प्रश्न. “औपनिवेशिक भूमि राजस्व समझौतों ने न केवल कृषि संबंधों को परिवर्तित कर दिया, बल्कि आधुनिक भारत में ग्रामीण समाज और राजनीति को भी नया रूप दिया।” टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत पर औपनिवेशिक भूमि राजस्व बंदोबस्त के प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए उत्तर प्रस्तुत कीजिये।
- कृषि संबंधों को किस प्रकार परिवर्तित किया गया चर्चा कीजिये।
- आधुनिक भारत में ग्रामीण समाज और राजनीति को किस प्रकार नया स्वरूप दिया गया चर्चा कीजिये।
- स्वतंत्रता के बाद के भारत में उन्हीं संरचनाओं को ध्वस्त करने के उद्देश्य से किये गए घटनाक्रमों का संदर्भ देते हुए निष्कर्ष निकालें।
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परिचय:
शशि थरूर ने अपनी पुस्तक “इनग्लोरियस एम्पायर: व्हाट द ब्रिटिश डिड टू इंडिया” में लिखा है, उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारत ब्रिटेन के राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत था।
- स्थायी बंदोबस्त, रैयतवारी प्रणाली और महालवारी प्रणाली जैसी ब्रिटिश भूमि राजस्व प्रणालियों ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने कृषि संबंधों को प्रभावित किया और ग्रामीण समाज और राजनीति दोनों को नया स्वरूप दिया।
मुख्य भाग:
ब्रिटिश भू-राजस्व प्रणालियों द्वारा कृषि संबंधों में परिवर्तन:
- स्थायी बंदोबस्त के तहत भूमि से प्राप्त राजस्व को स्थायी रूप से तय कर दिया गया था, चाहे कृषि उत्पादन में कोई भी बदलाव क्यों न हो।
- इस व्यवस्था ने कृषि संबंधों को पूरी तरह बदल दिया क्योंकि इसने वास्तविक कृषकों (किसानों) को भूमि के स्वामित्व से अलग कर दिया और उन्हें ज़मींदारों के अधीन किरायेदार बना दिया।
- भूमि का वस्तुकरण (Commodification): महलवारी व्यवस्था ने भूमि को एक व्यापारिक संपत्ति के रूप में परिवर्तित कर दिया।
- इस प्रणाली के तहत भूमि को आसानी से खरीदा और बेचा जा सकता था, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की आर्थिक संरचना में बदलाव आया।
- परंपरागत सामूहिक या सामंती व्यवस्था के तहत खेती करने वाले किसान अब भूमि से धीरे-धीरे वंचित होते गए और कृषि संपत्ति का वितरण असमान होता गया।
- पारंपरिक कृषि पद्धतियों में व्यवधान: रैयतवारी और महलवारी व्यवस्थाओं के तहत भारी कर मांग ने किसानों को आत्मनिर्भर खेती से हटाकर नकदी फसलों (जैसे कपास, नील, गन्ना) की ओर प्रेरित किया।
- इस बदलाव से खाद्य फसलों की पारंपरिक खेती प्रभावित हुई, जिससे स्थानीय खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ा और वैश्विक बाज़ारों पर निर्भरता बढ़ी।
ब्रिटिश राजस्व प्रणालियों द्वारा आधुनिक भारत में ग्रामीण समाज और राजनीति का पुनर्गठन:
- ग्रामीण समाज में वर्ग विभाजन का उभार: औपनिवेशिक राजस्व प्रणालियों ने ग्रामीण भारत में अलग-अलग वर्गों को जन्म दिया, विशेष रूप से ज़मींदारों और किसानों के बीच विभाजन।
- स्थायी बंदोबस्त ने ज़मींदारों को ग्रामीण समाज में एक प्रमुख वर्ग बना दिया।
- रैयतवारी और महलवारी व्यवस्थाओं ने व्यक्तिगत स्वामित्व को प्रोत्साहित तो किया, लेकिन साथ ही भारी करों ने किसानों को गरीबी में बनाए रखा।
- राजनीतिक लामबंदी और किसान आंदोलन: दमनकारी कराधान और किसानों के शोषण ने अंततः 19वीं और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में किसान आंदोलनों को जन्म दिया।
- भू-राजस्व नीतियों ने ग्रामीण भारत की राजनीतिक चेतना को आकार देने में केन्द्रीय भूमिका निभाई, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न हुआ।
- महात्मा गांधी के नेतृत्व में वर्ष 1917 का चंपारण सत्याग्रह नील की खेती प्रणाली के तहत किसानों के शोषण का प्रत्यक्ष परिणाम था।
- ग्रामीण अभिजात वर्ग और कृषि सत्ता संरचनाओं पर प्रभाव: ब्रिटिश राजस्व प्रणालियों ने बिचौलियों की शक्ति को मज़बूत कर दिया था, जो अक्सर किसानों का शोषण करते थे।
- इन प्रणालियों ने कुछ ज़मींदारों या बिचौलियों को सशक्त बनाकर ग्रामीण राजनीति को नया रूप दिया, जिन्होंने मज़बूत राजनीतिक प्रभाव बनाए रखा, जबकि किसानों की आवाज बहुत कम या नगण्य थी।
- उदाहरण: महालवाड़ी प्रणाली ने ताल्लुकदारों और अन्य बिचौलियों को सशक्त बनाया, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे क्षेत्रों में, जिससे ग्रामीण अभिजात वर्ग का निर्माण हुआ, जिन्होंने स्थानीय राजनीति में भूमिका निभाई और स्वतंत्रता के बाद भूमि सुधारों का विरोध किया।
- शोषण और ऋण जाल: इन प्रणालियों द्वारा लगाए गए उच्च कर दरों ने किसानों के बीच सामाजिक-आर्थिक भेद्यता उत्पन्न कर दी।
- कई मामलों में, कर की मांगों को पूरा करने के लिये उन्हें उच्च ब्याज दरों पर साहूकारों से पैसा उधार लेने के लिये मज़बूर होना पड़ा, जिसके कारण ऋण का चक्र शुरू हो गया।
- वर्ष 1875 के दक्कन दंगे साहूकारों के उत्पीड़न और रैयतवारी व्यवस्था के तहत उच्च करों का प्रत्यक्ष परिणाम थे, जहाँ किसान ऋण के दुष्चक्र में फंस गए थे।
निष्कर्ष:
स्वतंत्रता के बाद, भारत ने इन औपनिवेशिक विरासतों को संबोधित करने के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाए, विशेष रूप से ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम और भूमि पुनर्वितरण नीतियों जैसे भूमि सुधारों के माध्यम से। इस प्रकार, जबकि औपनिवेशिक भूमि नीतियों ने शोषण को बढ़ावा दिया, स्वतंत्रता के बाद भारत के भूमि सुधारों ने एक अधिक न्यायपूर्ण और समावेशी ग्रामीण समाज की दिशा में एक सकारात्मक बदलाव को चिह्नित किया।