• प्रश्न :

    प्रश्न.  “भारत का जल-संकट, कमी से अधिक कुप्रबंधन का परिणाम है।” असंवहनीय कृषि पद्धतियों, असमान शहरी उपभोग और बार-बार होने वाले अंतर-राज्यीय नदी विवादों के संदर्भ में इस कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    18 Aug, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 भूगोल

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत के जल संकट की सीमा और प्रकृति का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • स्पष्ट कीजिये कि यह संकट कृषि क्षेत्र में जल का कुप्रबंधन, शहरी क्षेत्रों में असमान उपभोग तथा बार-बार होने वाले अंतर-राज्यीय विवादों के कारण किस प्रकार और गंभीर हो जाता है।
    • इस समस्या के समाधान के उपाय प्रस्तावित कीजिये।
    • आगे की राह बताते हुए उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारत विश्व की 18% आबादी का भरण-पोषण करता है, जबकि उसके पास वैश्विक ताज़े जल संसाधनों का केवल 4% ही उपलब्ध है। NITI आयोग के समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (2019) जैसी रिपोर्टों से पता चला है कि भारत में लगभग 60 करोड़ लोग उच्च से लेकर अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं। जहाँ एक ओर भौगोलिक कमी मौजूद है, वहीं दूसरी ओर कृषि क्षेत्र में जल का कुप्रबंधन, असमान शहरी उपभोग तथा बार-बार होने वाले अंतर-राज्यीय विवादों के कारण यह संकट और भी गंभीर होता जा रहा है, जिससे शासन की विफलताएँ चिंता का मुख्य विषय बन गई हैं।

    मुख्य भाग:

    भारत के जल संकट की प्रकृति

    • जल-उपलब्धता की वर्तमान स्थिति:
      • भारत में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक जल उपलब्धता वर्ष 2001 में 1,816 घन मीटर से घटकर वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 1,545 घन मीटर रह गई है।
      • केंद्रीय जल आयोग के अनुमानों के अनुसार, वर्ष 2025 तक यह और घटकर 1,434 घन मीटर तथा वर्ष 2050 तक 1,219 घन मीटर रह जाएगी।
    • भूजल क्षरण: भारत प्रतिवर्ष 250 घन किमी से अधिक जल का दोहन करता है, जो विश्व में सबसे अधिक है और अनुमान है कि वर्ष 2030 तक 70% जलभृत संकटग्रस्त हो जाएँगे।
    • मानसून पर निर्भरता: 80% से अधिक वर्षा 4 महीनों में होती है, जिससे मौसमी तनाव उत्पन्न होता है।
    • जल गुणवत्ता संबंधी चिंताएँ: जल संकट पर NITI आयोग की रिपोर्ट (2019) के अनुसार, भारत का लगभग 70% जल-संसाधन दूषित है।
    • क्षेत्रीय असमानता: उत्तर-पूर्व में जल की प्रचुरता बनाम राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में जल की कमी।

    असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ

    • अकुशल सिंचाई पद्धति: केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, कृषि भारत के लगभग 78% जल संसाधनों का उपभोग करती है, प्रायः अकुशल रूप से।
    • जल-प्रधान फसलें: जल-प्रधान फसलों की ओर रुझान और पुरानी सिंचाई पद्धतियाँ जल संकट में योगदान करती हैं।
      • सूखाग्रस्त महाराष्ट्र में गन्ना की फसल और पंजाब में धान की फसल असमान रूप से जल की खपत करती हैं।
    • अत्यधिक निष्कर्षण: मुफ्त/सब्सिडी वाली बिजली और सुनिश्चित MSP खरीद पंजाब एवं हरियाणा में भूजल दोहन को बढ़ावा देती है।

