प्रश्न. "भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक संकीर्ण प्रक्रियात्मक गारंटी से मौलिक अधिकारों के व्यापक दायरे में बदल दिया है।" प्रासंगिक केस कानूनों के संदर्भ में चर्चा कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- उत्तर को सर्वोच्च न्यायालय के एक उद्धरण के साथ प्रस्तुत कीजिये।
- मुख्य क्षेत्रों और प्रासंगिक मामले कानूनों पर जोर देते हुए अनुच्छेद 21 के विस्तार पर गहराई से विचार कीजिये।
- उपर्युक्त निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में सर्वोच्च न्यायालय का रुख अनुच्छेद 21 के विस्तार को दर्शाता है, जिसमें कहा गया है, "जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सभी मानव अधिकारों में सबसे प्रमुख है जो केवल अस्तित्व के बारे में नहीं है, बल्कि सम्मान के साथ जीवन जीने के बारे में है।"
- इसने प्रक्रियात्मक से मौलिक अधिकारों (अर्थात, केवल कानूनी प्रक्रियाओं में ही नहीं, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन और निष्पक्षता सुनिश्चित करना) की ओर बदलाव को चिह्नित किया, जिससे भारत में मौलिक अधिकारों का दायरा व्यापक हो गया।
मुख्य भाग:
अनुच्छेद 21 का विस्तार: प्रमुख क्षेत्र और प्रासंगिक मामले
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत उचित प्रक्रिया का परिचय:
- मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में, न्यायालय ने "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" के साथ-साथ "कानून की उचित प्रक्रिया" के सिद्धांत को पेश करके अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार किया।
- इस बदलाव ने यह सुनिश्चित किया कि कानून और उनका क्रियान्वयन न्यायसंगत, निष्पक्ष और उचित होना चाहिये, न कि केवल कानूनी स्वरूप में।
- इसके अलावा, समता बनाम आंध्र प्रदेश (1997) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार केवल जीवित रहने से कहीं अधिक है, इसमें गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार, बुनियादी जीविका, आश्रय और अन्य सभी तत्व शामिल हैं जो जीवन को सार्थक और पूर्ण बनाते हैं।
- निहितार्थ: इसके द्वारा मनमाने कार्यों के विरुद्ध संरक्षण को शामिल करने के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता के दायरे का विस्तार किया।
- निःशुल्क कानूनी सहायता एवं त्वरित सुनवाई का अधिकार:
- हुसैनारा खातून बनाम बिहार (1979) मामले में न्यायालय ने घोषणा की कि त्वरित सुनवाई का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा है, जिससे विचाराधीन कैदियों की लंबे समय तक हिरासत में रखने की समस्या का समाधान किया गया।
- इसमें नागरिकों के बीच न्याय के प्रभावी प्रशासन और समानता के लिये निःशुल्क कानूनी सहायता पर भी ज़ोर दिया गया।
- निहितार्थ: इस फैसले में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि न्यायिक प्रक्रियाओं में देरी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सम्मान के अधिकार का उल्लंघन करती है, जिससे न्याय तक समय पर पहुँच सुनिश्चित होती है।
- मनमाने ढंग से हिरासत से सुरक्षा का अधिकार:
- प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन (1980) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि किसी कैदी को हथकड़ी लगाना अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जब तक कि ऐसी कार्रवाई को उचित ठहराने के लिये कोई असाधारण कारण न हो।
- निहितार्थ: निर्णय में कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार पर ध्यान केंद्रित किया गया तथा इस बात पर बल दिया गया कि अपमानजनक व्यवहार के माध्यम से व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता।
- आजीविका का अधिकार:
- ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (1985) मामले में न्यायालय ने फैसला दिया कि आजीविका का अधिकार जीवन के अधिकार का एक अनिवार्य हिस्सा है, क्योंकि व्यक्ति आजीविका कमाने के साधन के बिना सम्मान के साथ नहीं रह सकता है।
- निहितार्थ: इस मामले में यह माना गया कि जीवन के अधिकार में जीविकोपार्जन का अधिकार भी शामिल है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि लोगों को मनमाने ढंग से उनकी आजीविका से वंचित नहीं किया जा सकता, विशेष रूप से बेदखली का सामना कर रहे झुग्गीवासियों के मामले में।
- शिक्षा का अधिकार:
- मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने शिक्षा के अधिकार को जीवन के अधिकार के भाग के रूप में मान्यता प्रदान की तथा यह अनिवार्य किया कि राज्य को सभी नागरिकों, विशेषकर बच्चों को शिक्षा उपलब्ध करानी चाहिये।
