूहों में तेज़ी से बढ़ रही आर्थिक असमानता एक अलग तरह की चुनौती है और इस विभेदीकरण से निपटने के लिये कुछ और ही कदम उठाने होंगे जैसे सरकारी नौकरियों पर निर्भरता कम करना, निजी क्षेत्रों में ‘रोज़गार सुरक्षा’ बहाल करना इत्यादि।
  • आदिवासी एवं दलित तथा पिछड़ा वर्ग की जातियों में फर्क करना आवश्यक है क्योंकि आज भी दोनों की सामाजिक स्थिति में महत्त्वपूर्ण अंतर है। पिछड़ेपन की सपाट भाषा में भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार की भिन्नताएँ दबकर रह जाती हैं अतः इस आयोग को ओबीसी बनाम एससी/एसटी की लड़ाई बनने से बचाना होगा।