प्रश्न. “न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक उत्तरदायित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।” भारत में इस संतुलन को बनाए रखने में आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक उत्तरदायित्व की अवधारणा का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक उत्तरदायित्व की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये।
- न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बनाने में आने वाली चुनौतियों की विवेचना कीजिये।
- आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
न्यायिक स्वतंत्रता यह सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीश राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक दबावों से मुक्त होकर मामलों का निर्णय करें, जबकि न्यायिक उत्तरदायित्व यह सुनिश्चित करती है कि वे संविधान और जनता के विश्वास के प्रति जवाबदेह रहें। दोनों ही विधि के शासन के लिये अपरिहार्य हैं। भारत की चुनौती यह है कि न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए व्यवस्था में अपारदर्शिता न बढ़े और जवाबदेही लागू करते समय राजनीतिक हस्तक्षेप न होने पाये।
मुख्य भाग:
न्यायिक स्वतंत्रता की आवश्यकता
- संवैधानिक सुरक्षा उपाय: अनुच्छेद 50, 124-147 और 214-231 न्यायपालिका को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाते हैं।
- ऐतिहासिक निर्णय:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामला → न्यायिक समीक्षा और स्वतंत्रता को मूल संरचना का हिस्सा बनाया गया।
- एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981) मामला → नियुक्तियों और स्थानांतरणों में स्वतंत्रता पर बल दिया गया।
- जन विश्वास: न्यायिक स्वतंत्रता मूल अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करती है, उदाहरण के लिये, मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले ने अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के दायरे का विस्तार किया।
न्यायिक उत्तरदायित्व की आवश्यकता
- ऐसी व्यवस्था में मनमानी को रोकता है जहाँ न्यायाधीशों को व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हैं।
- जनहित याचिका का दुरुपयोग और न्यायिक अतिक्रमण आत्म-संयम की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।
- कदाचार के उदाहरण: न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1990 के दशक में महाभियोग का प्रयास) ने न्यायाधीशों को अनुशासित करने में कठिनाई दिखाई।
- जन अपेक्षाएँ: ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के एक सर्वेक्षण के अनुसार, जब उत्तरदायित्व कमज़ोर दिखाई देती है, तो न्यायपालिका में विश्वास कम हो जाता है।
स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन की चुनौतियाँ
- अपारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली: सर्वोच्च न्यायालय के द्वितीय न्यायाधीश मामले (1993) और तृतीय न्यायाधीश मामले (1998) ने न्यायाधीशों के नेतृत्व वाली नियुक्ति प्रक्रिया बनाई जिससे स्वतंत्रता सुनिश्चित हुई, लेकिन पारदर्शिता की कमी के लिये इसकी आलोचना की गई।
- राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का फैसला (2015): सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक स्वतंत्रता के उल्लंघन का हवाला देते हुए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द कर दिया, लेकिन इससे उत्तरदायित्व को लेकर चिंताएँ फिर से उभर आईं।
- महाभियोग तंत्र: बोझिल और शायद ही कभी प्रभावी।
- न्यायिक अतिक्रमण: न्यायिक अतिक्रमण तब देखने को मिलता है जब न्यायपालिका नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप करती है। इससे उत्तरदायित्व को लेकर प्रश्न उठते हैं तथा शक्तियों के पृथक्करण की संवैधानिक मर्यादा धुंधली हो जाती है। उदाहरणस्वरूप, वर्ष 2017 में राजमार्गों पर शराब बिक्री पर प्रतिबंध का निर्णय।
- सेवानिवृत्ति के बाद नियुक्तियाँ: सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद न्यायाधीशों द्वारा आयोगों या राजनीति में पद ग्रहण करने से निष्पक्षता पर संदेह होता है।
- लंबित मामले: 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित होने (वर्ष 2024 के आँकड़े, NJDG) के साथ, समय पर न्याय के माध्यम से नागरिकों के प्रति उत्तरदायित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया है।
- बाह्य दबाव: मीडिया ट्रायल और राजनीतिक टिप्पणियाँ स्वतंत्रता को कमज़ोर कर सकती हैं।
आगे की राह
- पारदर्शी नियुक्ति प्रणाली: स्वतंत्रता को कम किये बिना व्यापक परामर्श और रिकॉर्ड-आधारित तर्क के साथ कॉलेजियम में सुधार किया जाना चाहिये।
- न्यायिक मानक और उत्तरदायित्व विधेयक: शिकायत निवारण और संपत्ति घोषणा के प्रावधानों पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।
- आंतरिक नैतिकता तंत्र: आवधिक समीक्षा के साथ आंतरिक अनुशासनात्मक प्रक्रियाओं को सुदृढ़ किया जाना चाहिये।
- डिजिटलीकरण और केस प्रबंधन: उत्तरदायित्व बढ़ाने के लिये न्याय प्रदान करने में तेज़ी (ई-कोर्ट, लंबित मामलों पर नज़र रखने के लिये NJDG) लाया जाना चाहिये।
- कूलिंग-ऑफ अवधि: निष्पक्षता बनाए रखने के लिये सेवानिवृत्ति के बाद के पदों के लिये अधिदेश।
- शक्तियों का संतुलन: विधायिका और कार्यपालिका को न्यायिक स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिये जबकि न्यायपालिका को आत्म-संयम का अभ्यास करना चाहिये।
निष्कर्ष:
जैसा कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था, “सच्ची न्यायिक स्वतंत्रता गलत कामों से बचाव के लिये ढाल नहीं है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों की पूर्ति सुनिश्चित करने का एक साधन है।”
संक्षेप में, एक न्यायपालिका जो स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन बनाती है, न केवल संविधान की रक्षा करती है, बल्कि भारत के लोकतंत्र की नैतिक नींव को भी मज़बूत करती है।