• प्रश्न :

    प्रश्न: भावनाएँ नैतिक तर्कशीलता में अवरोध नहीं होतीं; बल्कि मूल संसाधन होती हैं। लोक सेवाओं में निर्णयन के परिप्रेक्ष्य में इस कथन का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)

    04 Dec, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण: 

    • सार्वजनिक सेवा में तर्क और भावना के बारे में संक्षेप में बताते हुए उत्तर दीजिये।
    • नैतिक तर्क के मूल संसाधन के रूप में भावनाओं का गहन अध्ययन प्रस्स्तुत कीजिये। 
    • सार्वजनिक सेवा निर्णय लेने में अनुप्रयोग पर प्रकाश डालिये तथा संक्षेप में कठिनाई: मूल संसाधन बनाम परिणाम के मुद्दे पर चर्चा कीजिये। 
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    परंपरागत रूप से, लोक प्रशासन ने वेबर की तर्कसंगतता के सिद्धांत का समर्थन किया है, जिसमें भावनाओं को पूर्वाग्रह के रूप में देखा जाता है, जो निर्णय को प्रभावित करते हैं। हालाँकि, यह कथन एक प्रतिमान परिवर्तन का सुझाव देता है: भावनाएँ तर्क की शत्रु नहीं बल्कि नैतिकता की नींव हैं। 

    • सार्वजनिक सेवा में, जबकि तर्क यह निर्धारित करता है कि किसी कार्य को किस प्रकार निष्पादित किया जाए, भावना (विशेष रूप से भावनात्मक बुद्धिमत्ता) प्रायः यह निर्धारित करती है कि वह कार्य क्यों महत्त्वपूर्ण है।

    मुख्य भाग: 

    नैतिक तर्क के लिये भावनाएँ मूल संसाधन के रूप में

    • नैतिक मुद्दों के लिये संकेतक (रेडार के रूप में भावनाएँ): सहानुभूति और करुणा जैसी भावनाएँ किसी लोक सेवक को दूसरों के कष्ट के प्रति सचेत करती हैं।
      • उदाहरण: कोई ज़िला कलेक्टर (DC) भूमि अधिग्रहण कानूनों का कड़ाई से पालन कर सकता है, लेकिन विस्थापन से उत्पन्न पीड़ा को समझने की क्षमता सहानुभूति से ही आती है, जो उसे न्यूनतम विधिक प्रावधानों से आगे बढ़कर बेहतर पुनर्वास सुनिश्चित करने के लिये प्रेरित करती है।
    • न्याय के लिये उत्प्रेरक के रूप में नैतिक आक्रोश: अन्याय के विरुद्ध आक्रोश या क्षोभ जैसी भावनाएँ नैतिक दृढ़ता को ऊर्जा प्रदान करती हैं।
      • उदाहरण: सती प्रथा या अस्पृश्यता जैसी कुप्रथाओं के प्रति भावनात्मक प्रतिक्रिया ने ही सुधारकों तथा बाद में प्रशासनिक तंत्र को इनके विरुद्ध कठोर कानून बनाने और लागू करने के लिये प्रेरित किया।
    • अंतरात्मा का संरक्षक (अपराधबोध और अभिमान): भावी अपराधबोध भ्रष्टाचार को रोकने में सहायक होता है। लज्जा का भय या आत्मसम्मान की आकांक्षा (आंतरिक भावनात्मक अवस्थाएँ) प्रायः रिश्वत के विरुद्ध बाह्य निगरानी से भी अधिक प्रभावी प्रतिरोधक सिद्ध होती हैं।

    लोक सेवा में निर्णय-निर्माण में अनुप्रयोग

    जब तर्क के साथ भावनाओं का समन्वय किया जाता है, तब प्रशासनिक प्रक्रियाएँ ‘सुशासन’ में परिवर्तित हो जाती हैं।

    • प्रशासन के ‘आयरन केज’ का मानवीकरण: नियम प्रायः कठोर होते हैं। भावनाएँ अधिकारी को विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग लोकहित में करने की क्षमता प्रदान करती हैं (कानून की भावना बनाम कानून का अक्षर)।
      • उदाहरण: किसी पेंशन योजना में एक वृद्ध महिला के पास एक दस्तावेज़ की कमी है। एक विशुद्ध तर्कसंगत आधारित व्यवस्था उसे अस्वीकृत कर देगी, जबकि भावनाओं को ‘मूल संसाधन’ मानने वाला अधिकारी उसकी विवशता को समझकर प्रक्रियात्मक विकल्प खोज सकता है।
    • संकट प्रबंधन: आपदा प्रबंधन में जहाँ लॉजिस्टिक योजना तर्कसंगत होती है, वहीं जीवन बचाने की तात्कालिकता और संवेदनशीलता मानव जीवन को दिये गये भावनात्मक मूल्य से उत्पन्न होती है।
      • उदाहरण: कोविड-19 महामारी के दौरान, जिन अधिकारियों ने अपने कर्तव्य से बढ़कर काम किया, वे केवल नौकरी के विवरण से प्रेरित नहीं थे, बल्कि एकजुटता और करुणा से प्रेरित थे।
    • गांधीजी का आदर्श वाक्य: महात्मा गांधी की यह सलाह कि "सबसे गरीब व्यक्ति के चेहरे को याद करो", मूलतः नैतिक तर्क के आधार के रूप में भावना, विशेषतः सहानुभूति का आह्वान है।

    ध्यान देने योग्य बात: मूल संसाधन बनाम तैयार उत्पाद

    यद्यपि भावनाएँ नैतिकता का मूल संसाधन हैं, वे एकमात्र कारक नहीं हो सकतीं। कच्ची सामग्री को परिष्करण की आवश्यकता होती है।

    • अनियंत्रित भावनाएँ: यह पक्षपात, भाई-भतीजावाद या आवेगपूर्ण निर्णयों को जन्म दे सकती है (जैसे मित्रता के आधार पर अनुबंध देना, न कि योग्यता के आधार पर)।
    • संतुलन: अरस्तू के अनुसार, कोई भी क्रोधित हो सकता है, लेकिन "उचित समय पर, उचित उद्देश्य के लिये और उचित ढंग से" क्रोधित होना ही सद्गुण है।

    निष्कर्ष

    निष्कर्षतः, बिना भावना का लोक सेवक एक यांत्रिक रोबोट के समान है और बिना तर्क का लोक सेवक अराजक। भावनाएँ मूल्यों (न्याय, करुणा, सत्यनिष्ठा) को प्रदान करती हैं, जबकि तर्क विधि को। लोक सेवक के लिये भावनात्मक बुद्धिमत्ता वह परिष्करण संयंत्र है, जो मानवीय भावनाओं की मूल संसाधन को नैतिक लोक सेवा के ‘तैयार उत्पाद’ में रूपांतरित करती है।