प्रश्न. “आवश्यक सेवाओं को वस्तुओं के रूप में नहीं देखा जा सकता।” आधुनिक समाज में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के व्यवसायीकरण से उत्पन्न नैतिक चिंताओं का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- उत्तर की शुरुआत उन आवश्यक सेवाओं के संबंध में संक्षिप्त जानकारी देते हुए कीजिये जो एक न्यायपूर्ण और समान समाज के मूल तत्त्व हैं।
- व्यवसायीकरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न नैतिक चिंताओं का वर्णन कीजिये।
- व्यवसायीकरण से निपटने के उपाय सुझाएँ।
- उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा मूल मानव अधिकार और आवश्यक सेवाएँ हैं, जो एक न्यायसंगत, समान और मानवीय समाज की नींव बनाती हैं, जैसा कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कल्पित है – न्याय, समता और भाईचारे को सुनिश्चित करना।
- जब ऐसी सेवाओं को वस्तु के रूप में देखा जाता है, तो वे अधिकार आधारित लाभों से बाज़ार-संचालित उत्पादों में बदल जाती हैं, जिससे कल्याणकारी राज्य के नैतिक ढाँचे को कमज़ोर किया जाता है।
मुख्य भाग:
व्यवसायीकरण से उत्पन्न नैतिक चिंताएँ
- सामाजिक और आर्थिक न्याय का उल्लंघन
- निर्देशक सिद्धांत (अनुच्छेद 39, 41, 47) राज्य को स्वास्थ्य और शिक्षा तक समान पहुँच सुनिश्चित करने का दायित्व देते हैं।
- निजीकरण इन आदर्शों को अप्रभावी करता है क्योंकि यह केवल उन लोगों के लिये सुविधाएँ सीमित कर देता है जो इसे वहन कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, अत्यधिक चिकित्सा बिल या उच्च शैक्षिक शुल्क गरीब और हाशिये पर रहने वाले लोगों को बाहर कर देते हैं।
- समता और पहुँच संबंधी मुद्दे
- वस्तुवाद (Commodification) अमीर और गरीब के बीच अंतर को बढ़ाता है।
- इसका परिणाम यह होता है कि गुणवत्तापूर्ण निजी संस्थानों तक केवल कुछ की ही विशेष पहुँच होती है, जबकि सार्वजनिक सेवाएँ अवित्तीय और उपेक्षित रह जाती हैं।
- नैतिक उद्देश्य का क्षरण
- स्वास्थ्य सेवा लेन-देन का माध्यम बन जाती है: ध्यान मरीज की भलाई के बजाय लाभ अधिकतम करने पर केंद्रित हो जाता है।
- उदाहरण: अतिरिक्त या अनावश्यक सर्जरी, परीक्षण या दवाइयाँ आय बढ़ाने के लिये।
- शिक्षा एक वस्तु बन जाती है: कोचिंग संस्थान भय और प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित व्यवसाय में विकसित होते हैं, जो समग्र विकास और नैतिक तर्क को कमज़ोर करते हैं।
- मानव गरिमा और स्वायत्तता का ह्रास
- मरीजों या विद्यार्थियों को केवल “ग्राहक” के रूप में देखने से उन्हें केवल साधन बना दिया जाता है, लक्ष्य नहीं- जो कांट के नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन है।
- गरीबों को मूलभूत सेवाओं तक पहुँच के लिये ऋण लेने या अनैतिक विकल्प अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है।
- व्यवसायिक नैतिकता का समझौता
- डॉक्टरों और शिक्षकों से अपेक्षा की जाती है कि वे परोपकार, अहिंसा और सत्यनिष्ठा के मूल्यों को बनाए रखें।
- बाज़ार आधारित प्रोत्साहन पेशेवर निर्णयों को प्रभावित करते हैं, जिससे हितों का टकराव उत्पन्न होता है।
- सार्वजनिक विश्वास में क्षरण
- लाभ आधारित और पक्षपाती संस्थानों की धारणा सार्वजनिक और निजी दोनों प्रणालियों में विश्वास को कम करती है।
- यह नागरिकों और राज्य के बीच सामाजिक अनुबंध को कमज़ोर करता है।
- संविधान की मूल भावना का उल्लंघन
- अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में स्वास्थ्य और शिक्षा का अधिकार शामिल है।
- आवश्यक सेवाओं को वस्तु के रूप में देखने से ऐसा बाज़ार आधारित असमान समाज बन सकता है, जहाँ अधिकार केवल क्रय शक्ति पर निर्भर हों।
- आवश्यक सेवाओं को वस्तु के रूप में देखने से एक बाज़ार आधारित अलगाव (Market Apartheid) उत्पन्न होने का खतरा रहता है, जहाँ अधिकार केवल क्रय शक्ति पर निर्भर होते हैं।
व्यवसायीकरण से निपटने के उपाय
- सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं को सुदृढ़ करना
- स्वास्थ्य और शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय को क्रमशः GDP के 6% और 2.5% तक बढ़ाना (NEP 2020, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017)।
- नैतिक नियम और निगरानी
- राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग और राष्ट्रीय शिक्षा मान्यता बोर्ड जैसी नियामक संस्थाओं को सुदृढ़ करना, नैतिकता और पारदर्शिता पर ध्यान केंद्रित करते हुए।
- पेशेवर प्रशिक्षण में नैतिकता
- चिकित्सा और शिक्षण नैतिकता को पेशेवर पाठ्यक्रम में शामिल करना, लाभ के बजाय सेवा उन्मुख दृष्टिकोण को बढ़ावा देना।
- समावेशी सेवा वितरण मॉडल
- सख्त नैतिक दिशा-निर्देशों और गरीबोन्मुख ध्यान के साथ सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) लागू करना।
- उदाहरण: आयुष्मान भारत सार्वजनिक वित्तपोषण और निजी वितरण को मिलाकर सार्वभौमिक कवरेज का लक्ष्य रखता है।
निष्कर्ष
शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आवश्यक सेवाएँ एक लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य की नींव बनाती हैं। इनका व्यवसायीकरण संवैधानिक मूल्यों को कमज़ोर करता है, नैतिकता से समझौता करता है और सामाजिक असमानताओं को बढ़ाता है। आगे बढ़ने का नैतिक मार्ग राज्य की भूमिका को न्याय के प्रदाता के रूप में पुनः स्थापित करने में है, न कि केवल एक बाज़ार नियामक के रूप में। तभी भारत गरिमा, समता और भाईचारे पर आधारित समाज के दृष्टिकोण को बनाए रख सकता है।