प्रश्न. क्या कार्यपालिका द्वारा बार-बार अध्यादेशों का सहारा लिया जाना भारत में 'शक्तियों के पृथक्करण' तथा 'संसदीय उत्तरदायित्व' के सिद्धांतों को कमज़ोर करता है? विवेचना कीजिये।
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- अध्यादेश बनाने की शक्ति के संवैधानिक आधार और उद्देश्य का परिचय दीजिये।
- शक्तियों के पृथक्करण और संसदीय उत्तरदायित्व को कमज़ोर करने वाले अध्यादेशों के पक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिये।
- अध्यादेशों ने रचनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति किस प्रकार की है, विवेचना कीजिये।
- आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
- संविधान का अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति (और अनुच्छेद 213 राज्यपाल) को विधानमंडल के सत्र में न होने पर अध्यादेश जारी करने का अधिकार देता है। इसका उद्देश्य अत्यावश्यक और अप्रत्याशित परिस्थितियों में शासन की निरंतरता सुनिश्चित करना है।
- हालाँकि, अधिकरण सुधार (सुव्यवस्थीकरण और सेवा शर्तें) अध्यादेश, 2021 जैसे बार-बार और राजनीतिक रूप से प्रेरित उपायों ने कार्यपालिका के अतिक्रमण तथा उसके संसदीय संप्रभुता और शक्तियों के पृथक्करण पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर गहन बहस को जन्म दिया है।
मुख्य भाग:
शक्तियों के पृथक्करण और संसदीय उत्तरदायित्व को कमज़ोर करने वाले अध्यादेश:
- विधायी जाँच की अनदेखी: अध्यादेश प्रायः संसदीय वाद-विवाद का स्थान ले लेते हैं, जिससे विधायी निगरानी और विचार-विमर्श कम हो जाता है।
- नियंत्रण और संतुलन का विरूपण: डी.सी. वाधवा (वर्ष 1987) में निरस्त तथा कृष्ण कुमार सिंह (वर्ष 2017) में पुनः पुष्टि के प्रकरणों में दोबारा अध्यादेश जारी करने की प्रथा को असंवैधानिक ठहराया गया, जिससे स्पष्ट होता है कि अध्यादेश कभी-कभी समानांतर विधि-निर्माण तंत्र का रूप ले लेते हैं।
- संसदीय उत्तरदायित्व में कमी: अध्यादेश तुरंत प्रभावी हो जाते हैं, जिससे मंत्रियों से सवाल पूछने या नीतिगत प्रभावों पर वाद-विवाद करने के अवसर सीमित हो जाते हैं।
- लोकतांत्रिक मानदंडों का क्षरण: अध्यादेशों का अत्यधिक उपयोग कार्यपालिका में शक्ति को केंद्रित करता है, जिससे संविधान में परिकल्पित संस्थागत संतुलन कमज़ोर होता है।
हालाँकि, अध्यादेशों ने रचनात्मक उद्देश्य भी पूरे किये हैं:
- शासन की निरंतरता सुनिश्चित करना: संसदीय अवकाश, आर्थिक संकट या आपात स्थितियों के दौरान समय पर कार्रवाई को सक्षम बनाना।
- विधायी कमियों को पूरा करना: बैंकिंग विनियमन और तीन तलाक उन्मूलन जैसे तत्काल सुधारों को विधायी अनुमोदन के अधीन लागू करने के लिये इसका उपयोग किया जाता है।
- संवैधानिक वैधता: ए.के. रॉय (1982) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यादेश बनाने को एक वैध विधायी साधन माना, बशर्ते इसका जिम्मेदारी से प्रयोग किया जाए।
निष्कर्ष:
यद्यपि अध्यादेश जारी करने की शक्ति आपात परिस्थितियों के लिये एक संवैधानिक आवश्यकता है, परंतु इसका बार-बार तथा राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित प्रयोग 'शक्तियों के पृथक्करण' के सिद्धांत और कार्यपालिका की संसद के प्रति उत्तरदायित्व की भावना को कमज़ोर करता है। इसलिये अध्यादेशों पर अत्यधिक निर्भरता लोकतांत्रिक ढाँचे को कमज़ोर करती है और इसे संस्थागत नियंत्रणों तथा प्रक्रियात्मक अनुशासन के माध्यम से सीमित किया जाना चाहिये।