इंसान अगले एक हज़ार साल तक ज़िन्दा नहीं रह पाएगा! | 24 May 2017

"हमारा ब्रह्माण्ड रहस्यों एवं जटिल संरचनाओं से भरा पड़ा है। विज्ञान इन रहस्यों की पर्ते खोलने के लिये सतत् प्रयत्नशील है। जब तक ये रहस्य सुलझ नहीं जाते परिकल्पना ही लगते हैं, और जब सुलझ जाते हैं तो वास्तविकता बन जाते हैं। इस तरह से देखें तो ‘परिकल्पना’ और ‘वास्तविकता’ के बीच ज़्यादा फर्क नहीं है; देखते-ही-देखते परिकल्पनाएँ वास्तविकता में तब्दील हो जाती हैं।"

बहुत पहले बुद्धिजीवियों के मन-मस्तिष्क में एक सवाल उठता था कि ‘पृथ्वी पर इंसान की उत्पत्ति कैसे हुई?’ इसके बारे में तमाम वैज्ञानिकों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये और सिद्धांत गढ़े। इसी सवाल की तरह आज एक गंभीर समस्या मानव के समक्ष खड़ी है कि क्या इंसान अगले एक हज़ार वर्षों तक ज़िन्दा रह पाएगा? आज अगर ये सवाल हम सबके दिमाग में घूम रहा है तो इसके पीछे की वास्तविकता यह है कि इस स्थिति को जन्म देने के लिये हम सब ज़िम्मेवार हैं।

"पृथ्वी के पास हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त संसाधन हैं, न कि हमारे लालच को पूरा करने के लिये।"

गांधीजी का उपर्युक्त कथन इंसान द्वारा उपभोक्तावाद की मांग के लिये किये जा रहे प्रकृति के दोहन को रेखांकित कर रहा है। अनादिकाल से जब इस पृथ्वी का निर्माण हुआ व इस पर रहने लायक अनुकूल दशाएँ विद्यमान हुईं तब मानव सभ्यता का जन्म हुआ। धीरे-धीरे प्रकृति ने मानव को इस बहुत कुछ दिया, लेकिन अपने स्वार्थपूर्ति के लालच में इंसान ने प्रकृति का इस कदर विदोहन किया कि उसने अपने अस्तित्व के लिये ही एक गंभीर संकट पैदा कर दिया है। आज जो पर्यावरणीय क्षति हो रही है उसका एकमात्र कारण हमारी मानसिकता है; हम सोचते हैं कि मैं जीवित हूँ, मेरी सुख-समृद्धि बढ़े ताकि मैं ज़्यादा-से-ज़्यादा सुख-सुविधाओं का उपभोग कर सकूँ। निरंतर बढ़ रहे पर्यावरण प्रदूषण, जल स्रोतों की कमी, प्राकृतिक संसाधनों तथा जैव विविधता में आ रही कमी से आज हमारे माथे पर एक चिंता की लकीर खिंच रही है। अगर समय रहते इनका उपाय न किया गया तो इंसान का अस्तित्व भी समाप्त होने से कोई नहीं बचा सकता। 

ये बात हम सब अच्छी तरह जानते हैं कि "प्रकृति का कोप सारे कोपों से बढ़कर होता है।" मनुष्य ने अपनी आर्थिक विकास और उन्नति के लिये पर्यावरण को इस हद तक बिगाड़ दिया कि अब वह और छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। आँकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशकों में दुनिया भर में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में चार गुना बढ़ोतरी हुई है। यानी मानव अस्तित्व पर कुदरत का कहर कभी भी अपने एक भयानक रूप में आने को तैयार है। अगर समय रहते हम इस कुदरत की चेतावनी को न समझ पाए तो अपने अस्तित्व पर संकट के लिये तैयार रहें।

आज समूचा विश्व पर्यावरण असंतुलन के चलते अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। स्वार्थी मनुष्य निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहा है और ऐसा करते हुए उसका आचरण प्रकृति विरोधी हो चुका। जिस धरा को हम धरती माता कहकर संबोधित करते हैं, उसी धरा की छाती को स्वार्थ में अंधे होकर छलनी कर डाला। इस संदर्भ में, मेरे मानस पटल पर महान कवयित्री महादेवी वर्मा की ये पंक्तियाँ चित्रित होती है-

"कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन

किन्तु रोता कौन है तेरे लिये दानी सुमन

मत व्यथित हो फूल, किसको सुख दिया संसार ने

स्वार्थमय सबको बनाया है यहाँ करतार ने।"

