• प्रश्न :

    प्रश्न . “प्रशासनिक अधिकरणों भारत की न्याय-प्रणाली का एक अनिवार्य सहायक अंग हैं।” हाल के अधिकरण सुधारों के औचित्य एवं त्वरित न्याय पर उनके प्रभाव का परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)

    16 Sep, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • प्रशासनिक अधिकरणों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
    • हाल के अधिकरण सुधारों के औचित्य का परीक्षण कीजिये।
    • शीघ्र न्याय पर उनके प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    42वें संविधान संशोधन (1976) द्वारा अनुच्छेद 323A और 323B के अंतर्गत स्थापित अधिकरणों की स्थापना लोक सेवा, कराधान, श्रम, चुनाव एवं विनियमन जैसे क्षेत्रों में विशेषीकृत तथा त्वरित न्याय प्रदान करने के लिये की गई थी। प्रशासनिक अधिकरण अधिनियम, 1985 ने उन्हें उच्च न्यायपालिका के सहायक के रूप में कार्य करने हेतु अर्द्ध-न्यायिक निकायों के रूप में संचालित किया, जिससे नियमित न्यायालयों पर भार कम हुआ।

    मुख्य भाग:

    हालिया अधिकरण सुधारों का औचित्य

    • सुव्यवस्थीकरण और युक्तिकरण: अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 ने फिल्म प्रमाणन अपीलीय अधिकरण जैसे कई अपीलीय अधिकरणों का विघटन कर दिया तथा उनके अपीलीय कार्यों को उच्च न्यायालयों और वाणिज्यिक न्यायालयों जैसे मौजूदा न्यायिक मंचों को हस्तांतरित कर दिया ताकि पुनरावृत्ति एवं अक्षमता को कम किया जा सके।
    • समान नियुक्तियाँ: नियुक्तियों में अनियमितता/मनमानी को कम करने के उद्देश्य से एक खोज-सह-चयन समिति का गठन किया गया।
    • स्वतंत्रता सुनिश्चित करना: न्यायिक स्वायत्तता की रक्षा के लिये निश्चित कार्यकाल और सेवा शर्तों पर सुरक्षा उपाय प्रदान किये गए।
    • वित्तीय विवेक: युक्तिकरण ने प्रशासनिक व्यय और अवसंरचना के दोहराव को कम किया।

    शीघ्र न्याय पर प्रभाव

    • सकारात्मक प्रभाव: राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) और केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण (CAT) जैसे विशिष्ट अधिकरणों ने अपने क्षेत्राधिकार में लंबित मामलों को बहुत कम कर दिया है।
    • चिंताएँ: कुछ अधिकरणों को समाप्त करने से मामले पहले से ही भारग्रस्त उच्च न्यायालयों में वापस स्थानांतरित हो गये हैं। उदाहरण के लिये, बौद्धिक संपदा अधिकारों से संबंधित विवाद अब सीधे उच्च न्यायालयों में जाते हैं, जिससे समाधान की प्रक्रिया धीमी हो सकती है।
    • न्यायिक निगरानी: एल. चंद्र कुमार बनाम भारत संघ (1997) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि दक्षता और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बनाए रखने के लिये अधिकरणों को न्यायिक समीक्षा के अधीन रहना चाहिये।

    आगे की राह

    • स्वायत्तता को मज़बूत करना: सर्वोच्च न्यायालय की सिफारिश के अनुसार, अधिकरणों की नियुक्ति, कार्यप्रणाली और प्रशासन की निगरानी के लिये एक राष्ट्रीय अधिकरण आयोग की स्थापना की जानी चाहिये।
    • पर्याप्त स्टाफ: रिक्तियों की शीघ्र भर्ती और स्वीकृत पदों में वृद्धि की जानी चाहिये।
    • डिजिटल एकीकरण: तीव्र निपटान के लिये ई-फाइलिंग और वर्चुअल सुनवाई का उपयोग किया जाना चाहिये।
    • क्षमता निर्माण: अधिकरण के सदस्यों और कर्मचारियों के लिये निरंतर प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिये।
    • सुगम्यता: यात्रा और मुकदमेबाज़ी की लागत कम करने के लिये क्षेत्रीय पीठों की स्थापना की जानी चाहिये।

    निष्कर्ष:

    प्रशासनिक अधिकरण न्याय वितरण प्रणाली के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन सुधारों से वास्तविक स्वायत्तता, पर्याप्त स्टाफ और डिजिटल एकीकरण सुनिश्चित होना चाहिये। कार्यपालिका के प्रभुत्व को रोकते हुए NGT जैसे सफल मॉडलों को सुदृढ़ करने से विशिष्टता और त्वरित न्याय के दोहरे लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।