प्रश्न. भारतीय शहरीकरण केवल एक जनांकिकीय परिवर्तन नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत परिवर्तन है।” विश्लेषण कीजिये कि यह परिवर्तन किस प्रकार पहचान, सामाजिक संबंधों और स्थानिक असमानताओं को नया रूप दे रहा है। (250 शब्द)
उत्तर :
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हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत के शहरी परिवर्तन के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी के साथ उत्तर दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि यह परिवर्तन किस प्रकार पहचानों, सामाजिक संबंधों और स्थानिक असमानताओं को पुनर्गठित कर रहा है, साथ ही प्रत्येक पक्ष के लिये मुख्य तर्क प्रस्तुत कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय
भारत असाधारण गति से शहरीकरण कर रहा है और अनुमान है कि वर्ष 2036 तक 600 मिलियन लोग शहरों में निवास कर रहे होंगे, जो कुल जनसंख्या का लगभग 40 प्रतिशत होगा। यह केवल जनांकिकीय परिवर्तन नहीं है, बल्कि पारंपरिक, कृषि-आधारित, संबंध-आधारित सामाजिक जीवन-व्यवस्था से अधिक औद्योगिक, प्रवाही एवं अधिक व्यक्तिवादी सामाजिक संरचना की दिशा में एक गहन सभ्यतागत परिवर्तन है।
जैसा कि लुई विर्थ ने ने कहा है, “शहरीकरण/अर्बनिज़्म एक विशिष्ट जीवन-शैली का रूप ले लेता है जिसके माध्यम से शहर सामाजिक मानकों, संबंधों और व्यवहारों को पुनर्परिभाषित करता है।”
मुख्य भाग:
पहचानों का नया स्वरूप: परंपरा और आधुनिकता का अंतर्संबंध
- जाति: रीतिगत नियंत्रण से राजनीतिक स्वरूप तक
- अनुष्ठान का कमज़ोर होना: शहर की गुमनामी (जैसे: भीड़ भरी बसें, कार्यालय कैंटीन) अस्पृश्यता और सामूहिक भोजन जैसी रीतिगत बाध्यताओं की प्रथा को समाप्त कर देती है।
- पहचान के रूप में लचीलापन: किंतु जाति लुप्त नहीं होती, बल्कि नए रूप में उभरती है: यह राजनीतिक लामबंदी और सामाजिक नेटवर्किंग (जैसे: जाति-आधारित वैवाहिक वेबसाइट और आवासीय सहकारी समितियाँ) का माध्यम बनकर एक साधन के रूप में विकसित होती है।
- लैंगिक परिप्रेक्ष्य: नए शहरी अवसर और उभरती चुनौतियाँ
- सशक्तीकरण: शहर महिलाओं को शिक्षा और रोज़गार तक अभिगम्यता प्रदान करते हैं, जिससे पितृसत्तात्मक नियंत्रण कमज़ोर होता है।
- ‘कामकाज़ी महिला’ की पहचान पारंपरिक घरेलू भूमिकाओं को चुनौती देती है।
- नई कमज़ोरियाँ: यह बदलाव कामकाज़ और घर का ‘दोहरा बोझ’ सृजन करता है। इसके अलावा, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा बनी हुई है, जो महिलाओं के ‘शहर में प्रवेश के अधिकार’ को सीमित करती है।
- वर्ग बनाम जाति:
- एक नई वर्ग-आधारित पहचान उभर रही है, जो प्रायः व्यावसायिक हलकों में जाति को पीछे छोड़ देती है।
- हालाँकि, कई मामलों में, वर्ग और जाति एक दूसरे से ओवरलैप होते हैं (उदाहरण के लिये, उच्च जातियों और शहरी मध्यम वर्ग के बीच संबंध), जिससे ‘जाति-वर्ग’ सम्मिश्र संरचना निर्मित होती है।
सामाजिक संबंधों का रूपांतरण: सामूहिकता से व्यक्तिगत तक
