यूएस फेडरल रिज़र्व और भारतीय बाज़ार | 29 Jan 2022

हाल ही में यूएस फेडरल रिज़र्व (अमेरिका का केंद्रीय बैंक) ने ब्याज दरों में संभावित बढ़ोतरी का संकेत दिया है। इससे भारतीय बाज़ारों में घबराहट की स्थिति पैदा हो गई है।

फेडरल रिज़र्व द्वारा दरों में परिवर्तन या अन्य फैसलों से न केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है, बल्कि यह अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं में मौद्रिक नीतियों पर एक निश्चित प्रभाव डालता है।

प्रमुख बिंदु

  • फेडरल रिज़र्व और भारतीय बाज़ारों का सह-संबंध:
    • भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में विकसित देशों जैसे- अमेरिका और कई (मुख्य रूप से पश्चिमी) यूरोपीय देशों की तुलना में उच्च मुद्रास्फीति तथा उच्च ब्याज दरें होती हैं।
    • अत: वित्तीय संस्थान, विशेष रूप से विदेशी संस्थागत निवेशक (Foreign Institutional Investors- FIIs), कम ब्याज दरों पर अमेरिका से पैसा उधार लेकर उस पैसे को अधिक ब्याज दर पर उभरते देशों के सरकारी बॉण्ड में निवेश करते हैं।
    • जब फेडरल रिज़र्व अपनी घरेलू ब्याज दरों को बढ़ाता है तो दोनों देशों की ब्याज दरों के बीच अंतर कम हो जाता है, इस प्रकार भारतीय मुद्रा बाज़ार के लिये कम आकर्षक रह जाता है।
    • यह भारत को करेंसी कैरी ट्रेड (Currency Carry Trade) हेतु कम आकर्षक बनाता है जिसके परिणामस्वरूप कुछ धन के भारतीय बाज़ारों से बाहर निकलने और अमेरिका में वापस आने की उम्मीद की जा सकती है।
    • करेंसी कैरी ट्रेड एक ऐसी रणनीति है जिसके तहत अधिक उपज वाली मुद्रा में निवेश के लिये कम उपज वाली मुद्रा का कम ब्याज दर के साथ व्यापार किया जाता है।
    • इसलिये अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा के मूल्य में गिरावट आ रही है।
  • भारत पर बढ़ी हुई ब्याज दरों का प्रभाव:
    • इक्विटी मार्केट पर प्रभाव:
      • वैश्विक बाज़ार में डॉलर की बढ़ती कमी से बॉण्ड यील्ड (Bond Yields) में बढ़ोतरी होगी।
      • इससे पहले, भारत में ऋण और इक्विटी बाज़ारों में 40,000 करोड़ रुपए से अधिक का बहिर्वाह देखा गया था जो कि मज़बूत डॉलर एवं अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ तथा अन्य प्रमुख देशों के बीच व्यापार युद्ध से उत्पन्न अनिश्चितताओं का प्रतिफल था।
    • निर्यात और विदेशी मुद्रा पर प्रभाव:
      • भारत विश्व के सबसे बड़े कच्चे तेल आयातक देशों में से एक है।
      • डॉलर की तुलना में कमज़ोर रुपए के परिणामस्वरूप कच्चे तेल का अधिक महंँगा आयात होता है जो पूरी अर्थव्यवस्था में और विशेष रूप से उन क्षेत्रों में लागत-संचालित मुद्रास्फीति (Cost-Driven Inflationary) को बढा सकता है जो कच्चे तेल की कीमतों में उतार-चढ़ाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं।
      • दूसरी ओर भारत के निर्यात विशेष रूप से आईटी और आईटी-सक्षम सेवाओं को रुपए के संबंध में मज़बूत डॉलर से कुछ हद तक लाभ होगा।
      • हालांँकि निर्यात बाज़ार में मजबूत प्रतिस्पर्द्धा के कारण निर्यातकों को पूरी तरह से एक समान लाभ प्राप्त नहीं हो सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस