उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भू-आकृतियों को परिभाषित करते हुए उत्तर का परिचय दीजिये।
- विभिन्न अंतर्जनित (Endogenic) और बहिर्जनित (Exogenic) प्रक्रियाओं को उदाहरणों सहित लिखिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भू-आकृतियाँ पृथ्वी की सतह पर पाई जाने वाली वे प्राकृतिक विशेषताएँ हैं, जो अंतर्जनित बलों (जैसे- विवर्तनिक गतियाँ और ज्वालामुखी) तथा बहिर्जनित बलों (जैसे- अपक्षय, अपरदन और निक्षेपण) की परस्पर क्रिया द्वारा आकार लेती हैं। ये स्थिर इकाइयाँ नहीं, बल्कि गत्यात्मक विशेषताएँ हैं, जो भौमिकी और जलवायवी प्रक्रियाओं को निरंतर दर्ज करती हैं।
मुख्य भाग:
- अंतर्जनित (विवर्तनिक और संरचनात्मक) प्रक्रियाएँ:
- महाद्वीप संरचना और प्लेट टकराव (हिमालय): भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट से निरंतर टकराव हिमालय को भूकंपीय रूप से सक्रिय बनाता है, भूकंप, भूस्खलन और ढाल प्रवणता के लिये सुभेद्य बनाता है।
- यह दर्शाता है कि पर्वत स्थिर नहीं हैं, बल्कि निरंतर बढ़ते और आकार बदलते रहते हैं, जिस कारण हिमालय एक ‘जीवित पर्वतीय तंत्र’ है।
- प्राचीन संरचनात्मक अवशेष (अरावली पहाड़ियाँ): विश्व के सबसे प्राचीन वलित पर्वतों में से एक होने के बावजूद अरावली क्षेत्रीय जल निकासी प्रणालियों, मृदा संरचना और स्थानीय सूक्ष्म जलवायु को प्रभावित करता रहा है। इसका अपक्षयित स्वरूप प्राचीन भू-शक्तियों की आज भी झलक देता है।
- अरावली की अपक्षयित पर्वत-शृंखलाएँ स्पष्ट संकेत देती हैं कि प्राचीन विवर्तनिक बल आज भी वर्तमान भूदृश्यों की संरचना और स्वरूप पर अपना प्रभाव बनाए हुए है।
- ज्वालामुखीय भू-आकृतियाँ (दक्कन ट्रैप): क्रिटेशियस काल के दौरान विशाल बेसाल्टिक लावा प्रवाह द्वारा निर्मित दक्कन पठार स्तरित बेसाल्ट संरचनाओं को संरक्षित करता है।
- प्राचीन ज्वालामुखीय गतिविधि का प्रमाण है और आज भी मृदा की उर्वरता, भू-जल संचयन तथा कृषि पैटर्न को प्रभावित करता रहता है।
- बहिर्जनित (सतही) प्रक्रियाएँ:
- नदी प्रक्रियाएँ (नदियाँ और बाढ़ के मैदान): अपवाह तंत्र (प्रवाही जल) अपरदन, परिवहन और निक्षेपण के माध्यम से भू-आकृतियों को आकार देता है।
- सिंधु-गंगा के मैदान नदियों की निरंतर निक्षेपण प्रक्रिया और बाढ़ से नवीनीकृत होते रहते हैं, जबकि सुंदरबन का डेल्टा नदियों एवं ज्वारीय बलों की संयुक्त क्रिया का उदाहरण है।
- अपरदनकारी भू-आकृतियाँ (उत्खात स्थलाकृति और खड्ड): नदियों द्वारा तीव्र मृदा अपरदन से खड्ड और अवनालिकाएँ बनती हैं, जैसे: चंबल के खड्ड।
- ये इस बात के उल्लेखनीय उदाहरण हैं कि नदीय अपरदन अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में भू-आकृतियों को किस प्रकार परिवर्तित करता है।
- वातज स्थलाकृतिक प्रक्रियाएँ (मरुस्थलीय पवन क्रिया): थार मरुस्थल में, पवनें बरखान और अधोमुखी रेतीले टिब्बों का निर्माण करती हैं, जो लगातार आकार और स्थिति में बदलते रहते हैं, जिससे मरुस्थलीय भू-आकृतियाँ अत्यधिक गतिशील हो जाती हैं।
- तटीय प्रक्रियाएँ (तरंगें और ज्वार): ओडिशा और कोंकण तट के किनारे की तटरेखाएँ तरंग-घर्षित वाले चबूतरे, समुद्र तटीय अपरदन और अभिवृद्धि प्रदर्शित करती हैं, जो भूमि के साथ समुद्री बलों की निरंतर अंतःक्रिया को दर्शाती हैं।
- हिमनद प्रक्रियाएँ (हिमालय में हिम गत्यात्मकता): गंगोत्री और सियाचिन जैसे पिघलते ग्लेशियर सक्रिय रूप से घाटियों को नया आकार देते हैं, हिमोढ़ बनाते हैं और हिमनदीय टिल निक्षेपित करते हैं।
- ये विशेषताएँ जलवायु परिवर्तन और चल रहे भू-आकृतिक परिवर्तन के जीवंत प्रमाण प्रदान करती हैं।
निष्कर्ष:
भू-आकृतियाँ स्थिर अवशेष नहीं हैं, बल्कि पृथ्वी की निरंतर और परिवर्तनशील प्रक्रियाओं के जीवंत अभिलेख हैं। भारत की विविध भौगोलिक संरचनाएँ पर्वत, मैदान, पठार, मरुस्थल और तट स्पष्ट करते हैं कि भूमि-आकृतियाँ समय के साथ बदलती रहती हैं और पृथ्वी की प्रकृति निरंतर विकासशील है।