• प्रश्न :

    निबंध विषयः

    प्रश्न “प्रबंधन का अर्थ है कार्यों को सही ढंग से करना; नेतृत्व का अर्थ है सही कार्य करना।” (1200 शब्द)

    प्रश्न  “वह समाज जो अपने सिद्धांतों से अधिक अपने विशेषाधिकारों को महत्त्व देता है, वह शीघ्र ही दोनों से वंचित हो जाता है।” (1200 शब्द)

    01 Nov, 2025 निबंध लेखन निबंध

    उत्तर :

    प्रश्न 1. “प्रबंधन का अर्थ है कार्यों को सही ढंग से करना; नेतृत्व का अर्थ है सही कार्य करना।” (1200 शब्द)

    परिचय:

    वर्ष 1962 में, राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के NASA परिसर के औपचारिक दौरे के दौरान, वे फर्श साफ कर रहे एक सफाईकर्मी के पास रुके। जब उससे पूछा गया कि वो क्या कर रहा है, तो उस सफाईकर्मी ने उत्तर दिया, “मैं एक मानव को चंद्रमा पर पहुँचाने में सहायता कर रहा हूँ।”

    इस विनम्र उत्तर ने नेतृत्व एवं प्रबंधन के उस समन्वय को स्पष्ट रूप से दर्शाया, जिसमें नेतृत्व ने ऐसा सशक्त दृष्टिकोण प्रदान किया कि एक सफाईकर्मी भी स्वयं को उसका अभिन्न अंग समझे, किंतु प्रबंधन ने यह सुनिश्चित किया कि प्रत्येक प्रक्रिया (चाहे वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो) उस दृष्टिकोण को साकार करने हेतु प्रभावशाली ढंग से कार्यान्वित की जाए।

    यह प्रसंग पीटर ड्रकर की उस महत्त्वपूर्ण समझ को अत्यंत सुंदर ढंग से स्पष्ट करता है—“Management is doing things right; leadership is doing the right things.” प्रबंधन यह सुनिश्चित करता है कि किसी संगठन का प्रत्येक घटक प्रभावशील रूप से कार्य करे, किंतु नेतृत्व यह सुनिश्चित करता है कि वे सभी प्रयास किसी सार्थक लक्ष्य की ओर अग्रसर हों। सफलता के लिये दोनों अनिवार्य हैं—एक साधन प्रदान करता है, जबकि दूसरा दिशा देता है।

    मुख्य भाग:

    मुख्य अवधारणाओं की व्याख्या कीजिये

    • प्रबंधन का अर्थ
      • यह योजना बनाने, संगठन तैयार करने, कर्मचारियों की नियुक्ति करने, कार्यों का निर्देशन करने तथा सभी गतिविधियों पर नियंत्रण रखने से संबंधित है।
      • यह दक्षता, स्थिरता तथा संसाधनों के प्रभावी उपयोग पर केंद्रित है।
      • यह नियमों, पदानुक्रम, तथा मापनीय परिणामों द्वारा मार्गदर्शित होता है।
      • उदाहरण: एक ज़िला कलेक्टर द्वारा MGNREGA परियोजनाओं को समय पर पूरा करवाना प्रबंधकीय दक्षता को दर्शाता है।
    • नेतृत्व का अर्थ
      • इसमें दृष्टिकोण, प्रेरणा, नैतिक मार्गदर्शन तथा रणनीतिक दूरदर्शिता शामिल होती है।
      • यह नैतिक तथा सामाजिक रूप से सही कार्य करने पर केंद्रित होता है, भले ही वह कठिन क्यों न हो।
      • अक्सर इसमें जोखिम उठाना और नवाचार शामिल होता है।
      • उदाहरण: डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने प्रेरणा और नैतिक दृढ़ विश्वास के माध्यम से नेतृत्व किया, जिससे लोग केवल प्रक्रियाओं का पालन करने से परे जाकर सक्रिय रूप से कार्य करने के लिये प्रेरित हुए।

    नेतृत्व और प्रबंधन में अंतर

    पहलू प्रबंधन (सही तरीके से कार्य करना) नेतृत्व (सही कार्य करना)
    केंद्रितता प्रक्रिया और दक्षता दृष्टिकोण और उद्देश्य
    दृष्टिकोण प्रतिक्रियाशील और प्रशासनिक सक्रिय और रूपान्तरणकारी
    ओरिएंटेशन लघुकालीन परिणाम दीर्घकालीन लक्ष्य
    नैतिक आधार नियमों का पालन मूल्यों और सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित
    उदाहरण सरकारी प्रक्रियाओं का कड़ाई से पालन करना बेहतर सेवा प्रदान करने के लिये पुराने नियमों में सुधार करना

