प्रश्न. “हिमालयी क्षेत्र भारत के लिये एक साथ ‘जलस्तंभ’ और ‘आपदा का केंद्र’ दोनों है।” ग्लेशियरों के विगलन और जलविद्युत क्षमता के विस्तार के आलोक में इसका समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- हिमालय के संदर्भ में संक्षिप्त जानकारी के साथ उत्तर दीजिये।
- ‘जलस्तंभ’: उपमहाद्वीप की जीवन रेखा’ के रूप में हिमालय की भूमिका पर चर्चा कीजिये।
- हिमालय में विकास बनाम आपदा का विश्लेषण कीजिये।
- विकास और संवहनीयता में संतुलन के उपायों को प्रस्तावित कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
हिमालय, जिसे प्रायः ‘तृतीय ध्रुव’ कहा जाता है, आर्कटिक और अंटार्कटिक से परे हिम का सबसे विशाल भंडार है। यह गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी प्रमुख नदियों का स्रोत है, इसलिये इसे ‘भारत का जलस्तंभ’ कहा जाता है। साथ ही, यह क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील, भू-गर्भीय रूप से नवोदित और भूकंपीय रूप से सक्रिय है, जो इसे आपदा का केंद्र बनाता है।
मुख्य भाग:
भारत के जलस्तंभ के रूप में हिमालय:
- ग्लेशियरों का विगलन और नदियाँ: हिमालय स्थायी नदी प्रणालियों का पोषण करता है, जो भारत में 60 करोड़ से अधिक लोगों के लिये खाद्य, जल और ऊर्जा सुरक्षा के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
- जलविद्युत क्षमता: सरकारी आँकड़े बताते हैं कि हिमालय में 115,550 मेगावाट विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने की क्षमता है। यह इस क्षेत्र को भारत की नवीकरणीय ऊर्जा महत्त्वाकांक्षाओं का आधार बनाता है।
- कृषि पर निर्भरता: हिमालय से पोषित नदियाँ सिंधु-गंगा के मैदानों को उपजाऊ और जीवित रखती हैं, जो विश्व के सबसे उर्वर क्षेत्रों में से एक हैं।
आपदा का केंद्र हिमालय:
- हिमनद-विगलन: मानवजनित गतिविधियों के कारण ग्लेशियरों के द्रव्यमान में उल्लेखनीय गिरावट आई है, जिससे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) का खतरा बढ़ गया है।
- भूकंपीय संवेदनशीलता: हिमालय भूकंपीय क्षेत्र IV और V में स्थित है, जो भूकंप और भूस्खलन के लिये प्रवण है, जिसके कारण हिमालयी क्षेत्रों में आपदाओं की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
- जलविद्युत जोखिम: उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे परियोजनाओं से ढलान अस्थिरता, निर्वनीकरण और फ्लैश फ्लड की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जैसा कि चमोली आपदा (वर्ष 2021) में देखा गया।
- अनियोजित विकास और अवसंरचना: हिमालयी क्षेत्रों का तीव्र और अव्यवस्थित विकास आपदाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता में उल्लेखनीय वृद्धि का कारण बना है, उदाहरण के लिये जोशीमठ भूस्खलन।
विकास और स्थायित्व में संतुलन
- अवसंरचना पर भार कम करना: ‘हाइड्रोपावर-लाइट’ मॉडल अपनाना चाहिये, जिसमें छोटे, रन-ऑफ-द-रिवर परियोजनाओं के माध्यम से पहले से संवेदनशील भू-आकृतियों पर दबाव कम किया जा सके।
- संवेदनशील विकास दृष्टिकोण: लगातार विकास के बजाय हिमालयी भू-आकृतियों में अवसंरचनात्मक विकास के लिये संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
- चेतावनी तंत्रों को सुदृढ़ करना: ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) और भूस्खलन के लिये पूर्व चेतावनी प्रणालियों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- भू-आकृतियों का मानचित्रण और पूर्वानुमान: नए अवसंरचना निर्माण से पहले वहन क्षमता अध्ययन लागू करना आवश्यक है।
- समन्वय को बढ़ावा: अंतर्राष्ट्रीय एकीकृत पर्वतीय विकास केंद्र (ICIMOD) जैसी पहलों के तहत क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
जैसा कि NITI आयोग की हिमालयी संवहनीयता पर रिपोर्ट चेतावनी देती है, अनियंत्रित दोहन पारिस्थितिकी और आजीविका दोनों को खतरे में डाल सकता है। भविष्य-उन्मुख नीति में हिमालय को केवल एक संसाधन आधार के रूप में नहीं, बल्कि एक सुभेद्य पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिये, जिसके लिये समुत्थानशील, समावेशी और पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील विकास की आवश्यकता है।