प्रश्न. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रारंभिक चरण को आकार देने में उदारवादियों और क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। विश्लेषण कीजिये कि क्या उनके दृष्टिकोण एक-दूसरे के परस्पर पूरक थे या विरोधाभासी? (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- उदारवादियों और क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों के संदर्भ में संक्षेप में बताते हुए उत्तर दीजिये।
- राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों और क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की भूमिका बताइये।
- उनके पूरक और विरोधाभासी पहलुओं पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन (1885-1907) का प्रारंभिक चरण मुख्यतः भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस (INC) के भीतर दो प्रमुख वैचारिक धाराओं: उदारवादी और क्रांतिकारी राष्ट्रवादी द्वारा आकार दिया गया था।
- जहाँ उदारवादियों ने संवैधानिक राष्ट्रवाद की नींव रखी, वहीं क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों ने जन-आंदोलन और मुखर माँगों को सामने लाया।
मुख्य भाग:
राष्ट्रीय आंदोलन में उदारवादियों की भूमिका
- और राजनीतिक सुधार: दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और फिरोज़शाह मेहता जैसे नेताओं ने उत्तरदायी सरकार, विधान परिषदों में भारतीयों का प्रतिनिधित्व एवं प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के पक्षधर थे।
- उनके दृष्टिकोण भारत और ब्रिटेन दोनों में याचिकाएँ, प्रस्ताव, प्रतिनिधिमंडल एवं भाषण थे (उदाहरण के लिये ,वर्ष 1890 में काॅन्ग्रेस की ब्रिटिश समिति और पत्रिका इंडिया का गठन)।
- ब्रिटिश शासन की आर्थिक आलोचना: नौरोजी द्वारा प्रतिपादित “धन-निष्कासन सिद्धांत” ने उपनिवेशवाद के तहत आर्थिक शोषण को उजागर किया।
- उन्होंने कृषि, भारतीय उद्योग, सिंचाई और शिक्षा को समर्थन देने वाली नीतियों की मांग की।
- सामाजिक सुधार और नागरिक अधिकार: अभिव्यक्ति, प्रेस और संघ की स्वतंत्रता पर ज़ोर दिया गया तथा सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन करने और प्राथमिक शिक्षा में सुधार के लिये कार्य किया।
- गोखले की ‘सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी’ का उद्देश्य भारतीय समाज को आध्यात्मिक और बौद्धिक रूप से उन्नत करना था।
- राष्ट्र निर्माण: हालाँकि यह मुख्यतः मध्यम वर्ग तक सीमित था, उदारवादियों ने भारतीय राष्ट्रवाद के लिये बौद्धिक एवं वैचारिक आधार तैयार किया।
राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की भूमिका
- दृढ़ राष्ट्रवाद और स्वराज की माँग: बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने उदारवादियों के समझौतावादी रुख को अस्वीकार कर दिया तथा स्वराज को जन्मसिद्ध अधिकार घोषित कर दिया।
- उनकी राजनीति भावनात्मक रूप से तीव्र और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में निहित थी, जिसमें भगवान शिव एवं गणपति जैसे प्रतीकों का आह्वान किया गया था।
- जन संगठन: बंगाल विभाजन के प्र्त्यत्तर में शुरू किया गया स्वदेशी आंदोलन (1905-08) एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था। इसमें शामिल थे:
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार
- स्वदेशी उद्योग (स्वदेशी) को बढ़ावा
- राष्ट्रीय शिक्षा
- निष्क्रिय प्रतिरोध
- भारतीय परंपराओं का पुनरुत्थान: उन्होंने राजनीतिक कार्रवाई को उचित ठहराने के लिये भारतीय दर्शन की पुनर्व्याख्या की। उदाहरण के लिये तिलक के गीता रहस्य ने गीता की व्याख्या राष्ट्र सेवा के लिये निस्वार्थ कर्म के मार्गदर्शक के रूप में की।
- राष्ट्रवाद को जनभावना से जोड़ना: यद्यपि अहिंसक, वे याचिका को कमज़ोर मानते थे और जनता को जागृत करने के लिये भावनात्मक राष्ट्रवाद पर ज़ोर देते थे।
क्या उनके तरीके पूरक थे या विरोधाभासी?
- पूरक पहलू
- साझा लक्ष्य: दोनों का लक्ष्य भारतीय स्वशासन था, हालाँकि रास्ते अलग-अलग थे।
- आधारभूत कार्य: उदारवादियों ने जागरूकता और संस्था-निर्माण के माध्यम से ज़मीन तैयार की; क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों ने जनता को शामिल करने के लिये दायरे का विस्तार किया।
- वैचारिक प्रभाव: गांधी जैसे बाद के नेताओं ने दोनों परंपराओं का समन्वय किया, गोखले से संवैधानिक नैतिकता और तिलक से जन राजनीति ग्रहण की।
- विरोधाभासी पहलू
- संलग्नता के तरीके:
- उदारवादी: संवैधानिक, सतर्क, संवाद-आधारित।
- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी: मुखर, प्रत्यक्ष-कार्य उन्मुख।
- ब्रिटिश शासन के प्रति दृष्टिकोण:
- उदारवादियों ने साम्राज्य के भीतर सुधार को संभव माना।
- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी औपनिवेशिक शासन को पूरी तरह से समाप्त करने में विश्वास करते थे।
- जनधारणा: क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों ने उदारवादियों पर ब्रिटिश हितों के प्रति अत्यधिक सत्यनिष्ठ होने का आरोप लगाया, जबकि उदारवादियों को डर था कि टकरावपूर्ण दृष्टिकोण दमन को भड़काएगा।
निष्कर्ष
उदारवादी और क्रांतिकारी राष्ट्रवादी, वैचारिक रूप से भिन्न होते हुए भी, परस्पर विरोधी नहीं थे, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद के विकास के विभिन्न चरणों का प्रतिनिधित्व करते थे। जैसा कि गांधीजी ने बाद में प्रदर्शित किया, जन-आंदोलन (क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों की ओर से) और नैतिक श्रेष्ठता की भूमिका (उदारवादियों की ओर से) में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। इस प्रारंभिक चरण से प्राप्त शिक्षाओं ने उस रणनीतिक और वैचारिक आधार की नींव रखी जिस पर आगे चलकर गाँधी युग की राष्ट्रवादी राजनीति टिकी।