प्रश्न. नैतिकता का चाप चाहे कितना ही लंबा क्यों न हो, उसका अंतिम झुकाव सदैव न्याय की ओर होता है।
प्रश्न. बुराई की विजय के लिये केवल इतना ही पर्याप्त है कि अच्छे लोग कुछ न करें।
उत्तर :
1. नैतिकता का चाप चाहे कितना ही लंबा क्यों न हो, उसका अंतिम झुकाव सदैव न्याय की ओर होता है।
परिचय:
वर्ष 1965 में, संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन के चरम के दौरान, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने मोंटगोमरी में एक जनसमूह को संबोधित किया। सदियों की दासता, नस्ली भेदभाव और अपमान सह चुके लोग थके हुए तो थे, पर आशावान भी थे। किंग ने उन्हें अपने शाश्वत शब्दों में स्मरण कराया कि: “नैतिक ब्रह्मांड का चाप लंबा है, लेकिन यह न्याय की ओर झुकता है।” उनका संदेश तात्कालिक विजय का नहीं, बल्कि धैर्य और विश्वास का था कि इतिहास भले धीमी गति से आगे बढ़े, परंतु वह अंततः सत्य और न्याय की दिशा में ही अग्रसर होता है।
यह गहन अंतर्दृष्टि किसी एक राष्ट्र के संघर्ष तक सीमित नहीं है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के उन्मूलन तक और यहाँ तक कि जलवायु न्याय और लैंगिक न्याय की निरंतर खोज तक, इतिहास हमें स्मरण कराता है कि जहाँ अन्याय प्रायः जड़ जमाए हुए प्रतीत होता है, वहीं मानवता का विवेक एवं दृढ़ता चाप को न्याय की ओर लगातार मोड़ती रहती है।
मुख्य भाग:
दार्शनिक और नैतिक आधार
- नैतिक ब्रह्मांड → मानवता की सामूहिक अंतरात्मा को संदर्भित करता है।
- न्याय → प्लेटो की 'रिपब्लिक' में न्याय को समाज की आदर्श व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया गया है, अरस्तू ने न्याय को सर्वोच्च गुण माना है और रॉल्स ने न्याय को निष्पक्षता के रूप में परिभाषित किया है।
- नैतिक आयाम: सद्गुण नैतिकता (प्रमुख सद्गुण के रूप में न्याय), उपयोगितावाद (न्याय परम आनंद को बढ़ावा देता है), गांधीवादी नैतिकता (न्याय के मार्ग के रूप में अहिंसा)।
न्याय की ओर झुकने वाले चाप के ऐतिहासिक उदाहरण
- दासता उन्मूलन → हालाँकि यह सदियों तक कायम रहा, फिर भी विश्व इसके उन्मूलन की ओर अग्रसर हुआ।
- उपनिवेशवाद का उन्मूलन → भारत की स्वतंत्रता, अफ्रीका की मुक्ति, ये सभी दर्शाते हैं कि न्याय में विलंब तो हुआ लेकिन अंततः उसे प्राप्त किया गया।
- नागरिक अधिकार आंदोलन (अमेरिका) → अमेरिका के सिविल राइट्स मूवमेंट में मार्टिन लूथर किंग जूनियर स्वयं इस बात के उदाहरण बने कि इतिहास का झुकाव न्याय की ओर हुआ।
- दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का पतन → इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका में अपार्थेड की समाप्ति ने यह दिखाया कि नेल्सन मंडेला के नेतृत्व ने नैतिक जगत को न्याय की दिशा में संरेखित करने की क्षमता प्रदर्शित की।
भारतीय संदर्भ
- स्वतंत्रता संग्राम → वर्ष 1857 से 1947 तक, भारतवासियों द्वारा नैतिक सहिष्णुता का प्रदर्शन। जिसमें गांधी के सत्याग्रह ने धैर्य और नैतिक दृढ़ता का परिचय दिया।
- सामाजिक न्याय → अस्पृश्यता उन्मूलन (अनुच्छेद 17), अनुसूचित जाति/जनजाति के लिये आरक्षण, महिला सशक्तीकरण।
- न्यायिक हस्तक्षेप → केशवानंद भारती (मूल संरचना), धारा 377 का गैर-अपराधीकरण (LGBTQ+ अधिकार), निजता का अधिकार।
- ज़मीनी स्तर पर न्याय आंदोलन → चिपको, नर्मदा बचाओ आंदोलन, RTI आंदोलन।
समकालीन वैश्विक प्रासंगिकता
- जलवायु न्याय → जलवायु वार्ता में समानता की मांग करने वाला ग्लोबल साउथ, हालाँकि धीमी गति से, किंतु पर्यावरणीय न्याय की ओर एक झुकाव दर्शाता है।
- लैंगिक न्याय → #MeToo आंदोलन, महिलाओं का बढ़ता प्रतिनिधित्व।
- डिजिटल न्याय → गोपनीयता, AI एथिक्स, डेटा प्रोटेक्शन पर बहस।
