1. तेजी से बदलते विश्व में, विकास और मूल्यों के संरक्षण के बीच संघर्ष मानवता के भविष्य को आकार प्रदान करता है।
2. पहचान का तात्पर्य यह नहीं है कि हम कौन हैं, बल्कि यह है कि हम क्या नहीं हैं।
उत्तर :
1. तेज़ी से बदलते विश्व में विकास और मूल्यों के संरक्षण के बीच संघर्ष मानवता के भविष्य को आकार प्रदान करता है।
अपने निबंध को समृद्ध करने के लिये उद्धरण:
- महात्मा गांधी: "एक राष्ट्र की संस्कृति उसके लोगों के हृदयों और आत्मा में निवास करती है।"
- जॉन एफ. कैनेडी: "परिवर्तन ही जीवन का नियम है और जो केवल अतीत या वर्तमान की ओर देखते हैं, वे निश्चय ही भविष्य को चूक जाते हैं।"
- कन्फ्यूशियस: "यदि आप भविष्य को परिभाषित करना चाहते हैं, तो अतीत का अध्ययन कीजिये।"
सैद्धांतिक और दार्शनिक आयाम:
- प्रगति का विरोधाभास: तकनीकी, आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति मानव विकास को बढ़ावा देती है, लेकिन प्रायः सांस्कृतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आधारों को चुनौती देती है।
- वास्तविक प्रगति वह है जो करुणा, गरिमा, न्याय और संवहनीयता जैसे प्रमुख मानवीय मूल्यों को नष्ट किये बिना मानव जीवन को बेहतर बनाए।
- सभ्यतागत निरंतरता बनाम सांस्कृतिक विघटन: ऐतिहासिक रूप से, जिन समाजों ने परिवर्तन के साथ अनुकूलन करते हुए अपने मूल्यों को संरक्षित रखा, वे लंबे समय तक विकासमान रहे।
- उदाहरण के लिये, जापान में परंपरा और आधुनिकता का संतुलन या भारत की सांस्कृतिक बहुलता में निहित लचीलापन उल्लेखनीय है।
- भारतीय दर्शन - शाश्वत बनाम क्षणभंगुर: सनातन धर्म में सत्य, अहिंसा और धर्म (कर्त्तव्य) जैसे मूल्य शाश्वत माने जाते हैं, जबकि भौतिक उपलब्धियाँ क्षणिक होती हैं।
- भगवद्गीता में भी यही उपदेश है कि मनुष्य को सफलता की चिंता किये बिना धर्म आधारित कर्म में रत रहना चाहिये।
- प्रगतिशील रूढ़िवादिता: परिवर्तन को सामाजिक निरंतरता से जोड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ाना चाहिये, न कि संस्थाओं के विध्वंस के माध्यम से। मूल्य परिवर्तनशील युग में संतुलन और स्थायित्व प्रदान करने का कार्य करते हैं।
नीति और ऐतिहासिक उदाहरण:
- भारत का संविधान: प्राचीन भारतीय मूल्यों पर आधारित एक प्रगतिशील दस्तावेज़, जो आधुनिक लोकतंत्र, समानता और स्वतंत्रता को न्याय एवं सामुदायिक जीवन जैसी परंपराओं के साथ संतुलित करता है।
- औद्योगिक क्रांति: इसने भौतिक प्रगति का व्यापक विस्तार किया, परंतु साथ ही सामाजिक असमानताओं, श्रमिकों के शोषण और पर्यावरणीय क्षरण को भी बढ़ाया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि मूल्यों से विहीन प्रगति के लिये आपको भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