- निहितार्थ: इस मामले ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009) के लिये आधार तैयार किया, जो 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी प्रदान करता है तथा शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित करता है।
- आश्रय का अधिकार:
- चमेली सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1996) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि आश्रय का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा है तथा इस बात की पुष्टि की कि प्रत्येक नागरिक को सम्मानजनक अस्तित्व के लिये बुनियादी आवश्यकता के रूप में अपने सिर पर छत का अधिकार है।
- निहितार्थ: इस निर्णय ने किफायती आवास सुनिश्चित करने की राज्य की जिम्मेदारी को रेखांकित किया, विशेष रूप से समाज के गरीब और हाशिए पर पड़े वर्गों के लिये।
- कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विरुद्ध सुरक्षा का अधिकार:
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997) में, न्यायालय ने फैसला दिया कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और इस तरह के उत्पीड़न को रोकने के लिए दिशा-निर्देश बनाने का निर्देश दिया।
- निहितार्थ: इस निर्णय के परिणामस्वरूप विशाखा दिशा-निर्देश तैयार किये गए, जो बाद में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 का आधार बने।
- पर्यावरण और स्वस्थ जीवन का अधिकार:
- एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ (1986) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण संरक्षण को जीवन के अधिकार से जोड़ते हुए अनुच्छेद 21 के दायरे का विस्तार करते हुए स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को इसमें शामिल कर दिया।
- निहितार्थ: यह मामला जीवन के मौलिक अधिकार के हिस्से के रूप में स्वस्थ पर्यावरण और वायु गुणवत्ता के अधिकार के इर्द-गिर्द न्यायशास्त्र बनाने में सहायक था।
- ट्रांसजेंडर के अधिकार:
- नालसा बनाम भारत संघ (2014) मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को मान्यता दी तथा पुष्टि की कि उनके जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार और ट्रांसजेंडर के रूप में मान्यता प्राप्त करने का अधिकार शामिल है।
- निहितार्थ: यह निर्णय संविधान के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये समानता और गैर-भेदभाव सुनिश्चित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है, जिसने सम्मान और स्वतंत्रता की परिभाषा का विस्तार किया है।
- व्यभिचार और समलैंगिकता का वैधीकरण:
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2019 ) में, सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को अपराध से मुक्त कर दिया, यह पुष्टि करते हुए कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा का उल्लंघन था।
- इसी तरह, नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2019) में, न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अपराधमुक्त कर दिया, तथा LGBTQ+ व्यक्तियों के सम्मान के साथ और भेदभाव से मुक्त होकर जीने के अधिकार को स्वीकार किया।
- निहितार्थ: इन निर्णयों ने पुष्टि की कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में व्यक्तिगत संबंधों और यौन अभिविन्यास में हस्तक्षेप के बिना अपना जीवन जीने की स्वतंत्रता शामिल है।
- गोपनीयता का अधिकार:
- के.एस पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) में, सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया, जिससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा बढ़ गया।
- निहितार्थ: इस फैसले ने पुष्टि की कि प्रत्येक व्यक्ति को गोपनीयता का अधिकार है, जिसमें व्यक्तिगत डेटा और किसी व्यक्ति के शरीर, पहचान और रिश्तों के बारे में निर्णयों की सुरक्षा (जिसके कारण डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 बना) शामिल है, जो अनुचित राज्य हस्तक्षेप से सुरक्षित है।
निष्कर्ष:
अनुच्छेद 21 के भाग के रूप में सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय अधिकारों को मान्यता देकर, न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति सम्मान, समानता और स्वतंत्रता के साथ जीवन जिये तथा जीवन का अधिकार केवल पशुवत अस्तित्व तक सीमित नहीं रहना चाहिये, जैसा कि फ्रांसिस कोरली बनाम यू.टी. ऑफ दिल्ली मामले में पुष्टि की गई है।