• प्रश्न :

    प्रश्न: "पर्यावरणीय दबाव समूहों को अक्सर भागीदारी लोकतंत्र के उत्प्रेरक के रूप में देखा जाता है।" भारत में विकास की आवश्यकताओं और पारिस्थितिकीय स्थिरता के बीच सामंजस्य स्थापित करने में वे कितनी हद तक सफल रहे हैं? (150 शब्द)

    23 Sep, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • पर्यावरणीय दबाव समूहों का परिचय दीजिये।
    • भागीदारी लोकतंत्र में उनकी भूमिका पर प्रकाश डालिये।
    • भारत में विकास की अनिवार्यताओं को पारिस्थितिक स्थिरता के साथ सामंजस्य स्थापित करने में उनकी सफलता और सीमाओं पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    पर्यावरणीय दबाव समूह नागरिकों द्वारा संचालित संगठन हैं जो पारिस्थितिकी संरक्षण, सतत् विकास और संरक्षण हेतु समर्थन करते हैं। ये समूह भागीदारी लोकतंत्र के उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं, जनमत को संगठित करते हैं, नीतियों को प्रभावित करते हैं और सरकारों तथा उद्योगों को जवाबदेह ठहराते हैं। जबकि इन्होंने जागरूकता बढ़ाने और नीतियों को आकार देने में सफलता प्राप्त की है, भारत में तीव्र आर्थिक विकास को पारिस्थितिकी स्थिरता के साथ सामंजस्य स्थापित करना एक जटिल चुनौती बनी हुई है।

    मुख्य भाग

    भागीदारी लोकतंत्र में भूमिका

    • नीतिगत प्रभाव: समूहों ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010, वन अधिकार अधिनियम 2006 और पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) में सुधार जैसी पर्यावरणीय नीतियों को आकार दिया है।
      • इनके सुझाव यह सुनिश्चित करते हैं कि नीतिगत ढाँचे में नागरिकों के दृष्टिकोण और पारिस्थितिकीय चिंताओं को शामिल किया जाए।
    • कानूनी हस्तक्षेप: समूहों ने जनहित याचिकाओं (PIL) का उपयोग किया है, जो पर्यावरणीय कानूनों को लागू कराने का एक प्रभावी साधन रही हैं।
      • एम.सी. मेहता गंगा प्रदूषण मामला और ताज ट्रेपेज़ियम मामला जैसे ऐतिहासिक निर्णयों ने औद्योगिक प्रदूषण को कम करने में सहायता की और सख्त निगरानी उपायों को अनिवार्य किया।
    • जनजागरूकता एवं समर्थन: वनों की कटाई (वनोन्मूलन), वन्यजीव शिकार, औद्योगिक प्रदूषण और वायु प्रदूषण के विरुद्ध अभियानों ने नागरिकों को संगठित किया और व्यापक पर्यावरणीय चेतना का निर्माण किया।
      • चिपको आंदोलन और अप्पिको आंदोलन जैसे आंदोलनों ने ज़मीनी स्तर पर सक्रियता को उजागर किया, जिसने लोकतांत्रिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया।

    विकास और स्थिरता के बीच संतुलन में सफलताएँ

    • पारिस्थितिक-संवेदनशील क्षेत्र निर्धारण: शहरी और औद्योगिक परियोजनाओं के आसपास बफर ज़ोन और पर्यावरणीय स्वीकृतियों के समर्थन ने पारिस्थितिक क्षति को कम किया है।
    • समुदाय-नेतृत्व संरक्षण: नियमगिरि पहाड़ियों के विरोध जैसे आंदोलनों ने जनजातीय भूमि अधिकारों की रक्षा की और खनन से होने वाले पर्यावरणीय ह्रास को रोका।
    • कॉर्पोरेट जवाबदेही: दबाव समूह यह सुनिश्चित करते हैं कि उद्योग पर्यावरणीय नियमों का पालन करें, जैसे नदी घाटी प्रबंधन, तटीय विनियमन क्षेत्र (Coastal Regulation Zone- CRZ) का अनुपालन और नवीकरणीय ऊर्जा को अपनाना।
    • नीति सुधार का समर्थन: इनके लगातार अभियानों ने जलवायु कार्ययोजनाओं को प्रभावित किया है और नवीकरणीय ऊर्जा पहलों को बढ़ावा दिया है, जिससे राष्ट्रीय विकास एजेंडे में स्थिरता को एकीकृत किया जा सका है।

    चुनौतियाँ एवं सीमाएँ

    • आर्थिक आवश्यकताओं से टकराव: बड़े बुनियादी ढाँचे की परियोजनाएँ, बाँध और राजमार्ग अक्सर संरक्षण लक्ष्यों से टकराते हैं।
    • राजनीतिक और नौकरशाही प्रतिरोध: विलंब, नियामकीय शिथिलता और सीमित प्रवर्तन वकालत प्रयासों के प्रभाव को अप्रभावी करते हैं।
    • सीमित पहुँच: कई समूह क्षेत्रीय स्तर पर काम करते हैं, जिससे हाशिये पर रहने वाले या ग्रामीण समुदायों का प्रतिनिधित्व अधूरा रह जाता है।
    • न्यायिक और क्रियान्वयन संबंधी कमियाँ: यहाँ तक कि ऐतिहासिक जनहित याचिकाएँ (PIL) भी कभी-कभी अप्रभावी प्रवर्तन का शिकार होती हैं, जिससे उनकी दीर्घकालिक प्रभावशीलता घट जाती है।

    आगे की राह

    • कानूनी ढाँचे को मज़बूत करना: पर्यावरणीय कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए और तेज़ न्यायिक निवारण सुनिश्चित किया जाए।
    • सतत् विकास मॉडलों को बढ़ावा देना: परियोजनाओं की स्वीकृति में प्रबल पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) और सामाजिक प्रभाव आकलन को शामिल किया जाए।
    • जनभागीदारी का विस्तार: नागरिक विज्ञान, हितधारक परामर्श और स्थानीय शासन में भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाए।
    • कॉर्पोरेट ज़िम्मेदारी: ESG मानकों को दृढ़ किया जाए और पर्यावरणीय रूप से सतत् औद्योगिक प्रथाओं के लिये प्रोत्साहन प्रदान किया जाए।

    निष्कर्ष:

    भारत में पर्यावरणीय दबाव समूहों ने भागीदारी लोकतंत्र और पारिस्थितिक जागरूकता को उल्लेखनीय रूप से बढ़ाया है। यद्यपि उन्होंने विकास और स्थिरता के बीच संतुलन स्थापित करने में आंशिक सफलता प्राप्त की है, फिर भी वर्तमान चुनौतियाँ समेकित शासन, सक्रिय जनभागीदारी और नवोन्मेषी नीतिगत हस्तक्षेप की माँग करती हैं। जैसा कि अमर्त्य सेन ने उचित ही कहा है- “सतत् विकास के लिये आर्थिक प्रगति और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच संतुलन आवश्यक है”, जो यह रेखांकित करता है कि विकास लक्ष्यों और पारिस्थितिक संरक्षण के बीच सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य है।