प्रश्न.“आज भारतीय समाज अपनी सामाजिक शब्दावली की तुलना में कहीं अधिक तेज़ी से आगे बढ़ रहा है।” लैंगिक समानताओं, प्रौद्योगिकी एवं पीढ़ीगत आकांक्षाओं के इर्द-गिर्द बदलते मानदंडों के सामाजिक निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- प्रश्न के उद्धरण को एक मान्य उदाहरण के साथ उचित ठहराते हुए उत्तर का परिचय दीजिये?
- बदलते मानदंडों और पिछड़ी शब्दावली के सामाजिक निहितार्थ बताएँ।
- उदाहरणों के साथ बताइये कि परिवर्तनों के बावजूद सामाजिक शब्दावली में प्रमुख मानदंड कायम हैं
- एक उद्धरण के साथ निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
भारत के तेजी से बदलते समाज में, पारंपरिक मानदंड नई वास्तविकताओं के साथ तालमेल बिठाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण ज़ोमैटो जैसे त्वरित-वाणिज्य प्लेटफार्मों के लिये महिला डिलीवरी कर्मियों का उदय है, एक समय में यह भूमिका पुरुषों के वर्चस्व वाली थी।
यह बदलाव गहरी जड़ें जमाए हुए लैंगिक मानदंडों को चुनौती देता है तथा इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे विकासशील सामाजिक गतिशीलता अक्सर उनका वर्णन करने के लिये प्रयुक्त शब्दावली से आगे होती है, जिससे पुराने मूल्यों और नई आकांक्षाओं के बीच अंतर उत्पन्न होता है।
मुख्य भाग:
परिवर्तित होते सामाजिक मानदंडों और पिछड़ती शब्दावली के सामाजिक प्रभाव:
- लिंग पुनर्संरेखण: पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान क्षेत्रों जैसे रक्षा, विमानन और प्रौद्योगिकी में महिलाओं की बढ़ती उपस्थिति सामाजिक मानदंडों को बदल रही है।
- यह लैंगिक पुनर्संरेखण धीरे-धीरे पुरुषत्व और स्त्रीत्व की पितृसत्तात्मक परिभाषाओं को ध्वस्त कर रहा है।
- प्रौद्योगिकी और तर्कसंगत पुनर्व्यवस्था: प्रौद्योगिकी के आगमन से सामाजिक संरचनाओं की तर्कसंगत पुनर्व्यवस्था हुई है तथा पुरानी प्रथाओं को अधिक वैज्ञानिक आधार पर स्थापित करने के लिये UCC जैसे व्यक्तिगत कानूनों पर विचार-विमर्श किया जा रहा है।
- ई-गवर्नेंस जैसे प्रौद्योगिकी-संचालित प्लेटफॉर्म भी शासन और सेवा वितरण में तर्कसंगतता को बढ़ावा दे रहे हैं।
- पीढ़ीगत आकांक्षाएँ और धर्मनिरपेक्ष उपभोक्तावाद: व्यक्तिवाद, भौतिक सफलता और डिजिटल संपर्क की आकांक्षाओं से प्रेरित होकर मिलेनियल्स और जेन जेड, धर्मनिरपेक्ष उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे हैं (खुशी और आत्म-सम्मान भौतिक संपत्ति के अधिग्रहण से निकटता से जुड़े हुए हैं)।
- भव्य शादियाँ, सोशल मीडिया से प्रेरित जीवनशैली तथा पारंपरिक मूल्यों की अपेक्षा अनुभवों पर अधिक ध्यान, आध्यात्मिक मूल्यों की अपेक्षा भौतिक संस्कृति की ओर इस बदलाव को उजागर करते हैं।
- सांस्कृतिक वस्तुकरण: पारंपरिक संस्कृति, जो कभी अपने आध्यात्मिक महत्त्व के लिये पूजनीय थी, अब तेजी से वस्तुकरण की ओर बढ़ रही है।
- उदाहरण के लिये जनजातीय कला को ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों पर विपणन किया जाता है, जिससे संस्कृति का बाज़ार-संचालित संस्करण तैयार होता है, जिससे इसकी दृश्यता तो बढ़ जाती है, लेकिन इस प्रक्रिया में इसका गहरा अर्थ खो सकता है।
- मिश्रित पहचान का विकास: पारंपरिक और आधुनिक पहचान का सम्मिश्रण, विशेष रूप से शहरी केंद्रों में, अधिक स्पष्ट होता जा रहा है।
- पश्चिमी फैशन को पारंपरिक भारतीय प्रतीकों (जैसे जींस के साथ बिंदी) के साथ मिश्रित करने वाले युवा सांस्कृतिक तत्वों का मिश्रण दर्शाते हैं, जिससे संकर पहचान बनती है, जिसे स्पष्ट रूप से वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।
- उभरती कार्य संस्कृतियाँ: गीग इकोनॉमी और रिमोट वर्किंग ने कार्य-जीवन संतुलन की परिभाषा को बदल दिया है।
- यह परिवर्तन पारंपरिक कार्य संरचनाओं को चुनौती देता है तथा कठोर दफ्तर समय-सारणी तथा पदानुक्रम की बजाय समुत्थानशीलता को प्राथमिकता देता है। इससे समाज में उत्पादकता की धारणा भी बदल रही है।
- पारिवारिक गतिशीलता का पुनर्गठन: एकल परिवारों, एकल अभिभावक वाले घरों और विलंबित विवाहों के बढ़ने के साथ, परिवार की पारंपरिक अवधारणाओं को पुनः परिभाषित किया जा रहा है।
