• प्रश्न :

    प्रश्न. आर्थिक राष्ट्रवाद के उदय ने भारत में राजनीतिक राष्ट्रवाद की बौद्धिक नींव कैसे रखी? मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)

    28 Jul, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • आर्थिक राष्ट्रवाद और राजनीतिक राष्ट्रवाद को संक्षेप में परिभाषित कीजिये।
    • आर्थिक राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताओं पर चर्चा कीजिये।
    • व्याख्या कीजिये कि आर्थिक राष्ट्रवाद ने बौद्धिक रूप से राजनीतिक राष्ट्रवाद की नींव तैयार की।
    • एक विवेकपूर्ण टिप्पणी के साथ उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    आर्थिक राष्ट्रवाद, ब्रिटिश राज की औपनिवेशिक आर्थिक नीतियों के विरुद्ध वैचारिक एवं बौद्धिक प्रतिरोध को संदर्भित करता है, जिसके कारण भारत में शोषण, गरीबी और अविकसितता फैली। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक राष्ट्रवाद के उदय ने राजनीतिक राष्ट्रवाद के लिये एक महत्त्वपूर्ण आधारशिला रखी, क्योंकि इसने औपनिवेशिक शासन की शोषणकारी प्रकृति को उजागर किया तथा स्वशासन की माँग के प्रति जनमत को संगठित किया।

    मुख्य भाग:

    आर्थिक राष्ट्रवाद की प्रमुख विशेषताएँ

    • प्रारंभिक राष्ट्रवादी नेतृत्व:
      • दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और आर.सी. दत्त जैसे उदारवादी नेताओं के नेतृत्व में, आर्थिक राष्ट्रवाद ब्रिटिश आर्थिक नीतियों की सुविचारित आलोचनाओं के माध्यम से इसका उदय हुआ।
    • ड्रेन थ्योरी पर ध्यान:
      • दादाभाई नौरोजी के ड्रेन थ्योरी (जिस पर उनकी पुस्तक 'पॉवर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया' में प्रकाश डाला गया है) में तर्क दिया गया था कि ब्रिटेन बिना किसी उचित प्रतिफल के भारत की संपत्ति को लूट रहा था।
    • स्वदेशी उद्योग का संरक्षण:
      • नेताओं ने अनुचित टैरिफ संरचना की आलोचना की, जिसने भारतीय हस्तशिल्प की कीमत पर ब्रिटिश वस्तुओं को बढ़ावा दिया।
      • उन्होंने सुरक्षात्मक टैरिफ, स्वदेशी वस्तुओं को बढ़ावा देने और भारतीय उद्यमियों के लिये राज्य समर्थन की माँग की।
    • राजकोषीय स्वायत्तता की माँग:
      • गोखले और अन्य लोगों ने राजस्व, व्यय और आर्थिक नीति निर्धारण पर भारतीय नियंत्रण पर ज़ोर दिया।
      • उन्होंने अत्यधिक सैन्य व्यय और ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के लिये भारतीय राजस्व के उपयोग का विरोध किया।

    आर्थिक से राजनीतिक राष्ट्रवाद की ओर संक्रमण

    • औपनिवेशिक आर्थिक मंशा का खुलासा:
      • आर्थिक आलोचनाओं ने भारतीय कल्याण और ब्रिटिश हितों के बीच अंतर्निहित संघर्ष को उजागर किया।
      • यह अहसास बढ़ता गया कि राजनीतिक स्वतंत्रता के बिना आर्थिक राहत असंभव थी।
    • राजनीतिक आंदोलनों का विकास:
      • स्वदेशी आंदोलन (1905), जो बंगाल विभाजन के बाद ब्रिटिश वस्तुओं के आर्थिक बहिष्कार के रूप में शुरू हुआ, स्वराज (स्वशासन) की मांग करने वाले एक जन राजनीतिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ।
      • ‘ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार’ जैसे आर्थिक नारे जन-आंदोलन और राजनीतिक दावे के साधन बन गए।
    • प्रशासनिक और संवैधानिक सुधारों की माँग:
      • राष्ट्रवादियों ने सिविल सेवाओं के भारतीयकरण की माँग की, यह कहते हुए कि केवल भारतीय ही राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देंगे।
      • इसके साथ ही संवैधानिक सुधारों की माँग भी जुड़ी हुई थी, जिसमें विधानमंडलों में भारतीयों की अधिक भागीदारी, बजट पर नियंत्रण और उत्तरदायी सरकार शामिल थी।
      • होम रूल लीग (1916) और मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार बहस जैसे आंदोलनों ने अंतर्निहित आर्थिक असंतोष से प्रेरित संस्थागत राजनीतिक परिवर्तन की बढ़ती माँग को और अधिक प्रतिबिंबित किया।

    निष्कर्ष:

    इस प्रकार, इतिहासकार बिपन चंद्रा ने उचित तौर पर रेखांकित किया है कि "औपनिवेशिक शासन की पूरी आलोचना धन निष्कासन के सिद्धांत (Drain of Wealth theory) के इर्द-गिर्द केंद्रित थी" और यह कि ‘आधुनिक साम्राज्यवाद के जटिल आर्थिक तंत्र की समझ’ ने भारत में उपनिवेशवाद-विरोधी एवं बाद में साम्राज्यवाद-विरोधी राजनीति दोनों के लिये बौद्धिक आधार तैयार किया।