प्रश्न. भारत के संवहनीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन में हरित निवेश की भूमिका का आकलन कीजिये। वर्ष 2070 तक भारत अपने 'नेट-ज़ीरो' उत्सर्जन लक्ष्य के संदर्भ में पर्यावरणीय संधारणीयता को आर्थिक विकास के साथ किस प्रकार एकीकृत कर सकता है? (250 शब्द)
उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में हरित निवेश की वर्तमान स्थिति और स्थिरता को बढ़ावा देने वाले प्रमुख विकासों का उल्लेख करते हुए परिचय दीजिये।
- भारत के संवहनीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन में हरित निवेश की भूमिका पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
- संक्षेप में बताइये कि हरित निवेश में वृद्धि के बावजूद, विकास और स्थिरता के बीच संघर्ष अभी भी जारी है।
- पर्यावरणीय संधारणीयता को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करने के उपाय सुझाइये।
- उचित निष्कर्ष दीजिये।
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परिचय:
भारत में हरित ऋणों (ग्रीन बॉन्ड्स) में हो रही वृद्धि (वर्ष 2023 में जुटाये गये 21 अरब डॉलर) यह दर्शाती है कि संवहनीय अर्थव्यवस्था की दिशा में हरित निवेशों के माध्यम से वित्तीय प्रतिबद्धता लगातार बढ़ रही है।
- साथ ही, 'रेवा सौर ऊर्जा पार्क' जैसी सफल परियोजनाएँ भारत को वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर कर रही हैं, जिससे संवहनीयता आर्थिक विकास का केंद्रीय पक्ष बनती जा रही है।
मुख्य भाग:
भारत की संवहनीय अर्थव्यवस्था में परिवर्तन में हरित निवेश की भूमिका:
- प्रदूषण-मुक्त ऊर्जा संक्रमण को बढ़ावा देना: वर्ष 2021-22 में हरित वित्त का सबसे बड़ा भाग, लगभग 47% प्रदूषण-मुक्त ऊर्जा क्षेत्र को प्राप्त हुआ।
- इन निवेशों ने न केवल नवीकरणीय ऊर्जा की क्षमता का विस्तार किया है और जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता को घटाया है, बल्कि निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की दिशा में अग्रसर होने के साथ-साथ बिजली की लागत को भी कम किया है।
- संवहनीय अवसंरचना और हरित शहरीकरण: भारत के तीव्र नगरीकरण को देखते हुए संवहनीय अवसंरचना की आवश्यकता है और इस दिशा में हरित वित्त एक महत्त्वपूर्ण प्रेरक बन कर उभरा है।
- 'स्मार्ट सिटीज़ मिशन' के लिये 86 अरब डॉलर से अधिक की राशि निर्धारित की गई है, जिसमें बड़ी मात्रा में निधियाँ निम्न-कार्बन शहरी अवसंरचना परियोजनाओं में लगाई जा रही हैं।
- उदाहरण के लिये, स्मार्ट सिटीज़ मिशन के अंतर्गत इंदौर शहर ने ठोस अपशिष्ट प्रबंधन परियोजनाओं के लिये हरित वित्त का उपयोग किया है, जिससे कार्बन क्रेडिट उत्पन्न हो रहे हैं।
- हरित निवेश के माध्यम से जलवायु अनुकूलन और समुत्थानशीलन: हरित निवेश जल प्रबंधन तथा आपदा तैयारी जैसे क्षेत्रों में जलवायु लचीलापन को सुदृढ़ करने में भी सहायक सिद्ध हो रहा है।
- 'राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कोष' (NAFCC) ने ऐसी अनेक परियोजनाओं को वित्तीय सहायता दी है, जो जलवायु सहनशीलता को बढ़ाने में सहायक हैं।