    पारस्परिक निर्भरता: नेतृत्व और प्रबंधन का परस्पर पूरक होना

    • दोनों विरोधी होने की बजाय परस्पर सशक्त करने वाले होते हैं।
    • प्रभावी शासन या संगठन के लिये ऐसे नेता आवश्यक हैं, जो प्रबंधन कर सकें और ऐसे प्रबंधक आवश्यक हैं, जो नेतृत्व कर सकें।
    • उदाहरण:
      • सरदार वल्लभभाई पटेल ने प्रबंधकीय कौशल (रियासतों का एकीकरण) को नेतृत्व दृष्टि (राष्ट्रीय एकता) के साथ जोड़ा।
      • सिविल सेवकों को नवाचार हेतु नेतृत्व और नीतियों को प्रभावी रूप से लागू करने के लिये प्रबंधन प्रदर्शित करना आवश्यक है।

    नैतिक पहलू

    • नेतृत्व में अक्सर नैतिक साहस शामिल होता है — सुविधाजनक विकल्प की बजाय ‘सही कार्य’ का चयन करना।
    • प्रबंधन प्रक्रियाओं की अखंडता सुनिश्चित करता है, यानी ‘सही ढंग से कार्य करना।’
    • उदाहरण:
      • एक नेता, जो पूरे सिस्टम में दबाव होने के बावजूद भी भ्रष्टाचार से दूर रहता है, सही कार्य करने का उदाहरण प्रस्तुत करता है।
      • एक प्रबंधक, जो पारदर्शी तरीके से निविदा प्रक्रिया लागू करता है, सही ढंग से कार्य करने का उदाहरण पेश करता है।

    सार्वजनिक प्रशासन और शासन में अनुप्रयोग

    • नीति-निर्माण बनाम क्रियान्वयन: नेतृत्व यह तय करता है कि कौन-सी नीति अपनाई जाए (जैसे- सतत् विकास), जबकि प्रबंधन यह सुनिश्चित करता है कि उस नीति को सही एवं प्रभावी ढंग से लागू किया जाए।
    • संकट प्रबंधन: आपदा के समय नेतृत्व यह दिखाता है कि हमें क्या करना चाहिये और शांतिपूर्ण दिशा देता है, जबकि प्रबंधन यह सुनिश्चित करता है कि सभी संसाधन और कार्य सही ढंग से समन्वित एवं व्यवस्थित हों।
    • नैतिक शासन: नेतृत्व विश्वास पैदा करता है, जबकि प्रबंधन जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।

    समसामयिक उदाहरण

    • नेतृत्व:
      • जैसिंडा आर्डर्न का क्राइस्टचर्च त्रासदी के दौरान करुणामय नेतृत्व।
      • महात्मा गांधी का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नैतिक नेतृत्व।
    • प्रबंधन:
      • डिजिटल इंडिया और आधार योजना का कार्यान्वयन, जिसके लिये मज़बूत प्रशासनिक दक्षता आवश्यक है।
    • दोनों का समन्वय:
      • भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी सामाजिक नवाचारों में नेतृत्व करते हैं, जैसे- महाराष्ट्र के जलयुक्त शिवार अभियान में जल संरक्षण करना।

    दोनों के संतुलन में चुनौतियाँ

    • प्रबंधन पर अधिक ध्यान देने से प्रशासनिक जड़ता उत्पन्न हो सकती है।
    • नेतृत्व पर ज्यादा ज़ोर देने से अच्छे विचार तो सामने आते हैं, किंतु उन्हें लागू करने में कठिनाई होती है।
    • आधुनिक शासन को प्रबंधकीय जवाबदेही के साथ अनुकूलनीय नेतृत्व की आवश्यकता है।

    आगे की राह

    • सार्वजनिक सेवाओं में नैतिक और दूरदर्शी नेतृत्व के साथ प्रबंधकीय क्षमता का विकास करना चाहिये।
    • नेतृत्व और प्रबंधन कौशल को एकीकृत करने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों (जैसे- मिशन कर्मयोगी) को बढ़ावा देना चाहिये।
    • शासन में सहभागी निर्णय-निर्माण, नवाचार और नैतिक चिंतन को प्रोत्साहित करना चाहिये।

    निष्कर्ष:

    प्रबंधन कार्यों की दक्षता और सुव्यवस्था बनाए रखता है, जबकि नेतृत्व हमें सही दिशा एवं उद्देश्य दिखाता है। प्रबंधन देखता है कि काम कैसे किये जा रहे हैं, वहीं नेतृत्व यह तय करता है कि कौन-से काम क्यों और किसलिये किये जाने चाहियें। असली सफलता दोनों का संतुलित उपयोग करने में है — प्रबंधन के अनुशासन के साथ नेतृत्व की समझ। जैसा कि पीटर ड्रकर कहते हैं, प्रगति सिर्फ “काम सही ढंग से करने” में नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करने में है कि हम हमेशा “सही काम कर रहे हों।”


