उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- वर्ष 1850 से 1947 के दौरान भारत के जनजातीय और किसान आंदोलनों के संदर्भ में संक्षेप में बताते हुए उत्तर लेखन की शुरुआत कीजिये।
- प्रमुख घटनाक्रमों के साथ जनजातीय और किसान आंदोलनों के विकास को रेखांकित कीजिये।
- राष्ट्रवादी राजनीति को आकार देने में इन आंदोलनों की भूमिका पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- एक प्रासंगिक उद्धरण के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
वर्ष 1850 से 1947 के दौरान, भारत के जनजातीय और किसान समुदायों ने औपनिवेशिक प्रभुत्व के विरुद्ध निरंतर संघर्ष किया। उनका प्रतिरोध राजनीतिक स्वतंत्रता की माँग से आगे बढ़कर 'जल, जंगल, ज़मीन' के संरक्षण पर केंद्रित था, जो न केवल उनके अस्तित्व और आजीविका के लिये बल्कि उनकी सांस्कृतिक पहचान एवं सामाजिक एकता के लिये भी अभिन्न अंग थे।
मुख्य भाग:
जनजातीय और किसान आंदोलनों का विकास (1850-1947)
- प्रथम चरण: प्रारंभिक विद्रोह (1850-1900)
- इस काल की विशेषता स्वतःस्फूर्त और स्थानीय विद्रोह थे, जो मुख्यतः औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध तात्कालिक शिकायतों से प्रेरित हुए थे।
- जनजातीय आंदोलन: प्रारंभिक जनजातीय आंदोलनों जैसे सांथाल हूल (1855-56) और मुंडा उलगुलान (वर्ष 1899-1900, बिरसा मुंडा के नेतृत्व में) सीधे तौर पर महाजनों, ज़मींदारों (दिकुओं) तथा औपनिवेशिक शासन के वन अधिनियमों के हस्तक्षेप के विरुद्ध प्रतिक्रियाएँ थे।
- ये आंदोलन मुख्य रूप से खोई हुई स्वायत्तता और भूमि अधिकारों को पुनः प्राप्त करने पर केंद्रित थे।
- किसान आंदोलन: दक्कन विद्रोह (वर्ष 1875) और पाबना एग्रेरियन लीग (वर्ष 1873-76) जैसे किसान आंदोलन मुख्यतः उच्च लगान, साहूकारों द्वारा लिये जाने वाले अत्यधिक ब्याज दरों और काश्तकारों को ज़मीन से बेदखल करने की नीतियों के विरुद्ध हुए।
- ये आंदोलन, यद्यपि स्थानीय थे, औपनिवेशिक भू-राजस्व प्रणाली और उसके मध्यवर्तियों की शोषणकारी प्रकृति के प्रति बढ़ती जागरूकता को दर्शाते थे।
- द्वितीय चरण: चकबंदी और वैचारिक परिवर्तन (1900-1930)
- 20वीं शताब्दी के आरंभ में, आंदोलन विशुद्ध रूप से स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध से आगे बढ़कर अधिक संगठित होने लगे।
- किसान सभाओं का उदय: किसान सभाओं और अन्य किसान संगठनों के गठन से, (विशेष रूप से अवध और बिहार जैसे क्षेत्रों में) विरोध के एक अधिक संरचित रूप की ओर बदलाव हुआ।
- बाबा रामचंद्र जैसे नेताओं ने काश्तकारों को ऊँची लगान और बलात् श्रम (बेगार) के विरुद्ध संगठित किया।
- जनजातीय एकीकरण: जहाँ जनजातीय आंदोलन अपनी विशिष्ट पहचान बनाये रखने के लिये संघर्षरत रहे, वहीं धीरे-धीरे यह समझ विकसित हुई कि उनका संघर्ष व्यापक कृषक वर्ग के संघर्ष से जुड़ा हुआ है।
- उदाहरण के लिये, अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में रम्पा विद्रोह (1922) ने गांधीजी के असहयोग आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए, जनजातीय असंतोष को एक व्यापक ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन के साथ जोड़ दिया।
- तृतीय चरण: राष्ट्रीय आंदोलन के साथ एकीकरण (1930-1947)
- इस अंतिम चरण में किसान और जनजातीय आंदोलनों का मुख्यधारा के राष्ट्रवादी संघर्ष के साथ सीधा एकीकरण देखा गया।
- सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में बारदोली सत्याग्रह (1928) और 1930 का नागपुर जंगल सत्याग्रह इस चरण के प्रमुख उदाहरण हैं।
राष्ट्रवादी राजनीति को आकार देने में भूमिका
- सामाजिक आधार का विस्तार: उन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन को अभिजात वर्ग द्वारा संचालित संघर्ष से विविध सामाजिक स्तरों की भागीदारी वाले एक जन आंदोलन में परिणत करने में सहायता की।
- गहन साम्राज्यवाद-विरोध की अभिव्यक्ति: जहाँ प्रारंभिक राष्ट्रवादी आंदोलन प्रायः संवैधानिक सुधारों पर केंद्रित था, वहीं किसान और जनजातीय आंदोलनों ने औपनिवेशिक शासन में निहित आर्थिक शोषण को उजागर किया।
- इसने राष्ट्रवादी संघर्ष को और भी गहन साम्राज्यवाद-विरोधी और सामंतवाद-विरोधी स्वरूप प्रदान किया।
- राष्ट्रवादी कार्यक्रमों का प्रभाव: इन आंदोलनों के निरंतर दबाव ने भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस को और अधिक उग्र कृषक संबंधी कार्यक्रम को अपनाने के लिये बाध्य किया।
- कराची प्रस्ताव (1931), जिसमें जीविका-योग्य वेतन, निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा और भू-राजस्व में कमी की माँग की गई थी, सीधे तौर पर किसान एवं जनजातीय संघर्षों की माँगों को प्रतिबिंबित करता था।
- सत्याग्रह के लिये जनता का संगठन: इन आंदोलनों में प्रतिरोध के जो तरीके विकसित हुए थे जैसे: बहिष्कार, कर न देना तथा जनसमूहों की व्यापक भागीदारी, को आगे चलकर असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों जैसे गांधीवादी नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलनों में एकीकृत किया गया।
निष्कर्ष:
वर्ष 1947 में जब भारत स्वतंत्रता के कगार पर था, तब तक जनजातीय एवं किसान आंदोलनों ने यह सुनिश्चित कर दिया था कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक ही नहीं, बल्कि सम्मान, भूमि और आजीविका की लड़ाई भी हो। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था— “भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है। इन्हीं गाँवों एवं वनांचलों में प्रतिरोध की सच्ची चेतना जन्मी और विकसित हुई।”