प्रश्न. "युद्ध शांत भविष्य के निर्माण के लिये अच्छे औज़ार नहीं हैं।" – मार्टिन लूथर किंग जूनियर।
उपर्युक्त कथन के संदर्भ में चर्चा कीजिये कि क्या स्थायी शांति हिंसात्मक तरीकों से प्राप्त की जा सकती है, या अहिंसा ही एकमात्र नैतिक मार्ग है? (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- निम्नलिखित प्रश्न का उत्तर देने के लिये उद्धरण का औचित्य बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- शांति के साधन के रूप में हिंसा और युद्ध के पक्ष में तर्क दीजिये।
- शांति प्राप्त करने में अहिंसा के महत्त्व पर प्रकाश डालिये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
मार्टिन लूथर किंग जूनियर का यह कथन हिंसा के माध्यम से शांति प्राप्त करने की नैतिक जटिलता को उजागर करता है। कई मामलों में, हिंसक संघर्षों के परिणामस्वरूप अधिक विनाश होता है, जो समाज पर लंबे समय तक बने रहने वाले प्रभाव छोड़ जाता है।
- लेकिन, भगवद् गीता में भगवान कृष्ण प्रारंभ में संवाद के माध्यम से शांति चाहते हैं, लेकिन जब वह विफल हो जाता है, तो कर्त्तव्य और न्याय पर ज़ोर देते हुए, अर्जुन को युद्ध करने की सलाह देते हैं।
- यह अहिंसा और युद्ध की आवश्यकता के बीच की दुविधा को दर्शाता है, जब शांति का कोई विकल्प नहीं रह जाता।
मुख्य भाग:
शांति के साधन के रूप में हिंसा और युद्ध:
- युद्ध का नैतिक औचित्य: युद्ध को तब उचित ठहराया जा सकता है, जब वह न्याय को कायम रखने, संप्रभुता की रक्षा करने या मानव अधिकारों की रक्षा के लिये हो।
- अरस्तू के अनुसार 'न्याय सर्वोच्च सद्गुण' है, अतः यदि न्याय की रक्षा हेतु युद्ध किया जाये तो वह उचित है। जॉन स्टुअर्ट मिल का उपयोगितावाद (Utilitarianism) भी हिंसा को इस शर्त पर स्वीकार करता है कि उससे बहुसंख्यक लोगों का हित हो।
- उदाहरण: कोसोवो में नाटो के हस्तक्षेप (वर्ष 1999) को मानवीय आधार पर उचित ठहराया गया, जिसका उद्देश्य सर्बियाई शासन द्वारा किये जा रहे जातीय संहार और अत्याचारों को रोकना था।
- संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा: जब किसी राष्ट्र की संप्रभुता या बाह्य आक्रमण से सुरक्षा खतरे में हो, तब आत्मरक्षा के रूप में युद्ध नैतिक रूप से उचित होता है। इसे नागरिकों की सुरक्षा और अस्तित्व की रक्षा के रूप में देखा जाता है।
- जॉन लॉक के 'सामाजिक अनुबंध सिद्धांत' के अनुसार सरकारें जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा के लिये बनती हैं तथा जब ये तत्त्व संकट में हों, तब उनकी रक्षा के लिये युद्ध एक नैतिक उपाय हो सकता है।
- उदाहरण: भारत-चीन युद्ध (वर्ष 1962) तथा भारत-पाकिस्तान युद्ध (वर्ष 1965), इन दोनों प्रसंगों में भारत ने अपनी संप्रभुता और राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा हेतु युद्ध किया।
- अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों और कानून की रक्षा करना: युद्ध को तब उचित ठहराया जा सकता है जब अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानदंडों की रक्षा करना आवश्यक हो, जैसे आतंकवाद के प्रसार को रोकना या वैश्विक शांति समझौतों को लागू करना।
- वर्ष 1990–1991 का 'गल्फ युद्ध' प्रायः इस तर्क के आधार पर उचित ठहराया गया कि वह कुवैत पर इराक के आक्रमण को पीछे हटाकर क्षेत्रीय अखंडता के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय कानून की रक्षा करने तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को बहाल करने का प्रयास था।
हालाँकि, यदि युद्ध शांति प्राप्त करने के इरादे से भी किया जाता है, तो इसके अनपेक्षित परिणाम प्रायः इस लक्ष्य को कमज़ोर कर देते हैं, जिससे और अधिक पीड़ा होती है।
- 'वियतनाम युद्ध' को साम्यवाद के प्रसार को रोकने के लिये आरंभ किया गया था, परंतु इसके फलस्वरूप लाखों लोगों की मृत्यु हुई, पर्यावरण को भीषण क्षति पहुँची और समाज में गहरे विभाजन उत्पन्न हो गये।
शांति प्राप्ति में अहिंसा का पक्ष:
- नैतिक उच्चता के रूप में अहिंसा: अहिंसा संघर्षों के समाधान का नैतिक रूप से श्रेष्ठ मार्ग है, जो नैतिक परिवर्तन पर केंद्रित होता है और दीर्घकालिक शांति को बढ़ावा देता है।
- महात्मा गाँधी का 'नमक सत्याग्रह' (वर्ष 1930) और मार्टिन लूथर किंग जूनियर का 'नागरिक अधिकार आंदोलन' जैसे ऐतिहासिक उदाहरण दिखाते हैं कि अहिंसात्मक असहयोग के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन सफलतापूर्वक लाया जा सकता है।
- अहिंसा के माध्यम से न्याय और निष्पक्षता: अहिंसा बिना किसी क्षति के न्याय सुनिश्चित करती है और अधिक सतत् व निष्पक्ष शांति की स्थापना में सहायक होती है।
- नेल्सन मंडेला ने आरंभ में रंगभेद के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध का समर्थन किया था, परंतु बाद में उन्होंने शांतिपूर्ण संवाद और क्षमाशीलता पर ज़ोर देते हुए राष्ट्रीय पुनर्मिलन के लिये अहिंसक तरीकों को अपनाया।
- नैतिक साहस तथा नैतिक नेतृत्व का संवर्द्धन: जो नेता अहिंसा का मार्ग अपनाते हैं, वे अधिक नैतिक साहस और नैतिक नेतृत्व का प्रदर्शन करते हैं। वे बल प्रयोग जैसे तात्कालिक उपायों की बजाय उच्च आदर्शों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हैं।
- तिब्बत पर चीनी अधिग्रहण के बावजूद दलाई लामा का शांति और अहिंसा के पक्ष में आग्रह यह दर्शाता है कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध एवं नैतिक नेतृत्व किस प्रकार वैश्विक सहानुभूति व समर्थन प्राप्त कर सकते हैं।
निष्कर्ष:
मानवाधिकारों की रक्षा या आक्रामकता के प्रत्युत्तर में रक्षात्मक हिंसा नैतिक रूप से उचित मानी जाती है। जॉन रॉल्स का 'न्याय का सिद्धांत' तब रक्षात्मक बल का समर्थन करता है जब न्याय संकट में हो। हालाँकि, हिंसा को अंतिम उपाय के रूप में ही अपनाना चाहिये, जैसा कि वर्ष 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारत के हस्तक्षेप से स्पष्ट होता है।