- हरित क्रांति: इसने भारत में खाद्य सुरक्षा को सुदृढ़ किया, परंतु साथ ही पारिस्थितिक असंतुलन और ऋण संकट जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न कीं, जो यह दर्शाता है कि कृषि क्षेत्र में नैतिकता आधारित सतत् पद्धतियों की आवश्यकता है।
- युद्धोत्तर पुनर्निर्माण (जर्मनी और जापान): इन देशों ने आधुनिकता की दिशा में प्रगति की, परंतु अपनी सांस्कृतिक पहचान को नहीं छोड़ा। इससे यह सिद्ध होता है कि आर्थिक और तकनीकी विकास मूल्यों के साथ सह-अस्तित्व में रह सकता है।
समकालीन उदाहरण:
- जलवायु परिवर्तन शमन: संधारणीयता संबंधी आंदोलन ऐसे विकास की ओर अग्रसर हैं जो हरित प्रौद्योगिकी और नवाचार को बढ़ावा देते हुए पारिस्थितिकी की रक्षा करें, यह 'पारपीढ़ी उत्तरदायित्व' जैसे प्रमुख मानव मूल्य को सहेजने का प्रयास है।
- डिजिटल इंडिया और एथिकल गवर्नेंस: भारत का डिजिटल परिवर्तन (जैसे–आधार, UPI) तभी सार्थक होगा जब यह डेटा गोपनीयता, सहमति और समावेशिता के सिद्धांतों के अनुरूप हो, ताकि तकनीक-आधारित भविष्य में नागरिकों के अधिकार सुरक्षित रहें।
- शिक्षा सुधार: राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 नवाचार और समालोचनात्मक चिंतन को प्रोत्साहित करती है, परंतु साथ ही विविधता के प्रति सम्मान, नैतिकता एवं पर्यावरणीय चेतना जैसे मूल्यों को भी शिक्षा में समाहित करती है।
- वैश्वीकरण में सांस्कृतिक पहचान: योग, आयुर्वेद और देशज भाषाएँ यह दर्शाती हैं कि वैश्विक मंच पर उपस्थिति के लिये पारंपरिक जड़ों को त्यागना आवश्यक नहीं, बल्कि दोनों को साथ लेकर चलना संभव है।
2. पहचान का तात्पर्य यह नहीं है कि हम कौन हैं, बल्कि यह है कि हम क्या नहीं हैं।
- निबंध को समृद्ध करने के लिये उद्धरण:
- जीन पॉल सार्त्र: "मनुष्य कुछ और नहीं, केवल वही है जो वह स्वयं को बनाता है।"
- कार्ल युंग: "जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि आप वास्तव में वही बन सकें, जो आप हैं।"
- भीमराव अंबेडकर: "मैं किसी समुदाय की प्रगति का आकलन वहाँ की महिलाओं द्वारा प्राप्त प्रगति के स्तर से करता हूँ।"
- स्वामी विवेकानंद: "जब तक आप स्वयं पर विश्वास नहीं करते, तब तक आप ईश्वर पर विश्वास नहीं कर सकते।"
- सैद्धांतिक और दार्शनिक आयाम:
- अस्तित्ववादी दर्शन – निषेध के माध्यम से पहचान: सार्त्र और नीत्शे के अनुसार, व्यक्ति की पहचान किसी निश्चित 'स्व' की स्वीकृति से नहीं, बल्कि उस पर थोपे गए सामाजिक दायित्वों, लेबल्स और अपेक्षाओं को अस्वीकार करने से बनती है।
- ‘हम क्या नहीं हैं’, यही सीमा-रेखा तय करती है कि ‘हम क्या बनना चुनते हैं’।
- जुंग मनोविज्ञान – छाया-स्व की स्वीकृति: अपनी पहचान को समझने के लिये हमें अपने भीतर के उन पक्षों का सामना करना होता है जिन्हें हम अस्वीकार करते या दबाते आए हैं।
- जब हम अपने भय, पक्षपात और नकली व्यक्तित्वों को स्वीकार कर लेते हैं, तभी हम पूर्णता की ओर बढ़ते हैं।
