प्रश्न. “पर्याप्त भंडार होने के बावजूद, भारत का दुर्लभ मृदा क्षेत्र अभी भी अविकसित है।” भारत की आर्थिक सुरक्षा के लिये इन दुर्लभ मृदा खनिजों के सामरिक महत्त्व का विश्लेषण कीजिये तथा इनके समुचित उपयोग में आने वाली प्रमुख चुनौतियों का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- दुर्लभ मृदा तत्त्वों (REE) का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- दुर्लभ मृदा खनिजों के सामरिक महत्त्व का विश्लेषण कीजिये।
- उनके इष्टतम उपयोग में बाधा डालने वाली प्रमुख चुनौतियों का मूल्यांकन कीजिये।
- आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भारत में अनुमानित 6.9 मिलियन टन दुर्लभ मृदा ऑक्साइड भंडार है, जो विश्व स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा भंडार है, फिर भी वैश्विक उत्पादन में इसका योगदान 1% से भी कम है। भंडार और उत्पादन के इस असंतुलन से यह स्पष्ट होता है कि भारत को प्रौद्योगिकीय स्वायत्तता तथा आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये अपने रेयर अर्थ एलिमेंट पारितंत्र को सुदृढ़ बनाना अनिवार्य है।
मुख्य भाग:
दुर्लभ मृदा खनिजों का सामरिक महत्त्व
- भारत के स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन और जलवायु लक्ष्यों के लिये महत्त्वपूर्ण: दुर्लभ मृदा तत्त्व (REE) स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिये अपरिहार्य हैं, जिनमें पवन टर्बाइनों में उपयोग किये जाने वाले स्थायी चुंबक, सौर कोशिकाओं में उत्प्रेरक और इलेक्ट्रिक वाहनों (EV) में बैटरी शामिल हैं।
- पवन ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों जैसे क्षेत्रों में दुर्लभ मृदा चुंबकों की माँग वर्ष 2030 तक लगभग दोगुनी होने की उम्मीद है, जो भारत के शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्य (2070) के अनुरूप है।
- राष्ट्रीय रक्षा और सामरिक स्वायत्तता के लिये आवश्यक: दुर्लभ मृदा धातुएँ उन्नत रक्षा तकनीकों जैसे मिसाइल मार्गदर्शन प्रणाली, संचार उपकरण, रडार और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर इक्विपमेंट के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- भारत वर्तमान में मुख्य रूप से चीन से आयात पर बहुत अधिक निर्भर है, जिससे कमज़ोरियाँ उत्पन्न होती हैं।
- आर्थिक विकास और रोज़गार सृजन को बढ़ावा: भारत के पास वैश्विक स्तर पर तीसरा सबसे बड़ा दुर्लभ मृदा भंडार (लगभग 6.9 मिलियन टन) है, जो मुख्य रूप से तटीय क्षेत्रों (केरल, तमिलनाडु, ओडिशा) में है।
- भारतीय दुर्लभ मृदा बाज़ार का मूल्य 9 बिलियन अमेरिकी डॉलर (वर्ष 2024) से अधिक है और इसके उल्लेखनीय रूप से बढ़ने की उम्मीद है, दुर्लभ मृदा खनन एवं प्रसंस्करण का विस्तार आर्थिक लाभ प्रदान कर सकता है।
- मूल्य शृंखला विकास के माध्यम से 'मेक इन इंडिया' विज़न का समर्थन: उच्च मूल्य वाले दुर्लभ मृदा उत्पादों के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने, आयात पर निर्भरता कम करने और भारत को एक वैश्विक आपूर्तिकर्त्ता के रूप में स्थापित करने के लिये विशाखापत्तनम में चुंबक निर्माण संयंत्रों तथा केरल एवं ओडिशा में एकीकृत शोधन सुविधाओं सहित पूर्ण मूल्य शृंखलाओं के निर्माण हेतु बड़े निवेश किये जा रहे हैं।
- आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये रणनीतिक भंडार और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: भारत आपूर्ति संबंधी आघात को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण दुर्लभ मृदा खनिजों के रणनीतिक भंडार का सक्रिय रूप से विकास कर रहा है।
- यह संसाधन संपन्न देशों के साथ साझेदारी भी कर रहा है और स्रोतों में विविधता लाने के लिये क्वाड जैसे गठबंधन बना रहा है।
दुर्लभ मृदा तत्त्वों के इष्टतम उपयोग में बाधा डालने वाली प्रमुख चुनौतियाँ
- सीमित घरेलू उत्पादन और पुरानी बुनियादी अवसंरचना: हालाँकि भारत के पास विश्व का तीसरा सबसे बड़ा दुर्लभ मृदा ऑक्साइड भंडार (लगभग 6.9 मिलियन टन) और वैश्विक समुद्र तटीय रेत खनिज भंडार का लगभग 35% हिस्सा है, फिर भी इसका वास्तविक उत्पादन मामूली है, खदान उत्पादन केवल लगभग 2,900 मीट्रिक टन प्रति वर्ष (वैश्विक आपूर्ति का 1% से भी कम) है।