- लिव-इन रिलेशनशिप, तलाक और LGBTQ+ अधिकारों की बढ़ती स्वीकार्यता पारिवारिक संरचनाओं को नया आकार दे रही है तथा विकसित होते सामाजिक ढाँचे पर प्रकाश डाल रही है।
- व्यक्तिवाद का उदय: विशेषकर युवा पीढ़ी में व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति तीव्र हो रही है।
- स्वयं की अभिव्यक्ति, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत विकल्पों पर बल देना यह दर्शाता है कि सामुदायिक मूल्यों की अपेक्षा अब व्यक्तिगत पहचान को अधिक महत्त्व दिया जा रहा है।
- वैश्वीकरण और विश्वव्यापीकरण: यात्रा, मीडिया और इंटरनेट के ज़रिए वैश्विक संस्कृतियों के साथ बढ़ती संवाद ने एक कोस्मोपॉलिटन पहचान को जन्म दिया है।
- इससे कठोर सांस्कृतिक सीमाओं का विघटन हो रहा है और सांस्कृतिक आदान-प्रदान में तेज़ी आई है।
- इस वैश्विक संपर्क के कारण सांस्कृतिक पहचान अधिक गतिशील हो रही है तथा कठोर सांस्कृतिक सीमाएँ समाप्त हो रही हैं, जैसा कि अंतर-सांस्कृतिक आदान-प्रदान में वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है।
हालाँकि, तीव्र परिवर्तनों के बावजूद, पारंपरिक सामाजिक शब्दावली अभी भी भारतीय समाज के कई क्षेत्रों में प्रभावी है जैसे:
- जाति-आधारित असमानता का कायम रहना: जबकि आधुनिक भारत लैंगिक समानता और कानूनों को युक्तिसंगत बनाने पर जोर दे रहा है, जाति-आधारित भेदभाव, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, अभी भी पनप रहा है।
- भारत के कुछ भागों में अस्पृश्यता की प्रथा का जारी रहना यह दर्शाता है कि अन्य क्षेत्रों में प्रगति के बावजूद, जाति से संबंधित सामाजिक शब्दावली में काफी हद तक कोई बदलाव नहीं आया है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में लैंगिक पूर्वाग्रह: गैर-पारंपरिक भूमिकाओं में महिलाओं की शहरी सफलताओं के विपरीत, ग्रामीण भारत में अत्यधिक पितृसत्तात्मक मानसिकता बनी हुई है।
- शहरों में नेतृत्वकारी पदों पर महिलाओं की बढ़ती उपस्थिति के बावजूद, ग्रामीण मानदंड अक्सर महिलाओं की गतिशीलता और स्वायत्तता को प्रतिबंधित करते हैं।
- उदाहरण के लिये, ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को अभी भी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और नौकरियों तक पहुँचने में भारी बाधाओं का सामना करना पड़ता है तथा वे काफी हद तक घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित रहती हैं।
- धार्मिक प्रथाओं में सांस्कृतिक रूढ़िवादिता: भारत का विविध धार्मिक परिदृश्य अभी भी रूढ़िवादी प्रथाओं को अपनाए हुए है, जो परिवर्तन का विरोध करते हैं।
- उदाहरण के लिये, युवा पीढ़ी की बदलती आकांक्षाओं के बावजूद, पारिवारिक नेटवर्क के माध्यम से विवाह की व्यवस्था करने की व्यापक प्रथा को कई समुदायों में अत्यधिक महत्त्व दिया जाता है।
- भारत के विभिन्न भागों में धार्मिक नेता और समुदाय अभी भी काफी प्रभाव रखते हैं।
- पारंपरिक सांस्कृतिक प्रथाओं का संरक्षण: संस्कृति के बढ़ते हुए वस्तुकरण के बावजूद, कई पारंपरिक प्रथाएँ, विशेषकर कला, नृत्य और त्योहारों से संबंधित प्रथाएँ, संरक्षित बनी हुई हैं।
- उदाहरण के लिये, कथक, भरतनाट्यम और क्षेत्रीय हस्तशिल्प जैसी कलाएँ अभी भी गहन सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्त्व रखती हैं तथा इन्हें महज बाज़ार की वस्तु बनने से रोका जा सकता है।
- पीढ़ीगत अंतर और आकांक्षाओं में टकराव: जहाँ शहरी युवा पीढ़ी भौतिकवादी और उपभोक्तावादी सोच की ओर झुक रही है, वहीं पुरानी पीढ़ी अब भी आध्यात्मिक और पारिवारिक मूल्यों को प्राथमिकता देती है।
- यह पीढ़ीगत टकराव समलैंगिक विवाह जैसे मुद्दों पर चल रही बहसों में स्पष्ट दिखाई देता है।
निष्कर्ष:
एल्विन टॉफलर के शब्दों में, "21वीं सदी के निरक्षर वे लोग नहीं होंगे जो पढ़ और लिख नहीं सकते, बल्कि वे लोग होंगे जो सीख नहीं सकते, भूल नहीं सकते और दोबारा नहीं सीख सकते ।" यह सामाजिक मानदंडों और उन्हें परिभाषित करने के लिये हमारे द्वारा उपयोग की जाने वाली भाषा दोनों में समुत्थान शीलता की आवश्यकता पर बल देता है, क्योंकि हम एक निरंतर बदलते विश्व के अनुकूल होते हैं।