भारत वर्ष 2047 तक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर राष्ट्र बनने की आकांक्षा रखता है। इस परिवर्तन में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रमुख संरचनात्मक चुनौतियों का परीक्षण कीजिये तथा उन्हें दूर करने हेतु आवश्यक सुधारों का सुझाव दीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- वर्ष 2047 तक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर राष्ट्र बनने के भारत के दृष्टिकोण का संक्षेप में परिचय दीजिये।
- इस परिवर्तन में बाधा डालने वाली प्रमुख संरचनात्मक समस्याओं का विश्लेषण कीजिये।
- इन समस्याओं को दूर करने के लिये आवश्यक सुधारों का सुझाव दीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
वर्ष 2047 तक आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर राष्ट्र बनने की भारत की परिकल्पना, जो ‘अमृत काल’ का एक प्रमुख स्तंभ है, एक ऐसे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी, नवाचार-प्रेरित तथा समुत्थानशील अर्थव्यवस्था के निर्माण पर आधारित है। आत्मनिर्भरता का आशय अलगाव नहीं है, बल्कि वैश्विक मूल्य शृंखलाओं के साथ भारत की शर्तों पर एकीकृत होने की क्षमता तथा विनिर्माण, प्रौद्योगिकी और रणनीतिक क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण क्षमताओं को सुरक्षित करने की योग्यता है। हालाँकि भारत को अभी भी कई गहन संरचनात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, जो इस संक्रमण को बाधित करती हैं।
मुख्य भाग:
आर्थिक आत्मनिर्भरता में बाधा डालने वाली संरचनात्मक सीमाएँ
- अवरुद्ध संरचनात्मक रूपांतरण (कृषि बनाम उद्योग): श्रम का प्रवाह निम्न-उत्पादक कृषि से उच्च-उत्पादक उद्योग की ओर (लुईस मॉडल) होना चाहिये। भारत में यह परिवर्तन अवरुद्ध है।
- कृषि का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में योगदान केवल लगभग 18% है जबकि यह लगभग 46% कार्यबल को रोज़गार प्रदान करती है। यह व्यापक प्रच्छन्न बेरोज़गारी और निम्न प्रति-व्यक्ति उत्पादकता को दर्शाता है।
- एक निर्वाह-आधारित कृषि अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर औद्योगिक राष्ट्र का आधार नहीं बन सकती।
- विनिर्माण संबंधी बाधाएँ और कम उत्पादकता: भारत की विनिर्माण हिस्सेदारी सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 17% से कम है, जो चीन या दक्षिण कोरिया के औद्योगिक विकास के प्रारंभिक दौर से काफी पीछे है। भूमि अधिग्रहण में कठिनाई, खंडित आपूर्ति शृंखलाएँ और प्रौद्योगिकी के अपर्याप्त अंगीकरण से उत्पादन क्षमता एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता सीमित हो जाती है।
- परिणामस्वरूप भारत इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर, रक्षा उपकरण, सौर मॉड्यूल और महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिये आयात पर निर्भर बना हुआ है।
- श्रम बाज़ार की कठोरता और कौशल असंतुलन: युवा श्रम शक्ति होने के बावजूद, भारत कौशल की कमी का सामना कर रहा है, जहाँ लगभग 5% कार्यबल औपचारिक रूप से कुशल है, जो ब्रिटेन (68%) और जर्मनी (75%) जैसे विकसित देशों की तुलना में काफी कम है।
- कठोर श्रम अनुपालन, अत्यधिक अनौपचारिकीकरण (75% से अधिक रोज़गार) और निम्न महिला श्रमबल भागीदारी उत्पादकता को घटाती है तथा पूँजी-गहन विनिर्माण को हतोत्साहित करती है।
- अवसंरचना अंतराल और उच्च लेन-देन लागत: गति शक्ति योजना के तहत सुधार होने के बावजूद, भारत अभी भी बंदरगाह दक्षता की कमी, लॉजिस्टिक्स अवरोधों, विद्युत आपूर्ति की अनियमितताओं और शहरी भीड़भाड़ जैसी समस्याओं से जूझ रहा है।
- उच्च लॉजिस्टिक्स और ऊर्जा लागत वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में भारतीय फर्मों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता को कम करती हैं।
- प्रौद्योगिकीय निर्भरता और निम्न अनुसंधान एवं विकास व्यय: भारत का अनुसंधान एवं विकास व्यय GDP के लगभग 0.65% पर स्थिर बना हुआ है, जो वैश्विक नवप्रवर्तकों की तुलना में काफी कम है।