    प्रश्न 2. “वह समाज जो अपने सिद्धांतों से अधिक अपने विशेषाधिकारों को महत्त्व देता है, वह शीघ्र ही दोनों से वंचित हो जाता है।” (1200 शब्द)

    परिचय:

    वर्ष 1776 में, जब अमेरिका ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा तैयार की, तब बेंजामिन फ्रैंकलिन ने अपने साथी क्रांतिकारियों को चेतावनी दी, “हम सभी को साथ रहना चाहिये, अन्यथा निश्चय ही हम सभी अलग-अलग फाँसी पाएँगे।” उनकी चेतावनी केवल एकता के संबंध में नहीं थी, बल्कि व्यक्तिगत विशेषाधिकारों से ऊपर साझा सिद्धांतों को प्राथमिकता देने के महत्त्व पर भी थी। यदि संस्थापकों ने स्वतंत्रता और न्याय की बजाय सत्ता या धन का पीछा किया होता, तो उनकी स्वतंत्रता का संघर्ष विफल हो जाता।

    यह कालजयी शिक्षा आइजनहावर के शब्दों में भी गूंजती है कि जो समाज विशेषाधिकारों को सिद्धांतों से ऊपर मानते हैं, अंततः दोनों ही खो देते हैं। भौतिक संपत्ति, अधिकार या स्वतंत्रताएँ उस नैतिक आधार के बिना टिक नहीं सकतीं, जो उन्हें अर्थ प्रदान करता है।

    मुख्य भाग

    मूल अवधारणाओं की समझ

    • विशेषाधिकार: विशेषाधिकार उन अधिकारों, लाभों या सुविधाओं को दर्शाते हैं, जिनको व्यक्ति या समूह प्राप्त करते हैं, जैसे- अपनी बात कहने की स्वतंत्रता, आर्थिक समृद्धि और राजनीतिक शक्ति।
      • जहाँ विशेषाधिकार प्रगति का संकेत देते हैं, वहीं वे ज़िम्मेदारी और संयम की भी मांग करते हैं।
      • जब व्यक्तिगत स्वार्थ सामूहिक कल्याण पर हावी हो जाता है, तो विशेषाधिकार हकदारी में बदल जाता है, जिससे सामाजिक विश्वास क्षीण होता है।
    • सिद्धांत: सिद्धांत वे नैतिक और वैधानिक नियम हैं, जो मानव व्यवहार का मार्गदर्शन करते हैं, जैसे- सत्य, न्याय, समानता और ईमानदारी।
      • वे यह निर्धारित करते हैं कि विशेषाधिकारों का प्रयोग कैसे किया जाना चाहिये। सिद्धांतों के बिना, विशेषाधिकार नैतिक वैधता खो देते हैं और शोषण या भ्रष्टाचार के साधन बन जाते हैं।

    विशेषाधिकार और सिद्धांत के बीच अंतर्संबंध

    • विशेषाधिकार और सिद्धांत एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
    • सिद्धांत यह सुनिश्चित करते हैं कि विशेषाधिकार नैतिक रूप से प्रयोग किये जाएँ।
    • विशेषाधिकार व्यक्तियों को उन सिद्धांतों के अनुसार जीवन जीने की सुविधा प्रदान करते हैं।
    • जब यह संतुलन टूट जाता है, तो स्वतंत्रता अव्यवस्था बन जाती है और अधिकारों का दुरुपयोग होने लगता है। केवल तब जब विशेषाधिकार मूल्यों द्वारा मार्गदर्शित होते हैं, वे प्रगति और सामंजस्य को बनाए रख पाते हैं।

