• प्रश्न :

    प्रश्न "नैतिक साहस के लिये अकेले खड़े होने की इच्छा और अपनी स्थिति बदलने की विनम्रता दोनों की आवश्यकता होती है।" लोक प्रशासन में नैतिक साहस के उदाहरणों के साथ चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

    20 Mar, 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 4 सैद्धांतिक प्रश्न

    उत्तर :

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • नैतिक साहस के संदर्भ में जानकारी के साथ उत्तर दीजिये।
    • अकेले खड़े रहने की इच्छाशक्ति के मुख्य तर्क और उदाहरण दीजिये तथा नई वास्तविकताओं के आधार पर नीतियों के अंगीकरण के तर्कों एवं उदाहरणों पर गहन विचार प्रस्तुत कीजिये।
    • इस बात पर प्रकाश डालिये कि दोनों के बीच संतुलन क्यों महत्त्वपूर्ण है।
    • उचित निष्कर्ष दीजिये।

    परिचय:

    नैतिक साहस नैतिक सिद्धांतों को कायम रखते हुए विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए दृढ़ रहने की क्षमता है। हालाँकि, वास्तविक नैतिक साहस केवल अडिग प्रतिरोध के संदर्भ में नहीं है; बल्कि इसके लिये गलतियों को स्वीकार करने, नए साक्ष्यों से सबक लेने और उसके अनुसार अनुकूल की विनम्रता की भी आवश्यकता होती है।

    मुख्य भाग:

    अकेले खड़े रहने की इच्छाशक्ति:

    लोक सेवकों को प्रायः ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जहाँ उन्हें ईमानदारी बनाए रखने के लिये भ्रष्टाचार, राजनीतिक दबाव या संस्थागत जड़ता का विरोध करना पड़ता है। इसके लिये अकेले खड़े होने का साहस चाहिये, चाहे वह व्यक्तिगत या पेशेवर जोखिम ही क्यों न हो।

    उदाहरण के लिये:

    • अशोक खेमका (IAS अधिकारी): उन्होंने अपने कॅरियर में 50 से अधिक तबादलों का सामना करने के बावजूद एक शक्तिशाली राजनीतिक व्यक्ति से जुड़े अवैध भूमि सौदों का पर्दाफाश किया। उनकी दृढ़ता लोक प्रशासन में नैतिक साहस को उजागर करती है।
    • ई. श्रीधरन (‘भारत के मेट्रो मैन’): उन्होंने दिल्ली मेट्रो परियोजना में प्रशासनिक विलंब और राजनीतिक हस्तक्षेप का विरोध किया तथा यह सुनिश्चित किया कि दक्षता एवं गुणवत्ता मानकों को बनाए रखा जाए।
    • संजीव चतुर्वेदी (व्हिसलब्लोअर IFoS अधिकारी): AIIMS के मुख्य सतर्कता अधिकारी के रूप में, उन्होंने भारी दबाव और प्रतिशोध के बावजूद खरीद एवं भर्ती में भ्रष्टाचार को उजागर किया।

    ये उदाहरण दर्शाते हैं कि नैतिक नेतृत्व के लिये प्रायः निहित स्वार्थों की अवहेलना करना आवश्यक होता है, तब भी जब अकेले खड़े होने में चुनौतियाँ हों।

    परिवर्तन के प्रति विनम्रता:

    जबकि दृढ़ रहना महत्त्वपूर्ण है, लोक सेवकों को परिस्थितियों में परिवर्तन होने या नई जानकारी सामने आने पर अपने रुख को संशोधित करने के लिये भी तैयार रहना चाहिये। विनम्रता नेताओं को गलतियों को सुधारने, नए दृष्टिकोण अपनाने और व्यापक भलाई के लिये नीतियों को परिष्कृत करने की अनुमति देती है।

    उदाहरण के लिये:

    • महात्मा गांधी (असहयोग आंदोलन, 1922): चौरी चौरा की घटना के बाद, जहाँ हिंसा भड़क उठी, गांधीजी ने आंदोलन को वापस ले लिया, यह महसूस करते हुए कि अनियंत्रित आंदोलन से अधिक नुकसान हो सकता है।
      • उनका निर्णय प्रारंभिक रणनीतियों के सख्त पालन की तुलना में अहिंसा को प्राथमिकता देने वाले जिम्मेदार नेतृत्व को दर्शाता है।
    • टी.एन. शेषन (चुनाव सुधार, 1990 का दशक): प्रारंभ में चुनावी कदाचारों को रोकने के लिये आक्रामक, टकरावपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया, लेकिन बाद में संस्थाओं के साथ मिलकर काम करने के लिये अपनी रणनीति में संशोधन किया, जिससे स्थायी सुधार सुनिश्चित हुए।
    • डॉ. वर्गीज़ कुरियन (ऑपरेशन फ्लड): प्रारंभ में उन्होंने डेयरी में निजी क्षेत्र की भागीदारी का विरोध किया, लेकिन बाद में उन्होंने सहकारी मॉडल को अपनाया, जिसके परिणामस्वरूप भारत की डेयरी क्रांति को सफलता मिली।

    लोक प्रशासन में संतुलन की आवश्यकता:

    • एक सफल लोक सेवक को नैतिक विश्वास और लचीलेपन के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित हो सके:
      • निर्णय लेने में सत्यनिष्ठा (अनैतिक प्रभावों का विरोध)।
      • नई जानकारी के प्रति संवेदनशीलता (बेहतर परिणामों के लिये नीतियों को अनुकूलित करना)।
      • धारणीय शासन (यह सुनिश्चित करना कि आवश्यक सुधार स्वीकार किये जाएँ और प्रभावी ढंग से कार्यान्वित किये जाएँ)।
    • उदाहरण के लिये, डिजिटल गोपनीयता कानूनों पर कठोर रुख व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा कर सकता है, लेकिन साइबर अपराधों के खिलाफ कानून प्रवर्तन प्रयासों में बाधा उत्पन्न कर सकता है। सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए गोपनीयता की रक्षा के लिये संतुलन की आवश्यकता है।

    निष्कर्ष:

    लोक प्रशासन में नैतिक साहस का अर्थ है जब आवश्यक हो तो अकेले खड़े रहने की इच्छाशक्ति और जब आवश्यक हो तो अनुकूलन करना। आदर्श लोक सेवक भ्रष्टाचार का विरोध करते हैं, ईमानदारी बनाए रखते हैं और फिर भी परिवर्तन के लिये तैयार रहते हैं, जिससे शासन सुनिश्चित होता है जो सिद्धांतबद्ध व प्रगतिशील दोनों है।