- कार्बन बाज़ार और ग्रीन बॉण्ड: ग्रीन बॉण्ड, कार्बन क्रेडिट और अन्य बाज़ार-आधारित वित्तीय उपकरणों के माध्यम से कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने वाली परियोजनाओं में निवेश को प्रोत्साहन मिल रहा है।
- पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के तहत भारत एक घरेलू कार्बन बाज़ार विकसित कर रहा है, ताकि उत्सर्जन में लागत-प्रभावी कमी सुनिश्चित की जा सके।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2010 से 2022 के दौरान भारत ने 278 मिलियन कार्बन क्रेडिट जारी किये, जो वैश्विक आपूर्ति का 17% है।
- संवहनीय कृषि और जैवविविधता संरक्षण: हरित वित्त का उपयोग जलवायु-संवेदनशील कृषि पद्धतियों और जैवविविधता के संरक्षण को बढ़ावा देने के लिये भी किया जा रहा है।
- इसके अतिरिक्त, अक्तूबर 2023 में प्रारंभ 'ग्रीन क्रेडिट कार्यक्रम' जैसे नवाचारों के माध्यम से अनुपजाऊ भूमि पर वृक्षारोपण जैसे स्वैच्छिक पर्यावरणीय कार्यों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे 'ग्रीन क्रेडिट' उत्पन्न होते हैं।
हालाँकि 'हरित ऋण कार्यक्रम' भारत की संवहनीय अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसरता को गति दे रहा है, तथापि विकास और संरक्षण प्रयासों के संतुलन को लेकर कई महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिनमें शामिल हैं:
- वनों की कटाई और निवास-स्थलों का क्षय: तीव्र नगरीकरण और अवसंरचना विकास के कारण वन क्षेत्र तेजी से घट रहा है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र और आवश्यक पारिस्थितिक सेवाएँ बाधित हो रही हैं।
- FAO के अनुसार, वर्ष 2015 से 2020 के दौरान भारत में प्रतिवर्ष 668 हेक्टेयर वन का ह्रास हुआ।
- औद्योगिकीकरण से उत्पन्न वायु प्रदूषण: औद्योगिक विकास के चलते वायु प्रदूषण गंभीर रूप ले चुका है जिससे जनस्वास्थ्य पर संकट उत्पन्न हो रहा है।
- वर्ष 2023 में विश्व के 50 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में भारत के 39 शहर शामिल थे, जिनमें दिल्ली और कानपुर प्रमुख हैं।
- जल संकट और अत्यधिक दोहन: कृषि और उद्योग के लिये भू-जल का अत्यधिक उपयोग जल-संसाधनों के क्षरण का कारण बन रहा है।
- भारत के लगभग 70–80% किसान सिंचाई के लिये भू-जल पर निर्भर हैं, जिससे पंजाब और हरियाणा में जलभृतों का क्षरण हो रहा है।
- भूमि क्षरण और मृदा अपरदन: असंवहनीय कृषि पद्धतियाँ और भूमि उपयोग की अस्थिर नीतियाँ मृदा अपरदन, मरुस्थलीकरण तथा कृषि उत्पादकता में गिरावट का कारण बन रही हैं।
- भारत की लगभग 30% भूमि क्षरित है और 10 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र भूमि क्षरण से प्रभावित है।
- जलवायु परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाएँ: विकास कार्यों से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ा है, जिससे जलवायु परिवर्तन और चरम मौसम की घटनाएँ बढ़ी हैं।
- वर्ष 2023 में भारत का उत्सर्जन 6.1% बढ़ा और उसने वैश्विक उत्सर्जन में 8% का योगदान दिया। उसी वर्ष 92 में से 85 दिन देश ने चरम मौसमी घटनाओं जैसे बाढ़ और लू का सामना किया।
अतः पर्यावरणीय संधारणीयता को आर्थिक विकास के साथ अधिक प्रभावी ढंग से एकीकृत करना अनिवार्य है। इसके लिये निम्न प्रयास आवश्यक हैं —