    ऐतिहासिक उदाहरण

    • रोमन साम्राज्य का पतन: रोमन गणराज्य, जो कभी नागरिक गुणों पर आधारित था, तब ध्वस्त हो गया, जब नागरिकों और नेताओं ने कर्त्तव्य की अपेक्षा विलासिता को प्राथमिकता दी।
      • सिद्धांत के बिना विशेषाधिकार नैतिक पतन, भ्रष्टाचार और विनाश को जन्म देते हैं — यह साबित करता है कि राजनीतिक पतन से पहले नैतिक पतन होता है।
    • फ्राँसीसी क्रांति: फ्राँस के अभिजात वर्ग को व्यापक विशेषाधिकार प्राप्त थे, जबकि वे गरीबों के दुःख-दर्द की पूरी तरह अनदेखी करते थे।
      • उनकी नैतिक अंधता ने विद्रोह और गिलोटिन को जन्म दिया।
      • न्याय और समानता के सिद्धांतों को नज़रअंदाज करने में, उन्होंने अपनी शक्ति और जीवन दोनों खो दिये।
    • भारत का स्वतंत्रता संग्राम: इसके विपरीत, महात्मा गांधी का नेतृत्व बदले की भावना और विशेषाधिकारों की बजाय सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों का प्रतीक बना।
      • नैतिकता को सुविधावाद से ऊपर रखकर भारत ने स्वतंत्रता और नैतिक अधिकार दोनों प्राप्त किये। यह इस बात का प्रमाण है कि सिद्धांत स्थायी विशेषाधिकार प्रदान करते हैं।

    समसामयिक प्रासंगिकता

    • राजनीतिक क्षेत्र: आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भ्रष्टाचार, पक्षपात और सत्ता का दुरुपयोग यह दर्शाते हैं कि जब विशेषाधिकार सिद्धांतों पर हावी हो जाते हैं, तब क्या परिणाम उत्पन्न होते हैं।
      • राजनीतिक पद, जिसका अर्थ सार्वजनिक सेवा है, अक्सर व्यक्तिगत हकदारी बन जाता है। नैतिकता का ह्रास लोकतंत्र और शासन में विश्वास, दोनों को कमज़ोर करता है।
    • आर्थिक एवं कॉर्पोरेट नैतिकता: वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट ने यह उजागर किया कि अनियंत्रित लालच (अर्थात ज़िम्मेदारी के बिना विशेषाधिकार) किस प्रकार अर्थव्यवस्थाओं को विनष्ट कर सकता है।
      • वास्तविक प्रगति के लिये नैतिक पूंजीवाद आवश्यक है, जहाँ लाभ पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ जुड़ा हो।
    • पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी: जलवायु संकट यह दर्शाता है कि मानवता ने स्थिरता के सिद्धांत की कितनी उपेक्षा की है।
      • अल्पकालिक सुख-सुविधाओं के लिये प्रकृति का दोहन करके हम वर्तमान विशेषाधिकारों और भविष्य में अस्तित्व दोनों को खोने का जोखिम उठाते हैं।

    नैतिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण

    • सिविल सेवकों के लिये सत्ता एक पवित्र न्यास है, न कि व्यक्तिगत अधिकार। जब इसे सत्यनिष्ठा, निष्पक्षता और समानुभूति के साथ प्रयोग किया जाता है, तो यह लोकतंत्र को मज़बूत करता है।
    • दुरुपयोग करने पर, यह विश्वसनीयता को नष्ट कर देता है।
    • मिशन कर्मयोगी जैसी प्रशिक्षण पहलें प्रशासनिक विशेषाधिकार को नैतिक दायित्व के साथ संरेखित करने का प्रयत्न करती हैं, ताकि शासन व्यवस्था जन-केंद्रित तथा सिद्धांतनिष्ठ बनी रहे।

    आगे की राह

    • नैतिक शिक्षा: प्रारंभिक शिक्षा से ही नागरिक तथा नैतिक मूल्य समाहित किये जाएँ।
    • संस्थागत उत्तरदायित्व: विशेषाधिकार के दुरुपयोग को रोकने हेतु पारदर्शिता को अनिवार्य किया जाए।
    • उदाहरण द्वारा नेतृत्व: नेताओं का नैतिक आचरण सामाजिक सत्यनिष्ठा को प्रेरित करता है।
    • नागरिकों का दायित्व: लोकतंत्र को बनाए रखने के लिये अधिकारों को कर्त्तव्यों के साथ संतुलित किया जाए।

    निष्कर्ष

    विशेषाधिकार का वास्तविक महत्त्व तभी स्थापित होता है, जब वह सिद्धांतों पर आधारित हो। कोई भी समाज यदि सुविधा अथवा शक्ति के लिये नैतिकता का त्याग कर देता है, तो वह न केवल नैतिक वैधता, बल्कि भौतिक स्थिरता भी गँवा सकता है। वास्तविक महानता धन अथवा अधिकार में नहीं, बल्कि उन मूल्यों में निहित होती है, जो इनके परे दीर्घकाल तक सुनिश्चित रहते हैं।

    जैसा कि आइज़नहावर ने हमें याद दिलाया, “जो लोग अपने सिद्धांतों से ऊपर अपने विशेषाधिकारों को महत्त्व देते हैं, वे जल्द ही दोनों को खो देते हैं।” किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व इस बात पर निर्भर नहीं करता कि उसके पास क्या है, बल्कि इस बात पर निर्भर करता है कि वह किन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है।