    असमान शहरी उपभोग

    • जनसंख्या वृद्धि और शहरीकरण: बढ़ती जनसंख्या और तेज़ी से बढ़ते शहरीकरण ने पेयजल, स्वच्छता और औद्योगिक उपयोग के लिये भूजल की मांग को बढ़ा दिया है।
    • वर्ष 2016 और 2023 के दौरान, भारत की जनसंख्या 1.29 अरब से बढ़कर 1.45 अरब हो गई है तथा शहरी प्रवास से शहरी जलभृतों पर दबाव पड़ा है।
    • वितरण हानियाँ: शहरी आपूर्ति प्रणालियों में रिसाव के कारण लगभग 35-40% जल नष्ट हो जाता है।
    • असमानता: दिल्ली या बेंगलुरु की गेटेड कॉलोनियों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 300-400 लीटर जल मिल सकता है, जबकि झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग 50 लीटर प्रतिदिन से भी कम जल पर गुज़ारा करते हैं।
    • अनियमित निष्कर्षण: उद्योग और घरेलू उपयोग के लिये बिना किसी निगरानी के भूजल का दोहन किया जाता है।
    • पुनर्चक्रण की उपेक्षा: केवल 30% अपशिष्ट जल का ही शोधन किया जाता है, जिससे इसकी विशाल क्षमता का दोहन नहीं हो पाता।

    आवर्ती अंतर-राज्यीय नदी विवाद

    • कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी विवाद दर्शाता है कि कैसे मौसमी प्रवाह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को जन्म देता है।
    • आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच कृष्णा-गोदावरी विवाद बेसिन-स्तरीय तनाव को उजागर करता है।
    • रावी-ब्यास विवाद (पंजाब-हरियाणा) लंबे समय से चले आ रहे गतिरोध को दर्शाता है।

    आगे की राह

    • कृषि: फसलों में विविधता लाने, न्यूनतम समर्थन मूल्य में सुधार करने, सूक्ष्म सिंचाई (ड्रिप, स्प्रिंकलर) को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
    • शहरी सुधार: सार्वभौमिक वर्षा जल संचयन, ग्रेवाटर का पुन: उपयोग, अपव्यय को रोकने के लिये जल का मूल्य निर्धारण किया जाना चाहिये।
    • नदी विवाद: नदी बेसिन प्राधिकरणों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये; सहकारी संघवाद और प्रौद्योगिकी-आधारित आवंटन अपनाया जाना चाहिये।
    • सामुदायिक पहल: पारंपरिक जल संचयन प्रणालियों (बावड़ियों, तालाबों) का पुनरुद्धार किया जाना चाहिये।
    • नीतिगत बदलाव: राष्ट्रीय जल नीति (2021 प्रारूप) को लागू किया जाना चाहिये जो एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM), माँग-पक्ष प्रबंधन एवं सहभागी सिंचाई पर ज़ोर देती है।
    • ‘एकल जल दृष्टिकोण’ का अंगीकरण: सभी जल स्रोतों—सतही जल, भूजल, वर्षा जल, उपचारित अपशिष्ट जल को सतत् उपयोग के लिये एक ही परस्पर जुड़े संसाधन के रूप में व्यवहार करना चाहिये।
    • नदी अंतर्योजन: क्षेत्रीय जल उपलब्धता को संतुलित करने, पारिस्थितिक सुरक्षा उपायों और समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिये चुनिंदा अंतर्योजन परियोजनाओं की खोज की जानी चाहिये।

    निष्कर्ष:

    भारत का जल संकट अभाव से कम और अकुशल प्रबंधन, असमान उपयोग एवं कमज़ोर शासन से अधिक प्रेरित है। इन चुनौतियों का समाधान करने के लिये कृषि, शहरी जल प्रणालियों और अंतर-राज्यीय नदी प्रबंधन में सुधारों की आवश्यकता है। SDG 6 (स्वच्छ जल और साफ-सफाई) के साथ नीतियों को संरेखित करना, सभी के लिये सतत् जल एवं स्वच्छता सुनिश्चित करना भारत के जल-प्रबंधन के भविष्य को सुरक्षित करने के लिये महत्त्वपूर्ण होगा।