- अंतर्राष्ट्रीय कानून → ICC, संयुक्त राष्ट्र घोषणाएँ, हालाँकि धीमी गति से, किंतु वैश्विक स्तर पर मानवाधिकार न्याय की आशा जगाती हैं।
प्रतिवाद (आर्क अर्थात् झुकाव सदैव सहज नहीं होता)
- न्याय में विलंब → न्याय में विलंब, न्याय से वंचित करने के समान है।
- अधिनायकवाद का उदय → कुछ देशों में स्वतंत्रता का दमन।
- आर्थिक असमानता → नैतिक प्रगति के बावजूद बढ़ता विभाजन।
- जलवायु परिवर्तन अन्याय → विकसित राष्ट्र शोषण जारी रखते हैं।
संस्थाओं और मानव अधिकरणों की भूमिका
- लोकतांत्रिक संस्थाएँ → विधायिकाएँ, न्यायपालिका, मीडिया न्याय को कायम रखती हैं।
- नागरिक समाज और आंदोलन → सरकारों पर नीतियों को न्याय के अनुरूप बनाने का दबाव।
- वैश्विक ढाँचे → संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन सुधार, पेरिस समझौता।
- व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी → व्यक्तिगत आचरण और नेतृत्व में नैतिकता।
आगे की राह
- न्याय के लिये धैर्य, दृढ़ता और सामूहिक कार्रवाई की आवश्यकता होती है।
- विधि के शासन, लोकतंत्र और मानवाधिकार संस्थाओं को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
- न्याय के लिये तकनीकी का उपयोग → ई-न्यायालय, डिजिटल समावेशन।
- वैश्विक एकजुटता को बढ़ावा देना → साउथ-साउथ को-ऑपरेशन, समान विकास।
- नैतिक नेतृत्व की ऐसी संस्कृति का निर्माण किया जाना चाहिये जहाँ न्याय एक जीवंत मूल्य बन जाए।
निष्कर्ष:
न्याय केवल अतीत का वायदा नहीं है बल्कि मानवता के भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाला मानक भी है। नैतिक ब्रह्मांड की परिधि भले ही लंबी हो, किंतु उसका झुकाव हमारे सामूहिक संकल्प पर निर्भर करता है कि हम सत्य, करुणा और समानता को कितना पोषित करते हैं। भारत जैसे राष्ट्र के लिये, जिसकी सभ्यतागत आत्मा 'सत्यमेव जयते' में प्रकट होती है तथा जिसका संविधान सभी के लिये न्याय की संवैधानिक प्रतिज्ञा करता है, के समक्ष वास्तविक चुनौती यह है कि इस नैतिक दृष्टिकोण को शासन, समाज एवं वैश्विक नेतृत्व में ठोस वास्तविकता में रूपांतरित किया जाये।
यदि मानवता अपनी वैज्ञानिक प्रगति को नैतिक उत्तरदायित्व के साथ, अपने आर्थिक विकास को सामाजिक समता के साथ तथा अपनी राजनीतिक शक्ति को सार्वभौमिक सम्मान के साथ संरेखित कर सके, तो यह चाप न केवल न्याय की ओर झुकेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिये एक न्यायपूर्ण, समावेशी एवं धारणीय भविष्य को भी प्रकाशित करेगा।
2. बुराई की विजय के लिये केवल इतना ही पर्याप्त है कि अच्छे लोग कुछ न करें।
परिचय :
1930 के दशक में जर्मनी में जब हिटलर सत्ता में आया, तो अधिकांश आम नागरिकों - शिक्षकों, कर्मचारियों, वकीलों, यहाँ तक कि धर्मगुरु भी, यह सोचकर चुप रहे कि राजनीति उनका विषय नहीं है। उनकी निष्क्रियता ने तानाशाही को पनपने का अवसर दिया और इतिहास के सबसे काले अध्यायों में से एक को जन्म दिया। एडमंड बर्क के शाश्वत शब्द —“बुराई की विजय के लिये इतना ही पर्याप्त है कि अच्छे लोग कुछ न करें” इस सत्य को तीक्ष्ण स्पष्टता के साथ व्यक्त करते हैं। बुराई अपनी शक्ति के कारण नहीं, बल्कि तब फलती-फूलती है, जब सही बात जानने वाले लोग निष्क्रियता, भय या उपेक्षा के कारण असमर्थ बन जाते हैं।
यह विचार समय से परे है: चाहे वह औपनिवेशिक भारत हो, रंगभेदग्रस्त दक्षिण अफ्रीका हो या आज के दौर में भ्रष्टाचार, अन्याय एवं जलवायु संकट जैसी चुनौतियाँ हों, सभी बुराईयों के लिये सबक एक ही है कि किसी भी गलत परिस्थिति में चुप रहना स्वयं बुराई के पक्ष में सहभागी भूमिका निभाने के सामान है।
मुख्य भाग:
दार्शनिक और नैतिक आधार
- नैतिक दर्शन:
- अरस्तू: सद्गुण के लिये निष्क्रियता की नहीं, बल्कि कर्म की आवश्यकता होती है।
- कांट: नैतिक नियमों के अनुसार कार्य करना कर्त्तव्य है।