- सतत नगरीकरण और जलवायु-सहनीय अवसंरचना: शहरी नियोजन में हरित अवसंरचना, ऊर्जा-कुशल भवन और शून्य-अपशिष्ट नीतियों को सम्मिलित किया जाना चाहिये। मिश्रित भूमि उपयोग, ऊर्ध्वाधर हरित स्थलों तथा सहनीय अवसंरचना पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
- 'स्मार्ट सिटीज़ मिशन' जैसे प्रयासों को जलवायु-सहनीय प्रणालियों और नवीकरणीय ऊर्जा चालित सार्वजनिक परिवहन के साथ जोड़ा जाना चाहिये।
- वन संरक्षण और समुदाय-आधारित वनीकरण: प्रतिपूरक वनीकरण नियमों का कठोर प्रवर्तन और पारिस्थितिकीय क्षतिपूर्ति की निगरानी को सशक्त बनाया जाना चाहिये।
- जैवविविधता और आजीविका को बढ़ाने हेतु समुदाय-आधारित वनीकरण तथा कृषि-वानिकी को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
- सुदृढ़ पर्यावरणीय शासन और हरित वित्तपोषण: 'पर्यावरण प्रभाव आकलन' (EIA) प्रक्रियाओं को प्रत्येक चरण में जन-परामर्श द्वारा मज़बूत किया जाना चाहिये।
- भारत की ग्रीन बॉण्ड निर्गमन में अग्रणी भूमिका का लाभ उठाकर नवीकरणीय परियोजनाओं हेतु हरित वित्तपोषण का विस्तार किया जाना चाहिये।
- समेकित जल संसाधन प्रबंधन: जल वितरण में समानता हेतु वर्षा जल संचयन, अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण और जलभृत पुनर्भरण की रणनीति अपनायी जानी चाहिये।
- ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर जैसे जल-संरक्षण तकनीकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- कृषि और औद्योगिक आवश्यकताओं में संतुलन हेतु पारिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील जलग्रहण क्षेत्र विकास को लागू किया जाना चाहिये।
- चक्रीय अर्थव्यवस्था और सतत् उपभोग: अपशिष्ट में न्यूनता और संसाधनों के न्यूनतम दोहन हेतु परिपथीय अर्थव्यवस्था का ढाँचा तैयार किया जाना चाहिये।
- 'विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व' (EPR), विकेंद्रीकृत अपशिष्ट प्रबंधन और बड़े पैमाने पर कम्पोस्टिंग को एकीकृत कर संरचनात्मक बदलाव लाया जाना चाहिये।
- व्यवहार परिवर्तन और ज़मीनी स्तर पर संवहनीयता: ऊर्जा संरक्षण, अपशिष्ट-पृथक्करण और सतत् उपभोग के लिये जन-जागरूकता को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- विद्यालयों और स्थानीय शासन संस्थाओं में पारिस्थितिक साक्षरता कार्यक्रम संचालित किये जाने चाहिये।
- विकेंद्रीकृत अपशिष्ट प्रबंधन और नवीकरणीय ऊर्जा अंगीकरण हेतु स्वयं-सहायता समूहों (SHG) को सशक्त किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
भारत के 'पंचामृत लक्ष्यों' के अनुरूप सरकार एक 'राष्ट्रीय हरित वित्तपोषण संस्था' की स्थापना कर रही है, जिसका उद्देश्य हरित निवेश को सुगम बनाना और वित्तीय लागत को कम करना है। यह पहल न केवल सतत् विकास लक्ष्यों— SDG7 (सस्ती और प्रदूषण-मुक्त ऊर्जा), SDG13 (जलवायु-परिवर्तन कार्रवाई) और SDG9 (उद्योग, नवाचार एवं बुनियादी सुविधाएँ) को समर्थन देगी, बल्कि भारत को निम्न-कार्बन अर्थव्यवस्था की ओर तीव्र गति से ले जायेगी, जिससे ऐसा सतत् विकास सुनिश्चित होगा जो 'जनता, लाभ और प्रकृति' इन तीनों के बीच संतुलन स्थापित करे।