• प्रश्न :

    प्रश्न. भारत में औपनिवेशिक प्रशासन ने पारंपरिक जनजातीय व्यवस्थाओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये। इन व्यवधानों के परिणामों और इन परिवर्तनों के प्रति जनजातीय समुदायों की प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)

    16 Jun, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 1 इतिहास

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • भारत में पारंपरिक जनजातीय प्रणालियों का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • चर्चा कीजिये कि औपनिवेशिक नीतियों ने किस प्रकार इन प्रणालियों को बाधित किया तथा जनजातीय समाजों पर इन व्यवधानों के परिणामों की विवेचना कीजिये।
    • इन परिवर्तनों के प्रति जनजातीय समुदायों की प्रतिक्रियाओं पर चर्चा कीजिये।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    भारत में पारंपरिक जनजातीय प्रणालियाँ आत्मनिर्भरता, सामुदायिक सौहार्द तथा प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव पर आधारित थीं, किंतु उपनिवेशवादी शासन के आगमन से इन प्रणालियों को गंभीर रूप से बाधित किया गया। ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन ने शोषणकारी आर्थिक नीतियों, सांस्कृतिक आरोपण तथा विदेशी शासन संरचनाओं की स्थापना के माध्यम से इन स्वदेशी व्यवस्थाओं को कमज़ोर किया। लंबे समय तक पर्यावरण के साथ संतुलित संबंध और स्वायत्तता का उपभोग करने वाले जनजातीय समुदायों की जीवन-शैली औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण बुनियादी रूप से परिवर्तित हो गई।

    मुख्य भाग:

    औपनिवेशिक व्यवधान एवं जनजातीय प्रणाली पर प्रभाव

    • भूमि और संसाधन से वंचना: ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीतियों के कारण जनजातीय समुदायों की पारंपरिक भूमि और संसाधनों से वंचना हुई, जिससे उनका पारंपरिक जीवन-निर्वाह तंत्र छिन्न-भिन्न हो गया। भारतीय वन अधिनियम, 1865 के तहत जनजातियों की वनों तक पहुँच सीमित कर दी गयी, जो उनके आजीविका स्रोत थे। इससे भूमि का स्वामित्व उनसे छिन गया और आत्मनिर्भर प्रणाली का विनाश हुआ।
      • ज़मींदारी व्यवस्था के थोपे जाने से यह शोषण और भी गहन हो गया। इस प्रणाली में बिचौलिये उत्पन्न हुए, जिन्होंने जनजातीय श्रम और भूमि का दोहन किया तथा उन्हें उनके पुश्तैनी क्षेत्रों से विस्थापित कर दिया।
      • इसके अतिरिक्त, रेलवे जैसे अधोसंरचनात्मक कार्यों में जनजातियों से बेगार (बलात् श्रम) लिया गया तथा ज़मींदारों के अधीन उन्हें ऋण बंधन में जकड़ दिया गया। इससे आर्थिक शोषण का एक चक्र निर्मित हुआ, जिसने जनजातीय समुदायों को गहराई से हाशिये पर पहुँचा दिया।
    • सांस्कृतिक अलगाव: ब्रिटिश शासन की नीतियों ने जनजातीय संस्कृति को भी गहरा आघात पहुँचाया। क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट जैसे कानूनों ने घुमंतू जनजातियों को ‘अपराधी’ घोषित कर सामाजिक रूप से कलंकित कर दिया। 
      • मिशनरियों द्वारा उनकी धार्मिक आस्थाओं और परंपराओं को ‘असभ्य’ और ‘आदिकालीन’ कहकर खारिज़ किया गया, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान पर संकट आया।
      • वनों एवं पवित्र स्थलों के प्रति जनजातीय श्रद्धा में औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण सांस्कृतिक वियोजन और गहरा हुआ, क्योंकि उनकी जीवन-दृष्टि औपनिवेशिक विचारधाराओं तथा संसाधनों पर नियंत्रण के साथ टकराने लगी।
    • सामाजिक विघटन: भूमि राजस्व और भू-अधिकार प्रणालियों में औपनिवेशिक परिवर्तनों ने भूमि स्वामित्व को लेकर व्यापक टकराव उत्पन्न किये। साथ ही, बागान (जैसे: चाय, कॉफी, रबड़) जैसे बड़े पैमाने पर होने वाले परियोजनाओं के लिये बलात् विस्थापन ने जनजातीय जीवन को और अधिक संकट में डाल दिया।

    इन परिवर्तनों के प्रति जनजातीय समुदायों की प्रतिक्रिया:

    • संथाल विद्रोह (1855-56): ब्रिटिश शोषण और राजस्व व्यवस्था के विरुद्ध झारखंड क्षेत्र के सांथाल समुदाय द्वारा किया गया एक सशस्त्र और संगठित विद्रोह, जो उपनिवेशवाद के विरुद्ध जनजातीय प्रतिरोध का प्रारंभिक उदाहरण था।
    • मुंडा उलगुलान (1899-1900): बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ यह आंदोलन जनजातीय स्वायत्तता की पुनः स्थापना और औपनिवेशिक शासन तथा ज़मींदारी शोषण के विरुद्ध संगठित संघर्ष का प्रतीक था।
    • रानी गाइदिन्ल्यू का आंदोलन (1930 के दशक): नगालैंड की जनजातियों द्वारा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक शांतिपूर्ण आंदोलन, जिसमें रानी गाइदिन्ल्यू ने जनजातीय अधिकारों और आत्मसम्मान की रक्षा हेतु नेतृत्व प्रदान किया।
    • वन सत्याग्रह (1930 का दशक): मध्य भारत के जनजातीय समुदायों द्वारा औपनिवेशिक वन कानूनों के विरोध में चलाया गया आंदोलन, जिसमें पारंपरिक वनाधिकारों की पुनः प्राप्ति के लिये प्रतिरोध किया गया।
    • बिश्नोई आंदोलन (1730 का दशक): राजस्थान में बिश्नोई समुदाय द्वारा वृक्षों और वनस्पति की रक्षा हेतु प्रारंभ किया गया आंदोलन, जो औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध प्रकृति-संरक्षण हेतु जनजातीय संकल्प को दर्शाता है।

    निष्कर्ष:

    यद्यपि पारंपरिक जनजातीय प्रणालियों के औपनिवेशिक विघटन ने व्यापक आर्थिक शोषण और सांस्कृतिक पतन को जन्म दिया। तथापि, समय-समय पर जनजातीय समुदायों द्वारा किये गये सशस्त्र एवं शांतिपूर्ण प्रतिरोध आंदोलनों ने न केवल उनकी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा की बल्कि स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि में जनजातीय सशक्तीकरण के आधार तैयार किये। इन आंदोलनों का अध्ययन समकालीन जनजातीय नीतियों की समझ के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।