- गांधी: बुराई के साथ असहयोग करना उतना ही कर्त्तव्य है जितना कि अच्छाई के साथ सहयोग करना।
ऐतिहासिक उदाहरण
- हिटलर और नाज़ीवाद का उदय: वैश्विक समुदाय की निष्क्रियता ने अत्याचारों को बढ़ने दिया।
- दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद: यह तब तक जारी रहा जब तक कि वैश्विक और स्थानीय प्रतिरोध तीव्र नहीं हो गया, क्योंकि बहुसंख्यक चुप रहे।
- अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन: चुप्पी ने नस्लवाद को जारी रहने दिया, लेकिन विरोध प्रदर्शनों, मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व और कानूनी जीत ने इस चुप्पी को तोड़ कर बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाई।
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम: गांधी ने उपनिवेशी आबादी की चुप्पी तोड़ते हुए आम नागरिकों को संगठित किया।
भारतीय संदर्भ
- राजा राम मोहन राय और अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों ने सती प्रथा, अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव जैसी जड़ जमाई बुराइयों के खिलाफ काम किया।
- संवैधानिक लोकाचार: राज्य के नीति निदेशक तत्त्व, मौलिक कर्त्तव्य— नागरिकों से न्याय के लिये सक्रिय रूप से सहयोग करने का आग्रह।
- आधुनिक भारत में जन निष्क्रियता: जब नागरिक निष्क्रिय रहते हैं तो ही भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक हिंसा और पर्यावरण क्षरण पनपते हैं।
- उदाहरण: निर्भया मामले में विरोध प्रदर्शन (2012)— सामूहिक कार्रवाई बनाम चुप्पी।
समकालीन वैश्विक प्रासंगिकता
- जलवायु परिवर्तन: नेताओं की निष्क्रियता और जनता की लापरवाही पारिस्थितिक विनाश को बढ़ावा देती है।
- जब ज़िम्मेदार आवाज़ें चुप रहती हैं, तो डिजिटल गलत सूचना एवं हेट स्पीच का प्रसार बढ़ता है।
- युद्ध और मानवीय संकट: उदाहरण के लिये, रवांडा नरसंहार के दौरान वैश्विक चुप्पी, वर्तमान संघर्ष।
- लैंगिक असमानता और उत्पीड़न: चुप्पी भेदभाव को बढ़ावा देती है।
प्रतिवाद और सूक्ष्म अंतर्दृष्टि
- कभी-कभी चुप्पी रणनीतिक होती है: कूटनीति, वार्ता या गांधीवादी अहिंसक प्रतिरोध।
- सभी बुराइयों का समाधान केवल एक व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता, इसके लिये व्यवस्थित कार्रवाई की आवश्यकता होती है।
- जिम्मेदार मौन वह है जो आत्मचिंतन, विवेकपूर्ण निर्णय या विवाद को बढ़ने से रोकने के लिये अपनाया जाता है, जबकि सहभागी मौन वह है जो अन्याय और बुराई को अनदेखा कर उनकी निरंतरता को बढ़ावा देता है। प्रशासनिक तंत्र और लोकसेवा में यह विवेक एवं अंतर स्पष्ट करना आवश्यक है।
संस्थाओं और व्यक्तियों की भूमिका
- संस्थाएँ: न्यायपालिका, मीडिया और नागरिक समाज को बुराई के सामान्यीकरण को रोकना चाहिये।
- नागरिक: सतर्कता, सक्रियता, मुखबिरी, ज़िम्मेदारी से मतदान।
- नेता: नैतिक नेतृत्व, सत्ता के सामने सत्य बोलने का नैतिक साहस।
आगे की राह
- शिक्षा और नागरिक जीवन में नैतिक साहस का विकास।
- जवाबदेही तंत्र को सुदृढ़ करना।
- सहभागी लोकतंत्र और सक्रिय नागरिकता को प्रोत्साहित करना।
- अच्छे व्यक्तियों को सशक्त बनाने के लिये मुखबिरों की सुरक्षा, सूचना का अधिकार (RTI) और पारदर्शिता को बढ़ावा देना।
निष्कर्ष:
बुराई की जीत अपनी शक्ति से नहीं, बल्कि सज्जनों की चुप्पी, भय और निष्क्रियता से होती है। हन्ना अरेन्ट के शब्दों में, “अधिकतर बुराई वे लोग करते हैं जो कभी यह तय नहीं करते कि वे अच्छे होंगे या बुरे।” न्याय, स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा का भविष्य सक्रिय नागरिकता एवं नैतिक साहस पर आधारित है। जब सज्जन पुरुष और स्त्रियाँ आगे बढ़कर कर्त्तव्य निभाते हैं, तभी इतिहास की धारा न्याय एवं आशा की ओर निर्णायक रूप से मोड़ लेती है।