- भू-राजनीतिक और आपूर्ति शृंखला की कमज़ोरियाँ: भू-राजनीतिक रूप से सुभेद्य क्षेत्रों, विशेष रूप से चीन से आयात पर भारत की निर्भरता, इसके महत्त्वपूर्ण प्रौद्योगिकी क्षेत्रों को आपूर्ति में व्यवधानों के प्रति सुभेद्य बनाती है।
- महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिये चल रही वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा कीमतों में अस्थिरता और उपलब्धता के जोखिमों को बढ़ा देती है।
- उच्च पूँजीगत लागत और लंबी समय सीमा: एकीकृत खनन और प्रसंस्करण बुनियादी अवसंरचना की स्थापना के लिये पर्याप्त निवेश की आवश्यकता होती है।
- अनुप्रवाह प्रसंस्करण और मूल्यवर्द्धन का अभाव: भारत का दुर्लभ मृदा क्षेत्र मुख्य रूप से खनन और प्रारंभिक प्रसंस्करण (जैसे: पृथक्करण और ऑक्साइड उत्पादन) पर केंद्रित है।
- हालाँकि, उन्नत प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों के लिये आवश्यक मिश्रधातु, स्थायी चुंबक और तैयार घटकों जैसे मध्यवर्ती उत्पादों के उत्पादन में इसकी क्षमताएँ सीमित हैं।
- पर्यावरणीय और सामाजिक जोखिम: दुर्लभ मृदा खनन में थोरियम जैसे रेडियोधर्मी तत्त्वों से जुड़े खनिजों का निष्कर्षण शामिल है, जिससे पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य संबंधी खतरे उत्पन्न होते हैं तथा कड़े नियामक निरीक्षण की आवश्यकता होती है।
भारत में दुर्लभ मृदा सामग्री पारिस्थितिकी तंत्र को सुदृढ़ करने के उपाय
- राष्ट्रीय महत्त्वपूर्ण खनिज मिशन (NCMM) को गति प्रदान करना: खनिज सर्वेक्षण को त्वरित किया जाना चाहिये, वर्ष 2030 तक 1,200 महत्त्वपूर्ण खनिज ब्लॉकों का अन्वेषण किया जाना चाहिये और घरेलू शोधन एवं प्रसंस्करण क्षमता का विस्तार किया जाना चाहिये।
- एकीकृत REE विनिर्माण क्लस्टर विकसित करना: ऑस्ट्रेलिया के क्लस्टर मॉडल से प्रेरणा लेते हुए, एक पूर्ण मूल्य शृंखला बनाने के लिये ओडिशा (LREE), आंध्र प्रदेश (HREE) और तमिलनाडु (चुंबक विनिर्माण) में विशेष केंद्र बनाए जाने चाहिये।
- रणनीतिक भंडार का निर्माण: दुर्लभ मृदा के सरकार समर्थित भंडार बनाए जाने चाहिये तथा आपूर्ति आघात और बाज़ार में अस्थिरता को कम करने के लिये मूल्य सीमा/न्यूनतम खरीद गारंटी जैसी व्यवस्थाएँ लागू की जानी चाहिये।
- दुर्लभ मृदा चुंबकों के लिये PLI का विस्तार: घरेलू चुंबक विनिर्माण को बढ़ाने और वर्ष 2030 तक वैश्विक मांग के 15% को पूरा करने के लिये धन बढ़ाएँ, इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय क्षेत्रों का समर्थन किया जाना चाहिये। घरेलू चुंबक विनिर्माण को बढ़ाने और वर्ष 2030 तक वैश्विक माँग के 15% को पूरा करने के लिये वित्तीय सहायता बढ़ाई जानी चाहिये जिससे EV तथा नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्रों को समर्थन मिले।
- अनुसंधान एवं विकास तथा चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा: हरित खनन के लिये उत्कृष्टता केंद्र (CoE) स्थापित किये जाने चाहिये तथा जापान और दक्षिण कोरिया की सर्वोत्तम प्रथाओं का पालन करते हुए ई-अपशिष्ट से REE के बड़े पैमाने पर पुनर्चक्रण को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- सुदृढ़ सुरक्षा उपायों के साथ नियमों को सुव्यवस्थित करना: मोनाज़ाइट-समृद्ध और विकिरण-संवेदनशील निक्षेपों के लिये सख्त सुरक्षा उपाय सुनिश्चित करते हुए खनन/पर्यावरणीय मंज़ूरी को सरल बनाया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ ने उचित ही कहा है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिये मुख्य प्रश्न केवल यह नहीं है कि “आज एक अर्थव्यवस्था क्या उत्पादन कर सकती है, बल्कि यह है कि वह क्या उत्पादन करना सीख सकती है !”
यही सिद्धांत भारत की दुर्लभ मृदा तत्त्वों के संबंध में सामरिक प्रगति का मार्गदर्शन कर सकता है। इस दृष्टि को साकार करने के लिये भारत को एक समग्र दुर्लभ धातु रणनीति अपनानी चाहिये जिसमें राष्ट्रीय खनिज पदार्थ केंद्र (NCMM) का शीघ्र संचालन, PLI प्रोत्साहनों का विस्तार, एकीकृत औद्योगिक क्लस्टरों का विकास तथा पर्यावरणीय संरक्षण की सुदृढ़ व्यवस्थाओं के साथ विनियमों का सरलीकरण शामिल हो।