उपर्युक्त पंक्तियाँ प्रकृति व मानव के अस्तित्व के बीच एक जीवंत चित्र खींचती हैं।

इतिहास बताता है कि मानव ने दो विश्व युद्ध लड़े हैं और इन दोनों विश्व युद्धों में बड़ी संख्या में लोगों की अकल्पनीय क्षति हुई है। हमारे वैज्ञानिकों, भौतिकविदों व इतिहासकारों ने भविष्यवाणी की कि अगला विश्व युद्ध हुआ तो वह ‘जल’ के लिये होगा अर्थात् इसके बिना मानव का अस्तित्व एक हज़ार साल की बात छोड़िये, एक दिन भी दुष्कर है। आज स्थिति ये है कि विश्व की आधी से अधिक जनसंख्या स्वच्छ पेयजल को तरस रही है, भारत भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ की प्राणदायिनी, मोक्षदायिनी गंगा सहित तमाम जीवनदायिनी नदियाँ प्रदूषित हैं व अपने अस्तित्व को लेकर जंग लड़ रही हैं। यह एक कटु सत्य है कि अगर जल नहीं होगा तो मानव सहित पृथ्वी पर समस्त जीव जातियों का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। बड़े शर्म की बात है कि मनुष्य ने जल जैसी अपरिहार्य सम्पदा का दोहन इस कदर किया है कि भूमिगत जल स्तर को एक खतरनाक स्थिति तक पहुँचा दिया।

"प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि अगर समस्या है तो समाधान भी होगा" लेकिन समस्या का समाधान समय रहते कर लिया जाए तो बेहतर है, नहीं तो गम्भीर दुष्परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहें। जल के बचाव के लिये विभिन्न संस्थाओं, युवाओं व ग्रामीण आबादी को जागरूक करके जल को बचाया जा सकता है तथा विश्व पटल पर एक सकारात्मक संदेश दिया जा सकता है। जल संकट की स्थिति को देखते हुए मुझे एक एक शेर समीचीन जान पड़ता है- 

"सारे जग की प्यास बुझाना इतना आसां काम नहीं,

बादल को भी भाव में ढलकर पानी बनना है।" 

वर्तमान में पूरा विश्व अनेक उथल-पुथल की घटनाओं से सबको हैरत में डाल देता है, जिनमें प्रमुख रूप से आतंकवाद के विभिन्न संगठन अलकायदा, आईएसआईएस व लश्कर-ए-तोयबा इत्यादि संगठन विश्व शांति को छीन रहे हैं व खुद अपने अस्तित्व पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा कर रहे हैं।

वहीं दूसरी ओर, पूरे वैश्विक जगत में शस्त्रास्त्रों की होड़ परमाणु बम के हमले की आशंका, ताकतवर देशों द्वारा कमज़ोर देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवृत्ति तथा क्षेत्रीय विवादों ने मानव अस्तित्व की परिकल्पना को खण्डित किया है जिससे असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है।

अमेरिका में नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के निर्वाचित होने से एक नया घटनाक्रम देखने को मिलेगा क्योंकि उनके द्वारा कुछ निर्णय विश्व घटनाक्रम पर प्रभाव डाल रहे रहे हैं, और कहीं न कहीं मानव अस्तित्व की अस्मिता पर भी प्रभाव डालेंगे।

इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन सब चुनौतियों व विवादों के फलस्वरूप मानव अस्तित्व अपने आप को बचाने में काफी हद तक सफल हो सकता है। फ्रांस के विश्व विख्यात लेखक विक्टर ह्यूगो ने कहा था कि "जिस विचार का समय आ गया हो, उसे कोई हाशिये पर नहीं डाल सकता।" अर्थात मानव को अपने अस्तित्व को बचाने के लिये एक-साथ पूरे विश्व को एक माला के रूप में पिरोकर विश्व शांति का संदेश देकर व भाईचारे, आपसी सौहार्द्र, न्यायोचित वितरण, प्रकृति से लगाव, मनुष्य के प्रति प्रेम इत्यादि मापदण्डों को अपनाकर अपने अस्तित्व को व आने वाली पीढ़ी के लिये एक सुरक्षित माहौल तैयार करना होगा, तभी हम बहुत हद तक अपने अस्तित्व को बचा सकते हैं।

इस समय, पूरे विश्व को भारतीय दर्शन के इस आदर्श-वाक्य को आत्मसात् करना होगा-

“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माँ कश्चिद्! दुखभागवेत्।। 

अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोग हों। सबका कल्याण हो, कोई दुःख का भागी न हो।