- भारतीय चिंतन – 'नेति-नेति' (न यह, न वह): वेदांत दर्शन में 'नेति-नेति' एक आध्यात्मिक पथ है जिसमें व्यक्ति अपनी पहचान का बोध उन सभी भ्रांतियों को हटाकर करता है जो 'स्व' प्रतीत होती हैं।
- आत्म-ज्ञान इस बात को पहचानने से उत्पन्न होता है कि आत्मा क्या नहीं है।
- औपनिवेशोत्तर सिद्धांत – 'अन्य' के विरुद्ध पहचान: बहुत से राष्ट्रीय और व्यक्तिगत पहचान-निर्माण (जैसे–दलित अस्मिता या अफ्रीकी उपनिवेश-मुक्ति) तब उभरते हैं जब प्रभुत्वशाली व्यवस्था द्वारा थोपी गई हीनताबोधक पहचान का प्रतिरोध किया जाता है।
- नीति और ऐतिहासिक उदाहरण:
- भारत का स्वतंत्रता संग्राम: भारतीय पहचान का निर्माण इस प्रक्रिया से हुआ कि उसने उपनिवेशवाद द्वारा थोपी गई हीनता और पिछड़ेपन की परिभाषाओं को अस्वीकार किया।
- गांधी, नेहरू और अंबेडकर जैसे नेताओं ने पश्चिम द्वारा परिभाषित भारतीय अस्मिता को एक नए अर्थ में पुनः परिभाषित किया।
- नागरिक अधिकार आंदोलन (अमेरिका): अफ्रीकी-अमेरिकियों ने केवल समानता का दावा नहीं किया, बल्कि उस प्रणालीगत नस्लवाद, भेदभाव और सांस्कृतिक विलोपन को ठुकराकर अपनी अस्मिता को पुनः स्थापित किया।
- नारीवादी आंदोलन: स्त्रियों की पहचान ने तब एक नया रूप लिया जब उन्होंने यह चुनौती दी कि वे केवल अधीनस्थ, निष्क्रिय या घरेलू भूमिकाओं तक सीमित नहीं हैं।
- LGBTQ+ आंदोलन: समलैंगिक पहचान को न केवल आत्म-परिभाषा से मान्यता मिलती है, बल्कि 'सामान्य' या 'प्राकृतिक' क्या है, इस बारे में विषमलैंगिक मान्यताओं को अस्वीकार करने से भी मान्यता मिलती है।
- समकालीन उदाहरण:
- युवा और सोशल मीडिया: आज की ऑनलाइन पहचान हमारी पसंद के चयन से गढ़ी जाती है कि हम क्या लाइक करते हैं, किसे स्वीकार/फॉलो करते हैं, किसे अस्वीकार/अनफॉलो करते हैं।
- पहचान केवल आत्म-अभिव्यक्ति से नहीं बनती, बल्कि इससे भी बनती है कि हम क्या नकारते हैं, जैसे–'अनफॉलो', 'ब्लॉक' करना या किसी चीज़ से दूर रहना।
- प्रवासी और प्रव्रजन समुदाय: लोग प्रायः अपनी सांस्कृतिक पहचान को विदेशों में अधिक गहराई से महसूस करते हैं, जहाँ उनकी पहचान उस संस्कृति के विरोध में उभरती है जिसमें वे रहते हैं। यह विरोध ही सांस्कृतिक संरक्षण का माध्यम बन जाता है।
- मिनिमलिज़्म और उपभोक्ता पहचान: 'मिनिमलिज़्म' अर्थात् अतिसूक्ष्मवाद जैसी धारणाएँ स्वयं की पहचान को इस आधार पर नहीं गढ़तीं कि हमारे पास क्या है, बल्कि इस आधार पर गढ़ती हैं कि हम क्या उपभोग करने से सचेत रूप से इनकार करते हैं। भौतिक अतिरेक को नकारना आंतरिक स्पष्टता का मार्ग बन जाता है।
- गिग इकॉनमी में कॅरियर की पहचान: आज अधिकाधिक युवा पारंपरिक नाइन-टू-फाइव नौकरियों को अस्वीकार कर फ्रीलांस, बहु-क्षमतावान या उद्देश्य-प्रधान कार्यों की ओर बढ़ रहे हैं।
- वे स्वयं को केवल नई भूमिकाएँ अपनाकर नहीं, बल्कि थोपी गई सामाजिक-आर्थिक भूमिकाओं को पीछे छोड़कर या त्यागकर पुनः परिभाषित करते हैं।