- AI हार्डवेयर, दूरसंचार उपकरण, सेमीकंडक्टर, चिकित्सा उपकरण और रक्षा प्लेटफॉर्मों में आयात पर अत्यधिक निर्भरता तकनीकी संप्रभुता एवं रणनीतिक स्वायत्तता को सीमित करती है।
- वित्तीय क्षेत्र की कमज़ोरियाँ: वित्तीय क्षेत्र को उथले कॉर्पोरेट बॉण्ड बाज़ारों, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में ऋण संकेंद्रण और जोखिम से बचने वाले ऋण देने जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
- रोज़गार के इंजन माने जाने वाले लघु एवं मध्यम उद्यम (MSME) उच्च संपार्श्विक आवश्यकताओं, विलंबित भुगतानों एवं अपर्याप्त औपचारिक ऋण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं।
- प्रशासनिक और विनियामक अक्षमताएँ: जटिल अनुपालन प्रणालियाँ, कई स्वीकृतियाँ, नीति की अनिश्चितता और प्रशासनिक में विलंब से व्यावसायिक गतिविधियाँ धीमी हो जाती हैं।
- भारत ने ‘व्यापार सुगमता’ के मामले में सुधार किया है, लेकिन प्रवर्तन, अनुबंध समाधान और कराधान की जटिलता अभी भी प्रमुख समस्याएँ बनी हुई हैं।
- ऊर्जा सुरक्षा और आयात पर निर्भरता: भारत अपने कच्चे तेल का लगभग 85 प्रतिशत और प्राकृतिक गैस के अधिकांश भाग आयात करता है, जिससे अर्थव्यवस्था मूल्य में उतार-चढ़ाव एवं भू-राजनीतिक आघात के प्रति सुभेद्य हो जाती है।
- इससे भुगतान संतुलन पर दबाव पड़ता है, ऊर्जा की लागत अधिक बनी रहती है और मुद्रास्फीति प्रभावित होती है। आयातित सोलर मॉड्यूल, महत्त्वपूर्ण खनिजों एवं बैटरी घटकों पर निर्भरता उभरते स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्रों में रणनीतिक स्वायत्तता को भी सीमित करती है।
वर्ष 2047 तक आत्मनिर्भर भारत के लिये आवश्यक सुधार
- कारक बाज़ार सुधार:
- भूमि: भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण, पारदर्शी अधिग्रहण कार्यढाँचा।
- श्रम: श्रम संहिताओं का कार्यान्वयन, औपचारिकीकरण को बढ़ावा और महिला कार्यबल भागीदारी में वृद्धि।
- पूंजी: कॉरपोरेट बॉण्ड बाज़ारों को मज़बूत करना, MSME के लिये ऋण व्यवस्था में सुधार करना।
- औद्योगिक नीति और प्रौद्योगिकीय उन्नयन:
- उच्च तकनीक वाले क्षेत्रों— इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर, AI, बायोटेक, अंतरिक्ष, रक्षा पर केंद्रित ‘मेक इन इंडिया 2.0’ को बढ़ावा देना।
- सार्वजनिक–निजी अनुसंधान एवं विकास साझेदारियों को सुदृढ़ करना और अनुसंधान एवं विकास व्यय को सकल घरेलू उत्पाद के 2% तक ले जाना।
- संपूर्ण मूल्य शृंखला निर्माण के लिये राष्ट्रीय सेमीकंडक्टर और इलेक्ट्रॉनिक्स मिशन का विकास।
- बुनियादी अवसंरचना और लॉजिस्टिक्स परिवर्तन
- गति शक्ति, मल्टीमॉडल लॉजिस्टिक्स पार्क, बंदरगाह आधुनिकीकरण और नवीकरणीय ऊर्जा विस्तार की गति को तीव्र करना।
- वर्ष 2035 तक लॉजिस्टिक्स लागत को सकल घरेलू उत्पाद के 8–9% तक घटाना।
- मानव पूंजी और कौशल क्रांति:
- इंडस्ट्री 4.0 की आवश्यकताओं (रोबोटिक्स, AI, नवीकरणीय ऊर्जा, इलेक्ट्रिक वाहन) के अनुरूप स्किल इंडिया 2.0 को लागू करना।
- विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (STEM) शिक्षा,अप्रेंटिसशिप और उद्योग-संलग्न प्रशिक्षण को सशक्त करना।
- शासन और संस्थागत सुधार:
- सिंगल-विंडो सिस्टम, डिजिटाइज्ड अप्रूवल और समयबद्ध मंजूरी के माध्यम से अनुपालन को सरल बनाना
- अनुबंध प्रवर्तन, कर दक्षता और नियामक पारदर्शिता को मज़बूत करना।
निष्कर्ष:
वर्ष 2047 तक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये भारत को विनिर्माण, प्रौद्योगिकी, अवसंरचना, पूँजी और मानव विकास में समन्वित सुधारों के माध्यम से गहन संरचनात्मक सीमाओं को पार करने की आवश्यकता है। रणनीतिक नीतिगत दिशा, नवाचार-आधारित विकास और संस्थागत सुदृढ़ीकरण के साथ भारत अपने शताब्दी वर्ष तक एक समुत्थानशील, वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्द्धी एवं आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था में रूपांतरित हो सकता है।