- परिवार का संकुचन:
- संयुक्त परिवारों का स्थान तीव्रता से एकल और नव-स्थापित परिवार ले रहे हैं। रिश्तों में भावनात्मकता के स्थान पर अनुबंधीयता बढ़ रही है।
- वृद्ध जनों की देखभाल, जो कभी नैतिक कर्त्तव्य मानी जाती थी, अब औपचारिक संस्थानों (ओल्ड ऐज होम्स) को सौंपी जाने लगी है, जो पितृत्व-कर्त्तव्यों के मूल्यबोध में परिवर्तन का संकेतक है।
- पड़ोस (मोहल्ला) संस्कृति का पतन:
- उच्च सामाजिक निकटता और अनौपचारिक नियंत्रण वाला पारंपरिक ‘मोहल्ला’ जीवन, अब अपार्टमेंट में रहने की अवैयक्तिकता अर्थात् अनामिक संपर्कों (लिफ्ट परिचित) की संस्कृति में परिवर्तित होता जा रहा है।
- सामाजिक पूंजी अब नातेदारी या पड़ोस के बजाय पेशेवर नेटवर्क अब सामाजिक पूँजी के प्रमुख स्रोत बन रहे हैं।
- स्वैच्छिक संघटन:
- सामाजिक संबंध जन्म-आधारित संबंधों की अपेक्षा रुचियों, व्यावसायिक हितों अथवा साझा उद्देश्यों पर आधारित स्वैच्छिक समूहों (क्लब, यूनियन्स, गैर सरकारी संगठन) की ओर बढ़ रहे हैं, जो एक अधिक मेरिटोक्रेटिक (योग्यता आधारित) सामाजिक व्यवस्था की ओर परिवर्तन को इंगित करता है।
स्थानिक विषमताएँ: ‘द्वैध शहर’ की संरचना
- योजना-निर्मित पृथक्करण (गेटेड समुदाय बनाम मलिन बस्तियाँ):
- गेटेड समुदाय: गेटेड कम्युनिटीज़ ‘सफल लोगों के अलगाव’ का परिचायक हैं। ये वैश्वीकृत जीवन-द्वीप हैं जहाँ निजी सुरक्षा, जल और बिजली की सुविधा तो उपलब्ध है, लेकिन नागरिक नेटवर्क से कटे हुए हैं।
- झुग्गी-झोपड़ियाँ/अनौपचारिक बस्तियाँ: इसके विपरीत, शहरी भारत का लगभग 17% से अधिक हिस्सा झुग्गी-झोपड़ियों में रहता है (जनगणना 2011)। धारावी जैसी जगहें उस ‘सेवा वर्ग’ का प्रतिनिधित्व करती हैं जो शहर को शक्ति प्रदान करता है, लेकिन उसे औपचारिक आवास से वंचित रखा जाता है।
- यहूदी बस्ती:
- चिंताजनक बात यह है कि भारतीय शहरों में धर्म और जाति के आधार पर आवासीय अलगाव देखा जा रहा है।
- अध्ययनों से पता चलता है कि दलितों और मुसलमानों को प्रायः विशिष्ट बस्तियों में सीमित कर दिया जाता है, जिससे मुख्यधारा की शैक्षणिक और नागरिक अवसरों तक उनकी अभिगम्यता सीमित हो जाती है।
- परिधीय संकट:
- शहरी विस्तार के परिणामस्वरूप विकसित होने वाला ‘पेरि-अर्बन’ क्षेत्र ग्रामीण प्रवासियों को शहर की अर्थव्यवस्था में तो समाहित करता है किंतु उन्हें नगर निगम अधिकारों, आधारभूत सेवाओं और सामाजिक एकीकरण से दूर रखता है।
निष्कर्ष
इस गहन सामाजिक-स्थानिक रूपांतरण को सकारात्मक दिशा में ले जाने के लिये भारत को ‘अनियोजित शहरीकरण’ से ‘समावेशी शहरीकरण’ (SDG 11– सतत शहर एवं संतुलित समुदाय) की ओर बढ़ने की आवश्यकता है। इसके लिये ऐसी नागर-योजनाएँ आवश्यक हैं जो स्थानिक पृथक्करण की बजाय सामाजिक समेकन (जैसे: मिश्रित-आय आवास) को बढ़ावा दे सकें, ताकि प्रवासी मज़दूर से लेकर मध्यवर्गीय पेशेवर तक प्रत्येक व्यक्ति उस शहर में समान हिस्सेदारी का अधिकार प्राप्त कर सके जिसके निर्माण में वह अपने श्रम एवं संसाधनों का निरंतर योगदान दे रहा है।